स्वार्थ परायणता अर्थात् ईश्वर से विश्वासघात

March 1995

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शरीरगत लाभों का अनुचित रीति से संचय करना स्वार्थ कहलाता है। शरीर की तनिक-सी आवश्यकताएँ है। चार मुट्ठी अनाज, छः गज कपड़ा और एक बिस्तर भर की छाया मिल जाने से उसका काम चल जाता है। इतने साधन जुटाये के लिए दो घंटे नित्य का कड़ा परिश्रम काफी हो सकता है। बचते हुए समय को पुण्य परमार्थ में लगाया जा सकता है। मनुष्य की लिप्सा लालसा तृष्णा अहंता का कौतुक देखिए कि वे इतनी अधिक इच्छा आकांक्षाएँ बटोर कर सिर पर लाद लेती है जिनकी खाई में पर्वत भी समा सके और जो समुद्र उड़ेल देने पर भी समा सके और जो समुद्र उड़ेल देने पर भी खाली रहे इसी ललक की पूर्ति के लिए किए गए प्रयास को स्वार्थ कहते है। उसमें अपना लाभ ही ध्यान में रहता है। साथ ही इतनी जल्दी वैभव बटोर की अकुलाहट होती है कि औचित्य अपनाने के लिए धैर्य नहीं रहता। उतावली यह रहती है कि जितनी जल्दी जितना अधिक विलास वैभव हस्तगत किया जा सके उसे बिना नीति मर्यादा का विचार किए बटोरते चला जाए। जितनी असीमता की परिधि तक संचय किया जाय यह दूसरी बात है कि भाग्य साथ न दे। पात्रता योग्यता और परिस्थिति उतना न मिलने दे जितना कि चाहा गया था।

स्वार्थी व्यक्ति प्रयत्नशील तो होता है पर औचित्य की मर्यादाओं को भूला देता है। उपलब्धियों को विलासी साज सज्जा में खर्च करता है। व्यसन व्यभिचार जैसी अनेकों दुष्प्रवृत्तियाँ पाल लेता है। जिन मुट्ठी भर आदमियों को अपने परिवारी कहता है उन्हीं के लिए मरता खटकता रहता है। जो कमाता है उस का उपयोग स्वयं तो कर नहीं सकता क्योंकि हर व्यक्ति के उपभोग स्वयं तो कर नहीं सकता क्योंकि हर है। उससे अधिक जो बटोरा गया है उसे कहीं तो फेंकना ही पड़ेगा इसके लिए परिवार की छोटी परिधि ही आत्मीयता के दायरे में आती है। उन्हीं के लिए कमाई को निछावर करता है। उन्हीं के लिए इतनी जमा पूँजी छोड़ कर मरने की बात सोचता है जिसे वे सात पुश्त तक बैठे खाते रहे। पर होता यह है कि जैसा चाहा गया था वैसा करने के लिए धैर्य रखने की दूरदर्शिता उनमें भी नहीं होती। जो मेहनत से कमाया गया जिसमें औचित्य का समावेश किया गया है। इतना जिसमें अपना और परिवार का औसत भारतीय स्तर का निर्वाह हो सके। पर जो तुर्त-फुर्त अत्यधिक मात्रा में संचित किया गया है उसे देर तक रोककर नहीं रखा जाता है वह इच्छा तो संपदा पर लगा कर पक्षी की तरह उड़ना चाहती है। और बदलें में चित्र विचित्र दृश्य देखने, चित्र विचित्र स्वाद खाने के लिए इतनी जल्दी में होती है कि अपव्यय के हर रास्ते निकालती है अनेक दुर्व्यसनों दुष्प्रवृत्तियों को न्योता बुलाती है मुफ्त का धन प्रायः इसी प्रकार खर्च होता है वह इतने दिन के लिए रुकता भी नहीं कि अगली पीढ़ियाँ उसे समझदारी से खर्च करे और सुख पूर्वक जिंदगी काटे स्वार्थी स्वयं तो बुरी तरह खटता है। कमाता भी अधिक है पर उस पर शैतान की तरह ममता हावी रहती है। तथा कथित अपनों के लिए उसे लुटाता रहता है तथा कथित अपनों के लिए उसे लुटाता रहता है। अपनी ही तरह अमीरी का चस्का उन्हें भी लगा देता है।

अमीरी का शौक तो फूटे घड़े की तरह है जिसमें पानी डालकर चाहें जितना भर दिया जाय तो भी वह कुछ ही समय में खाली हो जाता है। अमीरी का नशा जिस पर सवार हुआ उसे स्वार्थी बनाया और उसकी ममता की परिधि में जो भी आया वह आलसी प्रमादी अपव्ययी दुर्व्यसनी बना। पैतृक उत्तराधिकारी या उपहार के रूप में जो मिला था, फुलेल की गंध की तरह कुछ ही समय में उड़ ही जाता है कुछ भी हाथ न लगने का पश्चाताप हाथ लगता है। जिन्हें अनावश्यक दुलार देकर सजाया उछाला गया था वे बड़े होने पर इस स्थिति में नहीं रहते जिनके उपहारों का मजा उड़ाया था उनके प्रति कृतज्ञता का भाव रख सकें या आड़े वक्त में सहायता दे सके। हराम में पाई विपुल कमाई उन स्रोतों के साथ इसलिए लड़ाई ठाने बैठी रहती है कि जो मिला कम मिला उन्हें अधिक मिलना चाहिए था और अधिक! और अधिक!!

स्वार्थ परायणता ईश्वर के साथ विश्वासघात है। मनुष्य को अनेक सुविधाओं से भरा पूरा शरीर अद्भुत सूझ-बूझ बल मस्तिष्क साधनों से भरा हुआ संसार मिला। मनुष्य के साथ स्रष्टा ने पक्षपात नहीं किया है। वरन् उसे दिव्य धरोहर के रूप में अपनी सर्वश्रेष्ठ कलाकृति किसी उद्देश्य विशेष के लिए दी है। बैंक के खजांची के पास बड़ी धन राशि होती है पर वह बैंक की अमानत है। निजी खर्च के लिए तो उसे थोड़ा-सा वेतन मिलता है। सेनापति के अधिकार में हथियारों के गोदाम रहते है पर उनका उपयोग वह राष्ट्र रक्षा के लिए ही कर सकता है। शासनाध्यक्षों, अफसरों के पास विपुल अधिकार होते हैं पर उन्हें वह सब जन कल्याण के लिए ही खर्च करने की छूट है। जो हाथ आया उसे अपने निजी स्वार्थ साधन के लिए खजांची, शासनाध्यक्ष या सेनाध्यक्ष या सेनाध्यक्ष उपयोग करने लगें परिवार वालों को अमीर बनने लगे तो उनका यह कृत्य अमानत को काटकर अपना बनाने लगे तो उनका यह कृत्य अमानत में खयानत अपना घर भरने लगें परिवार वालों को अमीर बनाने लगें कहा जाएगा और दंडनीय अपराध कहा जाएगा मनुष्य के पास जमा हुई संपदा विधा, कला, कुशलता आदि के संबंध में भी यही बात है। वह लोक मंगल के निमित्त दी हुई स्रष्टा की पवित्र धरोहर है। उसे जिस हेतु सौंपा गया है उसे उसी निमित्त दी हुई सौंपा गया है उसे उसी निमित्त खर्च किया जाना चाहिए।

वैभव वर्चस्व, मनुष्य ने भले ही अपनी मेहनत या बुद्धिमत्ता से कमाया है पर उस पर अधिकार समूची विश्व वसुधा का है। जो शरीर और मस्तिष्क समूची विश्व वसुधा का है। जो शरीर और न मस्तिष्क पास में है वह किसी का निज का बनाया हुआ नहीं है। वह स्रष्टा ने बनाया और उसी ने दिया है। पर साथ ही यह अनुबंध भी रखा है कि उस महती उपलब्धि का उपयोग मात्र उसके विश्व उद्यान को सींचने सँजोने एवं सुसंस्कारित बनाने में ही खर्च किया जाय। यही परम स्वार्थ है इसी को परमार्थ कहते है।

स्वार्थ शरीर द्वारा शरीर के लिए उतावली में अनीतिपूर्वक कमाया जाता है किंतु परमार्थ में आत्मा की आकांक्षा भावना आवश्यकता तथा कल्याण की संभावना जुड़ी होती है आत्मा शरीर नहीं है। शरीर की अधिष्ठात्री हैं वह ईश्वर की अंशधर है देवत्व से भरी पूरी उसके अपने स्वार्थ है ईश्वर के आदर्शों का परिपालन। लोक मंगल के लिए अधिकाधिक साहस और त्याग का प्रदर्शन इसमें शरीर और अंतःकरण दोनों का ही वास्तविक हित साधन होता है दोनों ही फलते फूलते हैं। किंतु स्वार्थ संचय की ललक भरी व्यस्तता ऐसी होती है जिसके कारण आत्म कल्याण के लिए न कुछ सोचना बन पड़ता है न करते धरते ऐसी दशा में आत्मा की स्थिति भूखे प्यासे दीन दरिद्र जैसी हो जाती है। शरीर संभव हो किसी अंश में फूलों-सा दिखाई दे पर आत्मा तो निरंतर क्षीण होती जाती है। उसे आत्म तो निरंतर क्षीण होती जाती हैं। शरीर संभव हो किसी क्षीण होती जाती है। उसे आत्म तो निरंतर क्षीण होती जाती है। उसे आत्म हनन करना पड़ता है और आत्म प्रताड़ना सहनी पड़ती है शरीर जिसकी सुख सुविधा के लिए समूचा जीवन खपा दिया गया वह भी देर तक साथ नहीं देता। विलासिता में अतिवाद का समावेश करने से वह दिन-दिन क्षीण होने लगता है। दुर्बल तथा रोगी बनता है। बुढ़ापा जवानी में ही आ घेरता है और अकाल मृत्यु का ग्रास बनना पड़ता है। स्वार्थी अपनी निष्ठुरता एवं लिप्सा के कारण बदनाम भी होता है। चरित्र को सुरक्षित नहीं रख पाता। अकरणीय कार्य करने में लोक निंदा, आत्म प्रताड़ना और अनुचित रीति अपनाने की दंड विद्या उसका पीछा नहीं छोड़ती उसका परिवार भी उसी ढाँचे में ढाल जाता है। जा सीखा है उसका प्रथम प्रयोग उसी पर होता है जिसने सिखाया है। शरीर और परिवार दोनों ही स्वार्थी को पीसते और निचोड़ते है। क्रिया की प्रक्रिया जब सामने आती है तब पता चलता है कि स्वार्थपरता के गठबंधनों में अपने आपको जकड़ना ऐसा ही है जैसा कि जान बूझकर किसी गहरे दल दल में फँस जाना। इस अनुपयुक्त मार्ग पर चलने वाले काँटों में उलझते, ठोकरें खाते, थकान से ग्रसित होते और भूल पर असाधारण रुदन जैसा पश्चाताप करते है।

शरीर की अमीरी महत्त्वाकाँक्षाएँ और परिवार की अनेकानेक तृष्णाएँ मिलकर इतनी भारी हो जाती है कि उनके ढोने में व्यक्तित्व का कचूमर निकलता है। वह ओछा घटिया, बनावटी, छिछोरा, अनगढ़ असभ्य माना जाता है। भले ही पैसे की दृष्टि से उसने कुछ संपन्नता ही संचित कर ली हो। प्रशंसा और प्रतिष्ठा उनकी होती है जो परमार्थी है आत्म संतोष और लोक सम्मान, जन सहयोग ही नहीं उन्हें दैवी अनुग्रह भी मिलता है। महामानव सिद्ध पुरुष-देवात्मा ऋषि मनीषी एवं भगवान का पार्षद, विशेष अंशधर उन्हें ही माना जाता है। जिनने परमार्थ को ही अपना सच्चा स्वार्थ माना। जिनने लोक मंगल में रस लिया उसके लिए समय निकाला और काम किया समझना चाहिए कि उसने सही मार्ग अपनाया और जीवन रथ को उस राह पर चलाया जिस पर कि दूरदूर्शी स्वयं चलते तथा दूसरों को चलाते है। स्वयं पार उतरते और दूसरों को अपने कंधों पर बिठा कर पार उतारते है।

परमार्थ के बल पर चलते हुए यह देखना होता है कि क्या कार्य विधि अपनाई जाय? इसके लिए दो ही निर्विवाद मार्ग है। एक प्रत्यक्ष दूसरा परोक्ष। प्रत्यक्ष में अपंग, असहाय, असमर्थ मुसीबतग्रस्त पिछड़े अनगढ़ लोग आते है। उन्हें मार्गदर्शन तथा आर्थिक सहयोग दे कर किस प्रकार स्वावलंबी बनाया जाय इसका यथा संभव प्रयास करना चाहिए। इस हेतु आर्थिक आधार पर आवश्यक साधन खड़े किए जा सकते है। कोई सेवा भावी इन कार्य में श्रम, समय का भी योगदान कर सकते है। यदि उनके लिए निर्वाह की आवश्यकता हो तो उसे भी दुखियारों की सेवा में ही गिना जाना चाहिए। चिकित्सालय, पाठशाला गृह उद्योग आदि की स्थापना के लिए धन नहीं योग्य कार्य कर्ताओं की भी आवश्यकता पड़ती है उनके लिए निर्वाह जुटाना भी प्रत्यक्ष परमार्थ मार्ग में ही आती है।

दूसरा इससे ऊँचा प्रयास है लोक मानस का परिष्कार सत्प्रवृत्ति संवर्धन इसे मानवी का परिष्कार, सत्प्रवृत्ति संवर्धन इसे मानवी व्यक्तित्व में दबी चेतना या प्राण फूँकना कह सकते है। जिन्हें यह सुयोग उपलब्ध हो समझानी चाहिए कि उनका कल्याण ही होगा। मनुष्य में स्वयं इतनी शक्ति सामर्थ्य है कि अपने दोष दुर्गुणों अभाव दरिद्रियों कष्ट-संकटों से स्वयं जूझ सके, उनसे निपट सके, निरस्त कर सके, कमी केवल प्रकाश मिलने की रहती है मार्ग दर्शन की। यदि मनुष्य सही सोच सके। सही कर सके। आदर्शों को गले उतार सके एवं पच सके तो समझना चाहिए कि विपत्तियों से ही छुटकारा नहीं मिला वरन् प्रगति का पथ भी प्रशस्त हो गया। मनुष्य न पराधीन है न परावलम्बी उसमें सामर्थ्य के इतने विपुल भण्डार भरे पड़े है कि प्रतिकूलताओं को वह तोड़-मरोड़ सकता है और परिस्थितियों को भी अनुकूल बना सकता है। कठिनाई एक ही है कि वह आत्मा को समझने, उसके स्वरूप उद्देश्य को चेतना के अंतराल तक पहुँचा नहीं पाता। वह अपने शरीर को, परिवार को ही सब कुछ मानता रहता है। उसी के लिए मरता खपता रहता है, मृत्यु तक को भूल जाता है न कर्म फल की स्मृति ध्यान में रहती है और न परलोक में भगवान के सम्मुख उपस्थित होने की। जिस कार्य के लिए जीवन मिला था। उस का उपयोग कितना सही हो सका इसका विवरण तैयार करने की भी अभिलाषा नहीं उठती। इस अर्ध मूर्छित स्थिति में नशे की गहरी खुमारी से न उबरना उबारना ही बन पड़ता है। इस तत्त्वज्ञान को जीवन दर्शन को जन मानस में उतारा उबारना ही बन पड़ता है। इस तत्त्वज्ञान को जीवन दर्शन को जन मानस में उतारा जा सके तो इन्हीं सामान्य मनुष्यों में से अनेकों ऐसे नर निकल सकते है जो मानवी गरिमा को उच्च स्तरीय बनाने के अतिरिक्त समाजगत प्रचलन में भी उच्चस्तरीय आदर्शवादिता भर सके। आदर्शवादिता जीवन में ढल जाती है तब समाज बदलने लगता है। स्वार्थपरायणता जो आज समाज में संव्याप्त है को परमार्थ परायणता में बदलना ही आज की परिस्थिति में सर्वोपरि युगधर्म है।


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