ऋषित्व का अर्जन ही चरम सिद्धि

March 1995

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लता-वितान और झालरों से सजायी गयी यज्ञशाला की सौंदर्य छटा देखते ही बनती थी। आखिर सम्राट रथवीति स्वयं जो यज्ञ के संरक्षक और यजमान थे। संपूर्ण नगर की प्रजा इस यज्ञ की सफलता के लिए प्राण-पण से जुटी थी। नगर की गली-गली स्वच्छता ओर सजावट के मारे दमक रही थी। प्रजा का उत्साह देखते ही बनता था।

जल यात्रा का विशाल जुलूस मंडप पर आ रुका। यज्ञ कलश प्रतिष्ठित कर दिए गए। ऋत्विज्गणों ने अपने-अपने आसन सँभाल लिए। तभी इस यज्ञ के आचार्य और ब्रह्मा महर्षि अर्चनाना आत्रेय अपने ज्येष्ठ पुत्र श्यावाश्व आत्रेय के साथ वहाँ पहुँचे।

कोलाहल निस्तब्ध-नीरवता में परिवर्तित हो गया। महाराज और राजमहिषी ने आगे बढ़कर उन्हें साष्टांग प्रणिपात किया और प्रधान यज्ञ मंडप तक ले आए। महर्षि का तेज सूर्य के समान तो पुत्र चन्द्रमा के समान शीतल और तेजस्वी। उनके पांडित्य का तो कहना ही क्या? सम्पूर्ण राष्ट्र में उस समय अर्चना का यश पूर्णमासी की धवल चन्द्रिका की भाँति फैल रहा था।

यज्ञ सकुशल संपन्न हुआ। स्विष्टकृत होम और देवों को वसोधारा समर्पित कर दी गयी। पुष्पाञ्जलि और विसर्जन तक की संपूर्ण क्रियाएँ बड़े आनंद और उल्लास के साथ संपन्न हुयीं। प्रजा प्रसाद पाकर चलने लगी। उधर एक विशिष्ट आसन पर बैठे अर्चनाना राज्य प्रमुखों सहित महाराज रथवीति से विचार विमर्श कर रहे थे। तभी उनकी दृष्टि एक ओर हठात् खिंच गयी। क्षौम परिधान धारण किए नवयुवती के अद्वितीय सौंदर्य पर दृष्टि पड़ते ही महर्षि अर्चनाना की दृष्टि एक क्षण के लिए रुक सी गयी। देखने से ऐसा लगता था, उसे देखकर महर्षि के मस्तिष्क में कोई विचार उठ पड़ा हो।

देव! यह मेरी पुत्री मनोरमा है रथवीति ने परिचय कराते हुए कहा-रथवीति ने परिचय कराते हुए कहा- “यही हमारी अकेली संतान है देव! इसे हमने कला निष्णात बनाने का हर संभव प्रयत्न किया है। व्याकरण और साहित्य में आचार्य है।

“अतीव प्रसन्नता की बात है राजन्। बालिकाओं का शिक्षित होना तो आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। उसी से तो राष्ट्र में श्रेष्ठ संतति का निर्माण होता है। महर्षि ने उधर से मुख फेरते हुए एक दीर्घ निश्वास लेकर सारी बात ऐसे कहीं मानों उनके हृदय में कोई पीड़ा उमड़ उठी हो।

गुरुदेव! आप अपने अंतर्मन में कुछ बेचैनी अनुभव कर रहे है। असंभव न हो तो कृपया हमें बताएँ हम आपकी क्या सेवा कर सकते है, रथवीति ने बड़ी विनम्रता से पूछा। उपस्थित श्रीमंत गण अभी कुछ सोच में थे। उन्हें आश्चर्य था कि महर्षि के मन में यह अटपटा प्रसंग क्यों उठ पड़ा।

महर्षि ने एक बार सभी उपस्थित की ओर ऐसे देखा मानों वे एकांत चाहते हों। धर्मपरायण रथवीति ने सबको सादर विदा कर दिया। तब महर्षि अर्चनाना ने कहा- रथवीति मेरे जीवन में कभी कोई इच्छा उत्पन्न नहीं हुई पर इस बालिका को देखते ही मेरे हृदय में वात्सल्य उमड़ पड़ा है। समझ में नहीं आता ऐसा क्यों कर सोचता हूँ यह कन्या मेरी पुत्र वधू हो सकी होती तो श्यावाश्व को एक उपयुक्त जीवन साथी मिल जाता और मुझे अपने वात्सल्य भाव को तृप्त करने का आधार।

रथवीति महर्षि का यह कथन सुनकर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा-देव मेरी पुत्री का संबंध तेजस्वी अत्रि कुल में और श्यावाश्व जैसे होनहार युवक के साथ हो, इससे बढ़कर कन्या और हम सबके लिए गौरव की क्या बात हो सकती है। गौरव की क्या बात हो सकती है। मनोरमा भी धन को नहीं, योग्यता और सदाचरण को महत्त्व देती है। यह तो उसकी इच्छा की पूर्ति ही हुई किंतु। कहते-कहते एक क्षण को रथवीति रुक गए और कुछ सोच में पड़ गए।

किंतु क्यों राजन्! स्पष्ट कहो न। हमने अपनी इच्छा व्यक्त की है बाध्य तो नहीं किया। संपूर्ण स्थितियों पर विचार करके उत्तर दे सकते हो। अपने पुत्र के लिए योग्य वधू की खोज मेरा धर्म था। ऐसा लगा श्यावाश्व के लिए मनोरमा सर्वथा उपयुक्त है।

आपका कथन सत्य है, भगवन्। किंतु मुझ से अधिक मनोरमा पर राजमहिषी का अधिकार है। माँ होने के कारण उसके हित की बात वे मुझसे अधिक सोच सकती है। आप ठहरें हम अभी उनसे पूछकर आते है यह कहकर रथवीति अंतः पुर की ओर चल पड़े

साम्राज्ञी ने महाराज रथवीति की सारी बातें ध्यान से सुनी। एक बार वह मुस्कराई फिर थोड़ा गंभीर होकर बोलीं “महाराज यों तो यह संबंध बहुत ही उपयुक्त है। किंतु श्यावाश्व की योग्यता पर मुझे संदेह है। मनोरमा की योग्यता ऋषि पत्नी बनने की है। कदाचित महर्षि अर्चनाना ने श्यावाश्व को मनोरमा के सौंदर्य से न तोला होता। उसकी योग्यता से श्यावाश्व की योग्यता की तुलना भी कर ली होती तो मुझे प्रस्ताव स्वीकार करने में कोई आपत्ति न होती। पर अब मैं क्या कर सकती हूँ।

स्पष्ट असहमति। रथवीति उदास लौटे। राजमहिषी ने जो कुछ कहा था, ज्यों का त्यों कह दिया। श्यावाश्व अब तक मनोरमा को अंतरात्मा से अपनी सहचरी मान चुका था। उसकी स्थिति ऐसे हो गयी, जैसे किसी ने मछली को जलाशय से निकाल कर मरुस्थल में डाल दिया हो। जैसे किसी को आकाश में चढ़ाकर नीचे धकेल दिया गया हो।

अर्चनाना उदास होकर आश्रम लौटे। श्यावाश्व की स्थिति कुछ और ही थी। प्रेम जीवन की चरम उपलब्धि एक बार जब कभी हृदय में प्रेम की पीड़ा उमड़ती है तो मनुष्य की स्थिति न जाने क्या हो जाती है। उसे प्रेमास्पद के अतिरिक्त कुछ सूझता भी तो नहीं। श्यावाश्व की भावनाओं में मनोरमा के प्रेम की छाया साधना बनकर उत्तर चुकी थी और वह उसका मूल्य चुकाना अच्छी तरह जानते थे।

सवेरा हुआ, महर्षि अर्चनाना अपने स्वाध्याय शिक्षण और आश्रम व्यवस्था में व्यस्त हो गए। पर श्यावाश्व अपने योगाभ्यास में अभी भी संलग्न थे। एक समय का आहार-मिताहार यम नियम, ध्यान -धारणा का अभ्यास करते-करते श्यावाश्व ने अपने जीवन की रही सही महत्त्वाकाँक्षाओं का भी हवन कर दिया। साधना साधना साधना शरीर को तपाने से लेकर मन को ईश्वरीय सत्ता में घुलाने के लिए वे अविराम तप करने लगे।

एक दिन जब वह उपासना के लिए बैठे तो उनका ध्यान नीलाभ आकाश की निस्पन्दता में ऐसा खो गया, जैसे उनकी आत्मचेतना का कोई पृथक् अस्तित्व ही न रहा हो। करोड़ों सूर्य सम प्रभा वाले ग्रह नक्षत्रों के बीच उन्होंने दिव्य आभा वाले कुछ पुरुषों के दर्शन किए। श्यावाश्व ने आराध्य मरुद्गण को पहचाना और उनकी प्रार्थना ऋचा बन गयी।

संपूर्ण आश्रम एक अनुपम दिव्य आभा और सुगंध से भर गया। अर्चनाना दौड़े ऋषि पद प्राप्त अपने पुत्र को उन्होंने अपनी छाती से लगा लिया। आँखों से प्रेमाश्रुधारा बहाते ऋषि को वह दिन याद आया, जब इसी योग्यता के लिए श्यावाश्व को ठुकरा दिया गया था। चोट खाया हुआ हृदय यदि साधना में लग जाय तो वह क्या नहीं कर सकता। यह उनकी समझ में आज आया।

श्यावाश्व अपने आश्रम से चलकर सर्वप्रथम पितामह अत्रि के पास पहुँचे। पौत्र को देखते ही अत्रि ने कंठ में पहनायी हुई मरुद्गणों की माला को पहचान लिया। पुत्र के साथ पौत्र के भी ऋषि हो जाने का हर्ष उनसे सँभाला नहीं गया। उन्होंने कहा-श्यावाश्व अब तुम रथवीति के पास जाओ और उनकी कन्या मनोरमा को वधू बनाकर साथ ले आओ।

पर उसके लिए तो यह कठिन बात थीं। उनके हृदय में मनोरमा के प्रति अपार प्रेम था। किंतु स्वाभिमान वहाँ जाने के लिए आज्ञा नहीं दे रहा था। तब अत्रि ने भगवती संध्या को दूत बनाकर भेजा। पर उनके वहां पहुँचने से पूर्व ही रथवीति और राजमहिषी को उनके ऋषि हो जाने की बात पता लग गयी थी। वहाँ मनोरमा के विवाह की तैयारियाँ भी हो रही थी।

समय पर श्यावाश्व के लिए महर्षि अत्रि के आश्रम में रथ पहुँच गया। वह उस पर चढ़ कर राजमहल पहुँचे। उनके स्वागत के लिए राजमहिषी सब से आगे उपस्थित थी। श्यावाश्व को देखते ही उन्होंने कहा क्षमा करो वत्स। उस दिन पहचानने में भूल हुई। तुम्हें पाकर हम अतीव गौरव अनुभव करते है। श्यावाश्व ने उन्हें प्रणाम करते हुए कहा-क्षमा करो वत्स। उस दिन पहचानने में भूल हुईं। तुम्हें पाकर हम अतीव गौरव अनुभव करते है। श्यावाश्व ने उन्हें प्रणाम करते हुए कहा-क्षमा का पात्र तो मैं हूँ। आपने उस दिन सही मूल्यांकन न किया होता और उसके लिए साहस न दिखाया होता तो आज मुझे यह स्थिति कहाँ मिलती?


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