प्रेम की विराट् परिधि

March 1995

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प्रेम क्या है? विज्ञान के अर्थ में कहें तो सुविधा-साधनों की दृष्टि से संसार को समुन्नत बनाना। दर्शन की दृष्टि से विचार करें, तो उत्कृष्टतावादी चिंतन देना। कर्मयोग की भाषा में कर्मनिष्ठा पैदा करना और समाजशास्त्र के मत में सुव्यवस्था लाना।

इन आरंभिक व्यक्तिवादी कार्यों के माध्यम से स्नेह जब विराट विस्तार पाता है तभी वह वास्तविक प्रेम बनाता और वरेण्य साबित होता है पूर्ण सत्य का यही पूर्ण प्रकाश है। विज्ञान, दर्शन कर्म समाजशास्त्र यह सब संपत्ति जिस लक्ष्य के प्रति समर्पित है उनमें उनका प्रेम तो झाँकता है, किंतु वह न्यून और अपूर्ण है। उसका संपूर्ण प्रकाश अध्यात्म के उस संक्षिप्त सूत्र में सन्निहित है जिसमें आत्मवत् सर्वभूतेषु कह कर उसे अभिव्यक्त किया गया है। निस्संदेह समाज के लिए सुविधा-साधनों का विकास कर विज्ञान ने एक प्रकार से प्रेम का ही प्रदर्शन किया है। पर यह तुच्छ प्यार तब तक महत्त्वहीन है जब तक वह अपने निखिल अंश में न प्रकाशित हो। विज्ञान का दायित्व समाज को प्रगति की ओर ले चलना है किंतु जब क्षुद्र स्वार्थ में पड़ कर वैज्ञानिक अवगति के सरंजाम जुटाने लगे तो समझना चाहिए कि जिस अनुराग का अभ्युदय अंतर में हुआ था, वह निजी सुख से कुछ ही आगे बढ़कर छोटे दायरे में सीमाबद्ध हो गया। यह परिमित स्नेह इस परिधि को पार कर असीम न बना, तो फिर वैज्ञानिक विकास भी शोषण-उत्पीड़न का निमित्त ही बना रहेगा और सुविधाओं का दुरुपयोग ही करता रहेगा। जहाँ दुरुपयोग हो हानि हो वहाँ विशुद्ध अनुराग की आशा नहीं की जा सकती। इसके विपरीत जहाँ विकार रहित प्रेम होगा, वहाँ अपनत्व होगा और अपनत्व की पीड़ा भी होगी यह पीड़ा ही सदुपयोग को प्रोत्साहित और दुरुपयोग को हतोत्साहित करती है। इसके अभाव का नाम ही स्वार्थ है। स्वार्थियों में न तो वात्सल्य होता है, न उपकार की भावना ही उल्टे वे अपकार में निरत रह कर दूसरों को हानि पहुँचाने की ही चेष्टा करते रहते है इस प्रकार विज्ञान का विकास वास्तविक स्नेह की अनुपस्थिति में विनाश का हेतु साबित होता है।

दर्शन चिंतन की एक विधा का नाम है। समयानुकूल दर्शन से समाज का मार्गदर्शन होता है और यह ज्ञात होता है कि समस्त लोगों को वह उन्नति की दिशा में आगे बढ़ा ले जाने की उत्कंठा रखता है। इतने पर भी सब कुछ चिंतन क्षेत्र तक ही सीमित रहे और व्यावहारिकता के धरातल पर जीवन में न उतरे तो इसे भी पूर्ण सत्य का-पूर्ण प्रेम का अपूर्ण अंश ही कहना चाहिए। इतने से भी बात बनने वाली नहीं। दर्शन प्रभावोत्पादक तब होता है जब वह प्रतिपादक के जीवन में उतर कर कर्म में परिवर्तित हो जाय। यदि इतना न हो सका जीवन सामान्य स्तर से ऊँचा न उठा तो फिर दोहरे व्यक्तित्व का कलंक सिर पर लदता एवं अपमान अपयश का भागी बनना पड़ता है। इसलिए दर्शन की पूर्णता उस अंतिम सत्य में निहित मानी गयी है जहाँ दार्शनिक मात्र चिंतक बना नहीं रहता वरन् एक आदर्शनिष्ठ पुरुष की तरह समाज के साथ व्यवहार करता है। यही अनुराग है, जिसकी की आखिरी परिणति के बारे में श्रुति कहती है “आनन्दरुपममृतं यद्विभाति” अर्थात् वह (प्रेम) आनन्द रूप में प्रकाशित होता है। यह सत्य है कि आनन्द की उपलब्धि वात्सल्य के बिना संभव नहीं। दोनों एक-दूसरे के सहोदर -सहचर है। जहाँ प्रेम का प्रकाश है आनंद का उल्लास वहीं दिखाई पड़ता है।

प्रीति का चौथा स्वरूप कर्मनिष्ठा है। यह दो प्रकार की मानी गई है। एक वह जो व्यक्तिगत कार्यों के प्रति उपजाती है, तब वह स्वार्थलिप्सा मात्र बनकर रह जाती है, ऐसी लिप्सा जहाँ केवल अपने ही उन्नयन की चाह हो। दूसरी वह जहाँ अपने और परायेपन का लोप हो जाता है और सभी कार्य अपने निजी प्रतीत होने लगते हैं भले ही वह पारिवारिक हों सामाजिक राष्ट्रीय नैतिक धार्मिक कुछ भी हों। जहाँ स्तर भेद समाप्त होकर सभी का एकीकरण हो जाय वही कर्तव्य बोध का प्रथम उदय होता है। इस कर्तव्य बोध का विकास ही कर्मयोग का प्रारंभ है। जब कर्म योग में रूपांतरित होने लगे तो समझना चाहिए कि उस यथार्थ की उपलब्धि हो गई जिसका बाह्य स्वरूप ‘प्रेम’ है।

समाज की इकाई व्यक्ति है, इस दृष्टि से व्यक्तिगत जीवन में शांति और सुव्यवस्था की प्रतिष्ठापना अभीष्ट और आवश्यक तो है पर साथ ही इस बात का भी ध्यान रखना पड़ेगा कि यह अनुशासन समाज में स्थापित हो सका या नहीं। यदि नहीं तो वह कौन से उपाय उपचार हो सकते है। जिनके माध्यम से सामाजिक अशान्ति और असंतोष को दूर कर उसे उत्कर्ष की ओर ले जा सकना संभव है? यह सोचना समाजशास्त्री का दायित्व है। जिस परिमाण में वह इसे पूरा करता

है उतने ही अंशों में वह प्रेम रूप ईश्वर को प्राप्त करता चलता है। इस मार्ग में बढ़ते हुए जब उसे यह अनुभव होने लगे कि उसके वैयक्तिक और वैश्य शरीर में कोई अंतर नहीं ओर इनकी भी देख रेख काया की तरह होनी चाहिए, तो वह प्रीति के चरमोत्कर्ष पर प्रतिष्ठित हो जाता है। यही पूर्णता प्राप्ति है। इस अवस्था में उसे निजी देह के कोश-कोश ऊतक ऊतक के बीच जिस प्रकार का जितना संतुलन सामंजस्य दिखाई पड़ता है वही तालमेल वह इस विराट् वैश्व-देह के मानव-मानव और संस्था-संगठन के मध्य स्थापित करने के लिए आकुल-व्याकुल होने लगता है। यही वह अवस्था है जब परम सत्य वात्सल्य बनकर फूट पड़ता है। एकाकी व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत जिंदगी में शान्ति और सुव्यवस्था अपना कर प्रशंसा का पत्र तो बन सकता है पर जिस यात्रा की शुरुआत परम तत्त्व की उपलब्धि कराने में सफल हो सकती थी उसकी यदि इतिश्री निजी जीवन में मान ली गई तो समझना चाहिए कि पूर्णता की देरी नाप न सके और स्वार्थ-सुख में उलझ कर छितरा गये। इस दुर्भाग्य को सौभाग्य को सौभाग्य सुख में बदल सकना विराट् स्तर पर किये गये प्रेम द्वारा ही संभव है।


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