ममता की सुरसरि (Kavita)

March 1995

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माँ! तुम्हारे स्नेह की छाया हमें मिलती रही तो, हम कही पर म्लान मुरझाया सुमन रहने न देंगे।

आचरण की गंध पावन, वायु में फैली रहेगी-मन-सुमन की पाँखुरी कोई न अब मैली रहेगी,

एक भी प्रतिभा अविकसित झर न पाएगी कहीं पर, रश्मि कुहरे में न कोई कसमसायेगी कहीं पर

आपके तप की तनिक ऊर्जा हमें मिलती रही तो, हम गगन में वंदिनी कोई किरण रहने न देंगे

अब नहीं संकीर्णता का भाव मन पल सकेगा, अब न भीड़ में अकेलापन किसी को खल सकेगा,

अब न कोई छल कपट के स्वार्थ के नाते रहेंगे, सब परस्पर काम अब दुःख दर्द में आते रहेंगे,

आपकी वरदायिनी वर्षा हमें मिलती रही तो, हम विषैला विश्व का वातावरण रहने न देंगे

हम विवेकी बन चलेंगे चाल जीवन की बदलकर, जो बँधे थे दायरों में आएँगे आगे निकल कर

लोकहित में वे समय-श्रम और साधन दे सकेंगे, लोकसेवा के लिये वे शेष जीवन दे सकेंगे

आपके मन की सघन करुणा हमें मिलते रही तो, हम किसी को स्वार्थ-लिप्सा में मगन रहने न देंगे।

शक्ति को हम संगठित करके नया परिवेश देंगे, आपका प्रेरक उजाले -सा सृजन-संदेश देंगे,

फिर न हृदयों पर हताशा के घन घिर सकेंगे-पथ-विमुख होकर न कोई पग भटकते फिर सकेंगे

सुरसरी जैसी सहज ममता हमें मिलती रही तो, एक भी निस्तेज हारे-से नयन रहने न देंगे


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