विकास जड़ का नहीं, चेतना के स्फुल्लिंगों का

March 1995

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भारतीय दर्शन और संस्कृति आदिकाल से ही आत्म चेतना की अखंडता पर आस्थावान् है। आत्मा अणुमात्र होकर भी वह संपूर्ण शरीर पा आधिपत्य रखती है भावनात्मक परिष्कार से आत्मबल बढ़ता है और अपने स्वरूप को जानने वाला जीवात्मा परमात्मा सत्ता से एक रूप हो जाता है आत्मिक विकास की यह स्वाभाविक प्रक्रिया है इस रहस्य को न जान पाने के कारण मनुष्य काया को ही सब कुछ मानकर उसी को सँजोने सँवारने में सारी जिंदगी खपा देता है और अंततः खाली हाथ इस संसार से विदा होता है।

शरीर मरणधर्मा है किन्तु ईश्वर का अविनाशी अंश आत्मा अजर अमर है इस तथ्य को पाश्चात्य मनीषी एवं नोबुल पुरस्कार विजेता भौतिकविद् डॉ. पियरे दि कोम्ते ने स्वीकार करते हुए कहा है कि आत्मा विश्वात्मा से संबंधित है इसी आधार पर वह अमर है, क्योंकि विश्व चेतना अमर है और आत्मा उसी की छोटी इकाई मात्र है मनोविज्ञानी जिसे ईगों कहते हैं इलेक्ट्रोडाइनेमिक सिद्धांतों के अनुसार उसकी छानबीन किये जाने पर यह तथ्य सामने आये है कि जन्म−मरण चक्र में परिभ्रमण करती हुई भिन्न-भिन्न आकृति प्रकृति अपनाते हुए भी मूल सत्ता अक्षुण्ण बनी रहती है जो चेतन सत्ता की अखंडता का परिचायक है।

विभिन्न खोजों के बाद विश्वविख्यात वैज्ञानिक फ्रेड हाँयल तथा भारतीय विज्ञानविद् डॉ. जयत विष्णु नार्लीकर ने यह स्थापना की है कि विश्व रचना के कारणभूत अणु और मानवीय काया की संरचना में भारा लेने वाले कारणभूत अणु की मूल संरचना एक सी है। इससे स्पष्ट होता है कि मनुष्य का विकास प्रकृति परमाणुओं से एक नियम विशेष के तहत हुआ है जिसका नियंत्रण चेतना करती है। आइन्स्टीन ने भी सृष्टि के मूल में चेतना को सक्रिय माना था। जे.ए. थामसन, स्वर जेम्स जीन्स ए.एस. एडिंगटन आदि प्रख्यात वैज्ञानिकों ने विज्ञान की नवीन दिशाओं का अलग-अलग विवेचन करते हुए एक ही बात कही है कि विज्ञान के पास जीवन के प्रारंभ होने की कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं है। अब वैज्ञानिक अन्वेषण चेतना और विचार जगत की ओर बढ़ रहे हैं।

आज का विज्ञान यों आत्मा के अस्तित्व तक पहुँच गया है, पर ध्यान और अनुभूति जन्य ज्ञान के अभाव में वह इस तथ्य को मानने को तैयार नहीं होता। मनुष्य शरीर जिन छोटी-छोटी प्रोटोप्लाज्म को इकाइयों से बना है वह दो भागों में विभक्त है 1. नाभिक-न्यूक्लियस

2. साइटोप्लाज्म जिसके अंतर्गत जल, कार्बन, नाइटोप्लाज्म जिसके अंतर्गत जल कार्बन नाइट्रोजन फास्फोरस आकाश आदि सभी पंच भौतिक ठोस द्रव तथा गैस अवस्था वाले पदार्थ पाये जाते है। विभिन्न प्राणधारियों में यहाँ तक कि मनुष्य मनुष्य के साइटोप्लाज्म फर्क होता है। वह वंशानुगत आहार पद्धति और जलवायु आदि पर आधारित है और परिवर्तनशील भी है। आहार के नियमों तथा एक स्थान से दूसरी जलवायु वाले स्थान में परिवर्तन के फलस्वरूप हमारे शरीरों के स्थूल भाग में अंतर आ सकता है। पर अभी तक चेतना की अर्थात् नाभिक की क्रियाओं पर वान कोई नियंत्रण नहीं पा सका हाँ वैज्ञानिक शोधों से यह जरूर सिद्ध हो चुका है कि नाभिक में ही मनुष्य की सारी बौद्धिक चेतना काम करती है। उसमें न केवल अमर व अविनाशी गुण सूत्र विद्यमान् है वरन् वह सूत्र ब्रह्माण्ड को नाप सकने की क्षमता से परिपूर्ण हैं। समूचे शरीर में यह चैतन्य तत्त्व एक शक्ति एक तरंग की भाँति विद्यमान् है, उसी के न रहने पर शरीर भी नहीं रहता।

यह चेतना ही है जो मनुष्य शरीर से लेकर सृष्टि के स्थूल कणों तक में व्याप्त हो रही है। जहाँ तक चेतना का अंश प्राकृतिक परमाणुओं से शक्तिशाली होना है वहाँ तक तो जड़ और चेतन का अंतर स्पष्ट प्रतीत होता रहता है पर एक अवस्था ऐसी आती है जब जड़ता चेतनता पर पूरी तरह घटाटोप हो जाती है। यही वह अवस्था है जब चेतना पर पूर्णरूप से जड़ गुणों वाली अर्थात् कंकड़ पत्थर जैसी स्थिति में चली जाती है। मुख्य रूप से सृष्टि की चेतना एक ही है पर वह गुणों के द्वारा क्रमशः जड़ होती चली गई है जो जितना जड़ हो गया, वह उतना ही उपभोग्य हो गया, पर जिसने अपनी चेतना का जितना अधिक परिष्कार कर लिया, वह उतना ही उपभोक्ता अर्थात् महामानव-देवमानव होता चला जाता है।

डार्विन जैसे विकास शास्त्रियों ने मनुष्य को अन्यान्य जीवों का विकसित रूप बताया है। थ्योरी ऑफ यूज एण्ड डिसयूज” के सिद्धांतों से यह सिद्ध किया है कि मनुष्य शरीर विकसित हुआ है। कहा नहीं जा सकता यह सिद्धांत कितने सच है क्योंकि इसमें एक शरीर से दूसरे शरीर में विकास की जो कड़ियाँ बिठायी है, उनके विकास का समय इतना लंबा है कि उन परिवर्तनों को सही मान लेना बुद्धि संगत नहीं जान पड़ता प्रकृति के परमाणुओं में भी ऐसी व्यवस्था नहीं है कि एक बीज से दूसरे बीज के गुणों का सर्वदा अभाव नहीं हो सकता। विकासवाद के सही रहस्य को समझने के लिए हमें आत्म चेतना की गहराई में प्रवेश करना पड़ेगा तभी यह समझा जा सकेगा कि आत्म चेतना ही सर्वत्र जड़ एवं चेतन में क्रियाशील है। पेड़ पौधों को जड़ और चेतन के बीच की की नीचे की कड़ी कहा जा सकता है और जीवित ग्रहों को उच्च कड़ी यही प्रतिपादन जड़ता से असीम चेतना के विकास का प्रमाण माना जा सकता है।

आत्मा एक दिव्य चेतना स्फुल्लिंग है जिसका विकास ही मानव के लिए अभीष्ट हैं स्वाध्याय, सत्संग, चिंतन-मनन से लेकर और जप-तप एवं योगाभ्यास परक ध्यान-धारणा समाधि की समस्त प्रक्रियाओं का निर्धारण इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए किये गये है। इस प्रकार अपूर्णता से पूर्णता की ओर जब कदम बढ़ चलते है, तब जीवन का वह स्वरूप बन जाता है जिसमें आत्मा भवबंधनों से मुक्त होकर नर नारायण बनने की ओर प्रगति यात्रा को अग्रगामी कर पाती है।


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