गायत्री उपासना-शंकाएँ एवं समाधान

March 1995

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गायत्री मंत्र अपने आप में पूर्ण है। उसमें तीन ॐ पाँच ॐ बीज संपुट आदि लगाने की कोई आवश्यकता नहीं हैं। ऐसे प्रयोग तो तांत्रिक प्रयोगों में जहाँ तहाँ आते है सर्वसाधारण को उस जंजाल भटकाने की आवश्यकता नहीं है।

हर धर्म का एक मुख्य मंत्र होता है जैसे मुसलमानों में कलमा, ईसाइयों में बपतिस्मा जैनों में नमो ओंकार तिब्बतियों में ॐ मीठा पधे हुँ आदि। इसी प्रकार भारतीय धर्म में एक ही गुरु मंत्र है गायत्री।

यह कहना भी बेतुका है कि हर जाति की एक-एक अलग गायत्री है। ब्राह्मणों की अलग, क्षत्रियों की अलग वैश्यों की अलग कायस्थों की अलग। यह जाति पाँति की ऊँच-नीच की बीमारी अध्यात्म क्षेत्र में उस गहराई तक प्रविष्ट नहीं होने देना चाहिये जहाँ तत्त्व ज्ञान, धर्म और ईश्वर एक है। इन्हें बिरादरी बाद में नहीं फँसाया जा सकता।

कइयों का कथन है गायत्री गुप्त मंत्र है। इसे कान में कहना चाहिये यह बात कदाचित तांत्रिक मंत्रों के संबंध में लागू भी होती है। पर वेद मंत्रों को तो सस्वर पढ़ने का विधान है। इसके संबंध में ऐसा कोई प्रतिबंध लागू नहीं हो सकता। छिपकर कानाफूसी के रूप में एकांत में दुरभि संधियों संबंधी चर्चा होती है गायत्री मंत्र में ऐसा कुछ नहीं जो गुप्त रखना पड़े और जिसे किसी दूसरे को न सुनने दिया जाय।

कई व्यक्ति कहते है, गायत्री में पुलिंग शब्दों का प्रयोग हुआ है, फिर उसे माता कैसे कहा जाता है? यह समझना चाहिये कि शक्तियों का व्यापक और निराकार रूप स्त्री पुरुष के झंझट से कहीं ऊँचा है। अग्नि, पवन आदि शब्दों में स्त्रीलिंग पुलिंग दोनों का ही प्रयोग होता है। भगवान की प्रार्थना का प्रसिद्ध श्लोक है-

त्वमेव माता च पिता त्वमेव तुम्हीं माता हो तुम्हीं पिता। सविता पुलिंग हो सकता है पर उनकी शक्ति सावित्री तो स्त्रीलिंग हुई। शास्त्रों के अलंकारिक रूपों को प्राणियों के मध्य पाये जाने वाले नर-मादा भेद में नहीं घसीट लेना चाहिये।

इसी प्रकार गायत्री के एक मुख दो हाथ, पाँच मुख दस भुजाओं का किसी जीवधारी का स्वरूप मानकर भ्रम में न पड़ना चाहिये। नारी की नर की तुलना में अधिक उत्कृष्टता मानते हुये नारी के प्रति नर का भोग्या रूपी कुदृष्टि वाला स्वरूप हटे इसलिए उसे नारी का माता का रूप दिया गया है। हाथ में कमंडल और पुस्तक होने का तात्पर्य ज्ञान और विज्ञान की ओर संकेत है।

पंच मुखी और दस भुजा वाला प्राणी इस संसार में न कभी हुआ है न भविष्य में होगा। यह अलंकारिक संकेत हैं। पाँच कोश अर्थात् पाँच मुख। धर्म के दस लक्षण अर्थात् गायत्री की दस भुजाएँ

हंस वाहन के संबंध में भी ऐसा ही संकेत है कि उसका अनुग्रह प्राप्त करने के लिये मनुष्य को अपना आंतरिक स्तर राजहंस जैसा परम हंस जैसा बनाना चाहिये। राजहंस जैसा परम हंस जैसा बनाना चाहिये। राजहंस के संबंध में मान्यता है कि वह नीर क्षीर विवेक रखता है। उचित अनुचित का अंतर करता है जो उचित है उसी को ग्रहण करता है। मोती ही चुगता है। कीड़े-मकोड़े नहीं खाता। यह परम हंस की मनः स्थिति का विवेचन है साधारण हंस तो कीड़े मकोड़े ही खाते है, उन बेचारों को दूध कहाँ उपलब्ध होता है? इसी प्रकार गहरे समुद्र में डुबकी लगाकर मोती भी नहीं पा सकते।

गायत्री अपनाने के संबंध में स्त्रियों और शूद्रों को उसे अपनाने का निषेध भी किसी ऐसे ही प्रतिगामी दिमाग की उपज है। भगवान की बनाई वस्तुओं का उपयोग उसकी हर संतान कर सकती है। सूर्य की गर्मी चन्द्रमा की चाँदनी पवन का प्राण, अन्न, जल नदी, सरोवर आदि सभी का उपयोग कर सकते हैं। उन पर किसी बिरादरी का कब्जा सिद्ध नहीं किया जा सकता। ईश्वर सबका है। शक्ति गायत्री भी सबकी है।

यदि बिरादरीवाद का झगड़ा ही करना हो तो मात्र क्षत्रिय मुकदमा जीतेंगे और समस्त बिरादरी हार जाएगी विश्वामित्र ही गायत्री के .ऋषि है। उन्हीं ने उसे सिद्ध किया था इसलिये उनके वंशज तो अपने पूर्वजों का अधिकार होने का तर्क प्रस्तुत भी कर सकते है और अन्य किसी उसकी रॉयल्टी का दावा कर सकते है। ऐसी बातें करना बाल बुद्धि से बढ़कर और कुछ नहीं है।

इसी प्रकार यदि भारत देशवासियों का गायत्री पर दावा प्रस्तुत किया जाय तो उन प्रवासी भारतीयों को भी रोकना पड़ेगा जिनने अन्य देशों की नागरिकता स्वीकार कर ली है यदि हिन्दुओं की गायत्री कही जाय तो विदेशों में इस प्रसंग पर जो वैज्ञानिक खोज कर रहे है उन पर भी प्रतिबंध लगाने का कोई उपाय सोचना पड़ेगा वस्तुतः इस बुद्धिवाद और विवेकशीलता के युग में ऐसी ऊटपटाँग बातें कहना भी और सुनना भी बुरा लगता है। वास्तविकता यह है कि सभी मनुष्य भगवान के बनाये है। उसके यहाँ जाति वंश लिंग वर्ण के कारण मनुष्य भगवान के बनाई है उन पर सभी का समान अधिकार है।

गायत्री मंत्र सृष्टि के आदि में ब्रह्माजी पर प्रकट हुआ। उनने उसकी व्याख्या चार मुखों से चार वेदों के रूप में की। यह ज्ञान मनुष्य मात्र के लिए है। गायत्री मंत्र को अपनाने का अधिकार सभी जाति वर्ण लिंग वालों को समान रूप से है।

दुर्भाग्य से मध्यकाल में सामंतवादी अंधकार युग ऐसा आया जिसमें नीच-ऊँच का नीच की खाई बनी और मनुष्य जाति अनेक भागों में विभक्त हुई उनके अधिकार भी न्यूनाधिक किये गये।

स्त्रियों और शूद्रों को दुर्बल समझ कर उन्हें शिकंजे में कसे रहने की दृष्टि, उन्हें अपने-अपने आप को हेय समझने की मनःस्थिति बनाने के लिए कई प्रचलन ऐसे बनाये गये जिसमें सवर्णों के पुरुषों को सभी अधिकारी थे और स्त्रियों शूद्रों दासों को उन अधिकारों से वंचित किया गया। इसी संदर्भ में गायत्री मंत्र के संबंध में प्रतिबंध लगाया गया कि उस पर स्त्री और शूद्रों का अधिकार नहीं है। सामंतों के इशारे पर पंडितों ने जिस तिस ग्रंथ में ऐसे श्लोक भी गढ़ कर लिख दिये जिसमें मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद-भाव की बात पुरातन परंपरा या ईश्वर की इच्छा मानी जाय।

अब समझदारी का समता का, मानवी मौलिक अधिकारों का युग है। स्त्री और शूद्रों की गणना भी मनुष्य समुदाय के अंतर्गत होने लगी है जो कि समय की बड़ी आवश्यकता थी। संविधान ने भी उन्हें समता के अधिकार दिये है। गायत्री मंत्र के बारे में भी यही बात समझी जानी चाहिए। वह मनुष्य मात्र का है। किसी भी देश, जाति लिंग धर्म का व्यक्ति उसे प्रसन्नतापूर्वक अपना सकता है और लाभ उठा सकता है ब्राह्मणों या द्विजों तक उसको सीमित नहीं किया जा सकता। गायत्री परिवार ने इस तथ्य का विज्ञान संगत प्रतिपादन कर तथ्य का विज्ञान संगत प्रतिपादन कर तथा कथित महामंडलेश्वरों से मोर्चा लेकर इसे जन-जन तक पहुँचाया हैं।देखा जाय तो भगवान के यहाँ बेटी और बेटे में कोई अंतर नहीं। ऐसा भेदभाव तो पिछड़ी मनोभूमि के व्यक्ति ही कर सकते हैं किसी के भी बहकावे में आकर किसी महिला को यह संदेह न करना चाहिए कि महिलाओं को गायत्री अधिकार नहीं है। वे उपासना की भाँति यज्ञ भी कर सकती है। इसके लिए उनकी व्यस्तता और सुविधा का ध्यान रखते हुए यज्ञ समेत गायत्री उपासना का छोटा-सा सकता है कि महिलाएँ उपासना तो कर ही लिया करें।

महिलाएँ प्रायः प्रातः काल सबसे अधिक व्यस्त रहती है। सफाई नाश्ता, नित्यकर्म आदि इसी समय करने पड़ते है। बच्चे स्कूल जाते है। पुरुष अपने दफ्तर कारबार पर। उन सभी को अपने-अपने कामों की जल्दी पड़ती है। यह सब महिलाओं को प्रातःकाल ही करने पड़ते है। बच्चियाँ और वृद्धाएँ भी किसी न किसी रूप में इन कामों में हाथ बटाती है। इसीलिए महिलाओं के लिए प्रातः सायं का समय उपयुक्त नहीं पड़ता सायंकाल भी प्रातः उपरोक्त प्रकार के दबाव ही उन पर रहते है।

इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए उनके लिए बारह से लेकर तीन बजे तक ही सुविधा जनक समय निकलता है। अनुष्ठान आदि के लिए उनके लिए यही समय उपयुक्त पड़ता है स्नान के उपरांत एक माला का जप तो प्रातःकाल भी कर सकती है।

भोजन बनाते समय, मानसिक जप करती रहें तो उस आहार का सभी खाने वालों पर उपयुक्त असर पड़ेगा

जिन दिनों मासिक धर्म हो उन दिनों नियमित जप रखना चाहिए मानसिक जप तो कोई किसी भी स्थिति में कर सकता है।

जो महिलाएँ यज्ञोपवीत पहनती हों उन्हें रजो धर्म के उपरांत नया यज्ञोपवीत बदल देना चाहिए।

कहा जाता है गायत्री पवित्र मंत्र है इसकी उपासना करने वालों को शुद्धतापूर्वक रहना चाहिए यज्ञोपवीत पहनना चाहिए और मद्य माँस आदि का सेवन नहीं करना चाहिए। नशा आदि न करना अच्छी बात है। जितनी शुद्धता रखी जा सके उतनी ही अच्छी है। पर इसका अर्थ यह नहीं है कि मलिनता की स्थिति में रहने वाले को औषधि ही नहीं देनी चाहिए। गायत्री मंत्र की यह विशेषता है कि इसकी उपासना करने पर मनुष्य के दोष-दुर्गुण अनायास ही घटने लगते है। जिस प्रकार गंगा में नहाने पर हर स्तर का प्राणी पवित्र ही होता है। उसमें घुसने से किसी को भी नहीं रोका जा सकता। गाय, भैंस, गधा, घोड़ा तक रुक नहीं सकते है। इसी प्रकार गायत्री मंत्र की साधना हर स्थिति का हर स्तर का, मनुष्य कर सकता है। उस पर कोई रोक नहीं है। उसके दुर्गुण तो अपने आप ही समयानुसार घटने लगेंगे।बीमार को दवा नहीं देनी चाहिए। जैसे जिस प्रकार यह तर्क अनुचित है। उसी प्रकार यह कथन भी सही नहीं कि आहार बीमार की अशुद्धता हो तो उनसे छुड़ाने वाले उपचार गायत्री साधक को भी नहीं अपनाना चाहिए।

यज्ञोपवीत गायत्री का रूप है। मन्दिर में बैठ कर देव प्रतिमा के सामने पूजा करना अधिक अच्छा है। पर इसका अर्थ यह नहीं कि यदि भी नहीं करना चाहिए। बिना उपवीत के भी गायत्री साधना की जा सकती है। इच्छा हो तो उसे पहने भी रहना चाहिए।

कई बाल की खाल निकालने वाले कुतर्की गायत्री महामंत्र को भी साधारण पद्यों में गिनते है और उसमें साधारण पद्यों में गिनते हैं और उसमें 24 के स्थान पर 23 होने की छंद रचना परक पिंगल शास्त्र की भूल चाहिए कि पिंगलशास्त्र की दृष्टि में उपभेद बताये गये है और उनमें 21 से लेकर 24 तक अक्षर है। यथा-निचृद गायत्री अर्ग्वी, विराड, चिराडार्थी, प्रजापात्या, भूरिम्, वर्धमाना, पिपीलिका, मध्या, आदि आदि।

इतने पर भी किसी का आग्रह 23 अक्षर मानने का ही हो तो उसे वह निचृद वर्ग का गायत्री छंद कह सकता है। पर उसे अशुद्ध नहीं कह सकता। वैसे लिखने में “णियम्” बोलते हैं इस प्रकार भी वे चौबीस अक्षर हो जाते है।

तांत्रिक साधनाओं के विधान में त्रुटि रहने पर उनके असुरता प्रधान इष्ट देव नाराज होकर अनर्थ भी कर सकते है। किंतु गायत्री तो क्षमा ओर करुणा से भरी पूरी सहृदय माता है। वह तो अपने बच्चे की तोतली बोली सुनकर भी प्रसन्न होती है। यह ऐसी कामधेनु गौ है जो किसी को लात मारना जानती ही नहीं।

सात्विक प्रयोजनों में तो उलटी सीधी उपासना भी श्रद्धा के आधार पर फलवती होती है। वाल्मीकि के बारे में कहा जाता है कि वे राम नाम का शुद्ध उच्चारण न कर सकने पर उलटा नाम ‘मरा-मरा’ जपने लगे और उतने भ्रम से ब्रह्म समान हो गये। दक्षिण मार्गी साधनाओं में विधानों का कम और भावनाओं का अधिक महत्त्व है। गायत्री उपासना विधि में कोई भूल रह जाने पर भी किसी का अनर्थ नहीं हुआ। फिर भी भय हो तो किसी सिद्ध पुरुष को साधना का संरक्षण करते रहने के लिये उत्तरदायित्व सौंपा जा सकता है।

जन्म मरण का सूतक होने के अलावा बीमार पड़ने प्रवास में होने पर स्नान आदि की नियत समय की सुविधा नहीं रहती। ऐसी दशा में बिना होंठ हिलाये मानसिक जप किसी भी स्थिति में किया जो सकता है। रात्रि के समय भी बिस्तर पर पड़े होने पर भी। रास्ता चलते भी मानसिक जप किया जा सकता है।

कलियुग में गायत्री मंत्र कीलित है। शापित है। निष्फल जाता है। ऐसी आशंका किसी को भी न करनी चाहिये भगवान को कौन शाप देगा। फिर किसी के शाप का उस पर क्या प्रभाव पड़ेगा? यह लोगों की श्रद्धा डगमगाने और अपने पक्ष वाले संप्रदाय की उपासना करने के लिये रचा गया भ्रम जंजाल मात्र है। कदाचित दूसरा अर्थ सुयोग्य गुरु का वरण भी तो हो सकता है अन्यथा प्रतिबंध जैसी कोई बात नहीं है।


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