समझदारी का अनुगमन व श्रेय का वरण

March 1995

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पिछले दो हजार वर्षा में समय की गति अत्यंत द्रुतगति से चली है इसी अवधि में ज्ञान और विज्ञान की इतनी प्रगति हुई है जितनी कि भूतकाल के लाखों वर्षा में संभव नहीं हुई। इतने पर भी एक दुर्भाग्य इन उपलब्धियों के साथ जुड़ा रहा है की उनका सदुपयोग बनने के स्थान पर दुरुपयोग ही बन पड़ा और जो सुखद सत्परिणाम सामने आने चाहिए थे उनके स्थान पर दुःख दरिद्रता के घटाटोप ही सामने आये।

विज्ञान ने प्रचुर सुविधा साधना उपलब्ध करने के लिए यंत्र उपकरण कारखाने लगाये पर वही दूसरे हाथ से वायु प्रदूषण जल प्रदूषण तापमान में वृद्धि जैसी विकट समस्याएँ उत्पन्न कर ली। मनोरंजन के लिए कामुकता उभारने वाले अनेक कुचेष्टाएँ चली जनसंख्या स्वरूप तलाक और जनसंख्या वृद्धि का संकट सामने आया। हर काम के लिए जमीन की कमी पड़ने लगी। आवास व कृषि की समस्या सामने आयी किंतु उसे अनदेखा कर देशों के बीच शीत युद्ध भड़काये और इसी शताब्दी में दो विश्व युद्ध और प्रायः 200 स्थानीय युद्ध उभरे।

प्रकृति के प्रदूषण से भरे जाने पर असंख्यों का आरोग्य गड़बड़ा गया। जीवनी शक्ति क्षीण हो गई। मनोविकारों लोभ लिप्सा और अहंता की जकड़न से मानसिक संतुलन गड़बड़ा गया और मनुष्य एवं अशक्तता रुष्ट खिन्न विपन्न दीखने लगा। इन दिनों अच्छे भले लोग भी आलस्य प्रमाद तनाव आक्रोश जैसे कारणों से अर्धविक्षिप्त स्थिति में जी रहे हैं। महत्त्वाकाँक्षाओं और विद्वेषियों ने पारस्परिक विश्वास और सद्भाव को बुरी तरह समाप्त कर दिया है। अनगढ़पन के कारण बेतहाशा महंगाई अशान्ति और अनीति दिन-दिन बढ़ती जा रही है। इन सब को देखते हुए लगता है कि हमने पिछले दिनों प्रगति के नाम पर अवगति को ही अपनाया है और हँसते-हँसाते उठते -उठाते दुःख-सुख मिल बाँट कर खाने वाला स्नेही जीवन एक प्रकार से समाप्त कर लिया है। पतन और पराभव जिस रूप से बढ़ रहे है उसे देखते हुए लगता है कि अणु युद्ध जैसी कई विभीषिकाएँ भी सर्वनाश पर उतारू हो सकी हैं अश्रद्धा अनीति ओर अविवेक के बढ़ते जाने पर ऐसा भी हो सकता है कि रक्त में घुसे विषाणु ही चुपके चुपके कुछ ही समय में महामरण का सरंजाम जुटा दे। नर पिशाच स्तर पर पहुँचा हुआ आज का भटका मनुष्य कहीं अपनी आत्महत्या स्वयं ही न कर ले।

परिस्थितियों को प्रत्यक्ष करने वाली भावी सम्भावनाओं का तथ्यपूर्ण अनुमान लगाने वाले यही सोचते है कि लोगों की रीति नीति में आमूल चूल परिवर्तन न हुआ तो बढ़ता प्रदूषण और पृथ्वी में छिपी संपदा का दोहन भयंकर रूप धारण कर आगत भविष्य को हर दृष्टि से अंधकारमय बनाकर रहे तो एक शताब्दी के भीतर यह धरती ने केवल मनुष्यों के वरन् प्राणियों तक के रहने लायक रह नहीं जायेगी।

विधाता की इच्छा इससे सर्वथा विपरीत है। उसने सारा कौशल दाँव पर लगा कर इस सुन्दर धरती को बनाया है मनुष्य उसकी सर्वोत्तम कलाकृति है इसकी रचना इस प्रकार की है जिसकी तुलना और किसी से नहीं हो सकती। अपनी ऐसी कलाकृतियों को बरबाद होते देखना स्रष्टा को स्वीकार नहीं। बच्चों को एक सीमा तक ही मस्ती की छूट दी जाती है जब वे उद्दंडता पर उतर आते है तो कान भी मोड़े जाते हैं प्रांतीय शासन लागू हो जाता हैं। वह अनुबंध तभी वापस लौटाया जाता है जब सही राह पर चलने का पथ प्रशस्त हो जाय, आश्वासन पूर्णतः विधाता को न मिल जाय।

दुर्दिन आने से पूर्व ही सृजन की शक्तियाँ जाग्रत हो गई है और असंतुलन को संतुलन में बदलने के लिए जुट गई और वह कार्य भी उतनी ही तेजी से हो रहा है। जितने वेग से बिगाड़ का प्रदूषण प्रजनन दुश्चिंतन भ्रष्ट आचरण की पिछले दिनों उलटी गंगा बहती रही है अब उसे नये सिरे से उलट कर सीधा किया जाएगा दुष्कृत्यों का दंड भुगतान और प्रायश्चित के रूप में क्षति पूर्ति करने का सिलसिला इस बीच भी चलता रहेगा।

तथ्यों के आधार पर वरिष्ठ आत्मवेत्ता तपस्वी सिद्ध पुरुष पिछले दिनों कहते रहे कि अवांछनीयता अधिक दिन टिकेगी नहीं। उसमें परिवर्तन निश्चित रूप से होगा। इसके लिए इक्कीसवीं सदी के आसपास का समय बताया गया है प्रकृति का तत्त्वदर्शन भी यही है कि वह असंतुलन को संतुलन में बदल कर ही रहती है अदृश्य सत्ता को विध्वंसकारी शक्तियाँ पनपने न पाएँ इसकी चिंता सतत् लगी रहती है विपन्नता आते ही तदाऽऽत्मन् सृजाम्यहम् का उसका वचन पूरा होता रहा है। अब भी उसकी पूर्ति होने जा रहा है। परिस्थितियों का सूक्ष्म निरीक्षण करते हुए सृष्टि विषयों में विशेषज्ञ भी यही अनुमान लगाते है कि अँधेरा देर तक नहीं टिकेगा प्रभात का अरुणोदय अब निकट ही है।

अपने समय के मूर्धन्य दिव्यदर्शी भी ऐसे परिवर्तन की पुष्टि करते है जिसमें इक्कीसवीं सदी में उन भूलो का परिमार्जन होना चाहिए जिनके कारण पिछली सहस्राब्दी में अनौचित्य का असाधारण सिलसिला चला है वह बंद होकर के ही रहेगा। दिव्यदर्शियों के वरिष्ठ और बढ़ें समुदाय का यही अभिमत है पाश्चात्य जगत के महामनीषियों में से अधिकांश ने ऐसे ही अभिमत व्यक्त भी किये है।

सूर्य पूर्व से उदय होता है भारत ऐसे आंदोलनों में अग्रणी रहा है जिसमें सृजन की शक्तियों का उत्कर्ष और अवांछनीयता का निवारण व्यापक रूप से होता है।

युग संधि की अवधि सन् 1989 से 2005 तक की है। इस महापरिवर्तन के माहौल में शान्तिकुञ्ज हरिद्वार का महापरिवर्तन केन्द्र के रूप में विकास हुआ है इन में प्रथम बारह वर्षों में सन् 2000 तक यहाँ तथा संबंधित हजारों क्षेत्रों में युग संधि पुरश्चरण नियमित रूप से निरंतर चल रहे है। इसमें भागीदारों की संख्या इन दिनों पचास लाख के लगभग है। अगले छह वर्षों में यह संख्या न्यूनतम तीन करोड़ हो जाएगी। इस वसंत पर बारह वर्षीय साधना की दूसरी पूर्णाहुति बारह वर्ष में 2001 के वसंत पर होगी जिसमें प्रायः छह करोड़ भागीदार सम्मिलित होंगे। विश्वास किया गया है कि वह दिव्य शक्तिसम्पन्न अनुष्ठान इस युग का ऐसा धर्मानुष्ठान होगा जिसे न भूतो न भविष्यति कहा जा सके। बाद के पाँच वर्ष नव सृजन का बचा सरंजाम पूरा होने के है उस समय क्या किया जाना है वह समय समय पर बताया जाता रहेगा।

मिशन के संचालक परम पूज्य गुरुदेव का शरीर लगभग 80 वर्ष का हो चलने पर भी पूर्णतः स्वस्थ रहा और नियमित रूप से बीस घंटे कार्यरत रहा परम वंदनीय माताजी ने उनके कार्य का आगे बढ़ाया दोनों ही सत्ताओं के माध्यम से अब यह दिव्य संदेश मिलता है कि वर्तमान की विभीषिकाओं और भविष्य की सुखद सम्भावनाओं के लिए हनुमान अर्जुन भगीरथ दधिचि जैसों की भूमिका निभाने के लिए ही उन्हें स्थल शरीर छोड़ कर सूक्ष्म शरीर की हजार गुनी बढ़ी शक्ति द्वारा कितनी ही अतिशय महत्त्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाने हेतु सक्रिय होना पड़ा और स्थूल शरीर को छोड़कर सूक्ष्म तथा कारण शरीर में संचित दिव्य शक्तियों का प्रयोग करने के निमित्त नियोजित होना पड़ा।

इसकी तैयारी ऋषि चेतना ने कर ली है अब बारी हमारी है। शान्तिकुञ्ज का पुरश्चरण संकल्प यथावत् पूरे विश्व भर में चल रहा है। उसमें कोई खामी या कमी न पड़ने पाये इसका उत्तरदायित्व गुरु सत्ता समर्थ हाथों में सौंप कर गयी है। करोड़ों की भागीदारी वाली पूर्णाहुति का भी। शरीर न रहते हुए भी शान्तिकुञ्ज आने वाला कोई व्यक्ति इसी कारण यह अनुभव नहीं करता कि जो प्रज्ञा श्रद्धा स्नेह ममत्व निष्ठा का अनुदान पहले यहाँ मिल रहा था उसमें कोई कमी पड़ गई है।

इक्कीसवीं सदी के पूर्वार्ध भर ऋषि सत्ता को तीनों शरीरों से स्थूल सूक्ष्म और कारण शरीरों से इतना प्रचंड संघर्ष करना है जिससे प्रस्तुत विपत्तियाँ के अनुकूलन में परम पुरुषार्थ में कोई कमी न आने पाये। श्रेय हमें लेना है। यदि हम सक्रिय रहें व उनके बताये अनुशासनों को पाल कर युगधर्म का निर्वाह आपाद् हमारा नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा। समझदारी का अनुगमन कौन करता है यही सब महाकाल ऊपर से देख रहा है।


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