भय का मनोविज्ञान

March 1995

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अकड़न की बीमारी जब शुरू होती है, तो सारे शरीर को बुरी तरह जकड़ लेती है अंग सीधे नहीं होते चलना उठना कठिन हो जाता है रक्त ठंडा पड़ जाता और दिमाग सोचना बंद कर देता है, चाहने पर भी शरीर कुछ काम नहीं करता। यह लक्षण अन्य बीमारियों के भी हो सकते है पर सर्वसाधारण में तो इनका प्रकटीकरण भय के दौरान ही होता है। सिंह को देखकर हिरन चौकड़ी भरना भूल जाते हैं और कर्तव्य विमूढ की सी स्थिति में पड़े रह कर बेमौत मारे जाते हैं। जब कोई अप्रत्याशित संकट सामने आ खड़ा होता है फिर तो उससे कुछ भी सोचते नहीं बन पड़ता हाथ पाँव फूलने लगते हैं और जो नहीं घटने चाहिए वह सब घटित हो जाते हैं।

जो कृष्णमूर्ति अपनी पुस्तक प्रथम और अंतिम मुक्ति में लिखते है कि जैसा कि भय के बारे में सोचा और समझा जाता है वास्तविकता वैसी है नहीं, डर हमेशा ज्ञात के प्रति ही हो सकता है अज्ञात के प्रति भीत बनने का कोई कारण नहीं है जहाँ ऐसा प्रतीत होता है वहाँ समझने में भूल हो जाती है। वे कहते हैं कि आम धारणा में मृत्यु को भयकारक माना जाता है पर यह सच नहीं है कारण कि साधारण स्थिति में न तो मौत को जाना जा सकता है, न उसकी अनुभूति की जा सकती है। जिसे देखा नहीं जिसकी भयंकरता समझी नहीं भला उससे डर कैसा? त्रास के वास्तविक कारण का उल्लेख करते हुए वे बताते हैं कि संकट व्यक्ति को उस विलगाव में दिखाई पड़ता है जहाँ वह अपने प्रिय कुटुंबियों वस्तुओं संपदाओं भोगों से स्थायी पृथकता की कल्पना करता है। अलग हो जाने की यही धारणा भय का यथार्थ कारण है।

कोई भूत जिसके बारे में बालक ने कुछ सुना नहीं कभी देखा नहीं वह यदि अचानक उसके सामने प्रकट हो जाय तो इतना निश्चित है कि वह उसे देखकर भागेगा नहीं वरन् और प्रसन्न होगा कि एकांत ओर सुनसान राह पार करने के लिए एक साथी मिल गया यह अज्ञानता की निर्भयता हैं। यही कारण है कि दुनिया में बालक जितने निडर ओर निर्भय होते है उतने शायद ही साधारण जन बनते देखे जाते है। उनको न तो क्षणमात्र में भस्मसात् कर देने वाली आग के स्वभाव के बारे में जानकारी रहती है, न साँप बिच्छू की भयंकरता का परिचय होता है। इसीलिए आये दिन अग्नि के स्पर्श से उनके जलने और जहरीले कृमि कीटकों को पकड़ लेने और पीड़ा भोगने के समाचार प्रकाश में आते ही रहते है।

दूसरी ओर धर्मभीरु लोग ईश्वर से इसलिए डरते है क्योंकि उन्हें उसकी कर्मफल व्यवस्था और दंड-विधान का पता होता है। वे अपंगों बीमारों कोढ़ियों के रूप में उनके पापकर्मों का दारुण फल-भोग देखते ही रहते और ऐसा प्रयास करते है जिससे जीवन में कोई अनैतिक कर्म न बन पड़े जिसका दंड आने वाले समय में आगामी जीवन में भीषण त्रास की तरह झेलना पड़े

इसके विपरीत ऐसे भी लोगों की कमी नहीं जिन्हें भयंकरता का ज्ञान होते हुए भी भयकारक वस्तुओं प्राणियों परिस्थितियों से आँख मिचौनी खेलते रहते है सपेरे रोज ही काले विषधर नाग पकड़ते है शिकारी शेर-बाघ का शिकार करते ही रहते है। उन्हें वे जरा भी डरावने नहीं लगते, वरन् उन्हें ढूँढ़ते रहते है और मिल जाने पर प्रसन्न होते है जबकि अजनबी व्यक्ति को साँप शेर की तस्वीर देखने ओर चर्चा सुनने भर से पसीना छूटता है।

अँधेरे में घुसने में डर लगता है। सुनसान में प्रवेश करते हुए पैर काँपते है। मन में तरह-तरह की आशंकाएँ उठती है कि उस अँधेरे सुनसान में न जाने क्या विपत्ति होगी न मालूम कैसे जहरीले जीव-जंतु हो इतना सोचते ही दिल बेतरह धड़कने लगता है पर जब उसमें निधड़क प्रवेश किया जाता है दीपक लेकर देखा जाता है तो प्रतीत होता है कि वहाँ डरने जैसा कुछ भी नहीं था मन की दुर्बलता ही है जो जरा-सा आधार मिलते ही तिल का ताड़ बनाती है काल्पनिक भय गढ़कर उन्हें इस तरह चित्रित करती है माने प्राणघातक सर्वनाश संकट आ गया अब बचना कठिन है जबकि वस्तुतः जरा-सा कारण ही वहाँ रहा होता है और वह भी इतना छोटा कि उसके साथ आसानी से निपटा जा सके।

दुनिया में लाखों करोड़ों लोग अँधेरे में रहते और आते जाते है वन्य प्रदेशों में यदा-कदा ही दीपक का प्रयोग होता है। किसान खेतों पर सोते है और रात को रखवाली करते है छोटी झोपड़ियाँ बना कर सघन जंगलों में वनवासी परिवार समेत रहते है। धनी लोग सघन बस्ती से हटकर खुले बंगलों में रहते है। चोर डकैत भूत पलीत कहाँ किसी को खाते है? यदा कदा तो दुर्घटनाएँ दिन दहाड़े बीच बाज़ार में भी हो सकती है संकट के वास्तविक अवसर कम ही आते है अधिकतर तो लोग काल्पनिक संकट गढ़ते है और अपने बनाये मानसिक चित्र को देख देख कर डरते मरते रहते है।

भय वस्तुतः कायरता की प्रतिकृति है। अपना चेहरा जैसा भी होगा, वैसा ही दर्पण में दीखेगा आँखों में पीला चश्मा चढ़ा लेने पर हर चीज पीले रंग की दिखाई देगी। भीरु मनुष्य की आंतरिक दुर्बलता इस संसार दर्पण में विपत्ति बनकर दीखती है संकट का सामना करने की उससे उलझने निपटने का क्षमता अपने में नहीं है ऐसा मान लेने के बाद ही डर आरंभ होता है। जिसे यह भरोसा है कि कठिन परिस्थितियों का सूझ-बूझ के साथ मुकाबला करेंगे उन्हें हटाने मिटाने के लिए जूझेंगे इसके लिए अवश्य समझ और बल अपने पास है मित्र और ईश्वर भी साथ देंगे इस प्रकार की हिम्मत यदि अपने में मौजूद हो तो काल्पनिक डरो से छुटकारा मिल जाता है और मन का अधिकांश बोझ हलका हो जाता है।

विख्यात हंगेरियन मनोवैज्ञानिक फेरेज नैडेस्डी ने अपनी पुस्तक फियर आँर फ्रीडम में भय का एक अन्य कारण गिनाते हुए लिखा है कि डर वही उत्पन्न होता है जहाँ एक विशेष प्रकार के ढाँचे में जीने की इच्छा होती है एक विशेष प्रकार के जीवन की चाह होती है। इस ढाँचे को चाह को ढह और त्याग कर व्यक्ति कुछ समय के लिए भय-मुक्त हो सकता है पर ऐसा तभी है जब वह इस सत्य को भली भाँति जान ले कि उक्त आकांक्षा ही भय का कारण कर रहा है वे कहते है कि किसी एक ढाँचे को तोड़ देने मात्र से ही कोई पूर्णतया भय मुक्त नहीं हो सकता। इससे इतना ही अंतर पड़ सकता है कि हम एक शैली को छोड़ कर किसी दूसरी जीवन शैली में प्रवेश कर जायेंगे वह दूसरे प्रकार का भय उत्पन्न करेगी। इसे भी यदि तोड़ा गया, तो कोई तीसरी जीवन शैली के हम अधीन हो जायेंगे वह पुनः अपने तरह का भय पैदा करेगी तथ्य यह है कि इस प्रकार किया गया कोई भी कार्य जो ढाँचा तोड़ने की प्रवृत्ति पर आधारित हो केवल एक दूसरी प्रणाली उत्पन्न करेगा और भय का कारण बनेगा। अंततः वे भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचते है। कि इस प्रकार तोड़ने और बनाने की क्रिया से भय मुक्ति संभव नहीं। स्थायी शांति तभी संभव है जब मूल निमित्त मन को साधा और सुधारा जा सके।

अनैतिकता को भी भीरुता का एक कारण माना जाता है। जिसकी अंतरात्मा कलुषित और पाप कर्म से लिप्त है वह कभी चैन की नींद न सो सकेगा। उसे दूसरे की ओर से तरह-तरह की आशंकायें रहेगी उन्हें उनसे धोखा होने का बदला लेने का फँसा देने का डर बना ही रहेगा। पोल खुल जाने पर बदनामी फैलेगी। और लोग सतर्क होकर उसके जाल में फँसने तथा देने से अलग हो जायेंगे निंदा और असहयोग की स्थिति में उसका भविष्य ही अंधकारमय हो जाएगा इससे उसका मन सदा आशंकित रहता है। पापकर्म के फलस्वरूप समाज का दंड राजदंड तथा ईश्वरीय दंड मिलते हैं तीनों इकट्ठे होकर या पृथक्-पृथक् से वे कभी न कभी मिल कर ही रहेंगे इस भय से भीतर ही भीतर बड़ी बेचैनी रहती है। इस आत्मदेव की पीड़ा उसे निरंतर टोकती रहती है बाहर वाले दंड मिलने में तो देर सबेर भी हो सकती है पर आत्म दंड नेह कुमार्ग पर कदम धरते ही मिलना आरंभ हो जाता है और वह निरंतर दुःख देता रहता है।

ब्रिटिश मनःशास्त्री रिचर्ड गार्नेट अपने ग्रन्थ ‘साइकोलॉजी ऑफ फियर’ में लिखते है कि शारीरिक कष्ट एक स्नायुगत अभिक्रिया है किंतु मानसिक कष्ट तब उत्पन्न होता है जब व्यक्ति का किसी वस्तु से गहनतम तादात्म्य हो जाता है ऐसी स्थिति में वस्तु से उसकी निकटता उसका लगाव शांति और संतोषदायक होता है क्योंकि तब वह उस व्यक्ति या वस्तु से भयभीत रहता है, जो उन वस्तुओं को उससे अलग सकते है। वे कहते है कि जब मनोवैज्ञानिक रूप से संचित अनुभवों में कोई बाधा नहीं पड़ती, वे मनोवैज्ञानिक कष्ट को रोकते है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि व्यक्ति इन समाहारों की, अनुभवों की एक गठरी है और यह किसी गंभीर विक्षोभ पैदा करती है। इस तरह आदमी ज्ञात से भय पीड़ित रहता है। वह शारीरिक अथवा मानसिक रूप से संचित उन अनुभवों से डरता रहता है, जिन्हें उसने अथवा कष्ट से बचने के लिए एकत्रित किया है। इस प्रकार वे भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि यह ज्ञान भी कष्ट को दूर करने का एक साधन मात्र है, भय मुक्ति का उपाय नहीं।

डर का एक बड़ा कारण अज्ञान भी माना गया है आदिमकाल में मनुष्य को सूर्य ग्रहण बिजली की कड़क पुच्छल तारे आदि के बारे में कुछ पता न था। वह इनसे डरता था और देवता समझ कर उनके कोप से बचने के लिए तरह-तरह के पूजन बलिदान करता था, पीछे जब वास्तविकता समझ में आ गई तो वह डर सहज ही चला गया। भूत-प्रेत का डर अब धीरे-धीरे समाप्त होता चला जा रहा है पर उसके स्थान पर अब नये भय पैदा होते जा रहे है।

मनुष्य की विडंबना यह है कि जिसका वास्तव में भय करना चाहिए, उससे वह निडर स्तर का बना रहता है और जहाँ भय का काई कारण नहीं वहाँ भयभीत होता रहता है। उसे पाप से डरना चाहिए कर्मफल से डरना चाहिए, कर्मफल से डरना चाहिए ईश्वर के न्याय से डरना चाहिए, पर इनसे वह भयभीत होने की आवश्यकता नहीं समझता। चोरी करते हुए भोले लोगों को ठगते हुए, छल प्रपंच रचते हुए षड्यंत्र अपनाते हुए चुगली नशेबाजी व्यभिचार बेईमानी असत्य भाषण मिथ्या प्रलाप करते हुए कौन डरता है? डरते है मिट्टी के पुतले मनुष्य से काल्पनिक भूत प्रेत से दीन दुर्बल कुकर्मी आतंकवादियों से। हमें अपने इस अज्ञान को समझना चाहिए और उन अकिंचन व्यक्तियों वस्तुओं एवं परिस्थितियों से डरने से इनकार कर देना चाहिए, जो वस्तुतः तुच्छ एवं असमर्थ है। डरना ही हो तो ईश्वरीय विधान और दुष्प्रवृत्तियों से डरना चाहिए। वास्तविक दुःख के निमित्त यही है और सुख के कारण भी इन्हीं में प्रच्छन्न हैं इस तथ्य को जितनी जल्दी समझा जा सकें, उतना ही अच्छा।


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