एक व्यक्ति गाय के गले में रस्सी बाँधे उसे घसीटते लिए जा रहा था। उसी समय एक फकीर अपनी शिष्य मंडली समेत उधर से गुजरा। उसने उस व्यक्ति की ओर इशारा कर अपने शिष्यों से कहा-देखो किस प्रकार गाय मालिक को बाँध कर अपने पीछे घसीट रही है।”
शिष्य चौके कहा दूर अधिक होने से शायद आप स्पष्ट नहीं देख पा रहे हैं। जो कुछ आपने कहा, बात उसके ठीक उलटी है मालिक गाय को बाँधें लिये जा रहा हैं
फकीर तनिक मुसकराये, बोले-नहीं मैं बिलकुल ठीक देख रहा हूँ गाय मालिक को अपने पीछे घसीट रही है।
पहेली शिष्यों की समझ में नहीं आयी क्योंकि वह इसके विपरीत देख रहे थे शिष्यों के असमंजस को ताड़ कर गुरु गाय के निकट पहुँचें और उसके गले की रस्सी काट दी वह भागने लगी। उसके पीछे पीछे उसका मालिक भी दौड़ने लगा।
एक बार पुनः फकीर ने शिष्यों को संबोधित किया
देख! क्या मैंने गलत कहा था?” शिष्य गुरु का संकेत समझ गये।
आज हमारी भी स्थिति लगभग ऐसी ही है। भोगियों को ऐश्वर्य ने और संन्यासियों को त्याग ने उनके गले में फंदा डाल रखा है और उन्हें अपने पीछे घसीट रहे हैं। बँधे हुए दोनों ही हैं एक धन के फंदे से, तो दूसरा त्याग के फंदे से। फिर भी वे यही सोचते हैं कि वे सुख की ओर शांति की ओर अग्रसर हो रहे हैं पर जब दोनों ही अपने अपने प्रयास में नितांत विफल रहते हैं तब उन्हें यथार्थ का पता चलता है वस्तुतः जहाँ बंधन है वहाँ शांति हो ही नहीं सकती। वह न तो भोग में है न दिखावे में, न बाह्य आडम्बर में, वरन् उसकी उपलब्धि तो आंतरिक त्याग द्वारा ही संभव है। हम अपने अहंकार का ईर्ष्या द्वेष का कामनाओं वासनाओं का अनुचित इच्छा आकांक्षाओं का परित्याग करें। इसी में शाश्वत शांति और संतोष करतलगत हो सकता है।