कलाकार प्रेत

March 1995

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नगर अभी दूर था। बन हिंसक जंतुओं से भरा पड़ा था। सो विशाल वटवृक्ष सरोवर और शिव मंदिर देखकर आचार्य महीधर वहीं रुक गए। शेष यात्रा अगले दिन पूरी करने का निश्चय कर थके हुए आचार्य महीधर शीघ्र ही निद्रा देवी की गोद में चले गए।

आधी रात सघन अंधकार जीव जंतुओं की रह रहकर आ रही भयंकर आवाजें आचार्य प्रवर की नींद टूट गयी। मन किसी बात पर विचार करे इससे पूर्व ही उन्हें कुछ पास में कोई अंधकूप है उसमें कोई पड़ा हुआ रुदन कर रहा है। अब तक सप्तमी का चन्द्रमा आकाश में ऊपर आ गया था। हलका हलका प्रकाश फैल रहा था। आचार्य कुएँ के पास आए झाँककर देखा तो उसमें पाँच प्रेत बिलबिला रहे है।

यों दुखी अवस्था में पड़ें प्रेतों को देखकर महीधर को दया आ गई उन्होंने पूछा तात! आप लोग कौन है यह दुर्दशा क्यों भुगत रहे है? इस पर सबसे बड़े प्रेत न बताया हम लोग प्रेत हैं मनुष्य शरीर में किए गए पापों के दुष्परिणाम भुगत रहे है आप आप संसार में जाइए और लोगों को बताइए जो पाप कर हम लोग प्रेत योनि में आ पड़े वह पाप और कोई न करे। आचार्य ने पूछा आप लोग यह भी तो बताइए कौन कौन से पाप आप सबने किये है? तभी तो लोगों को उससे बचने के लिए कहा जा सकता है।

मेरा नाम पर्युषित है आर्य पहले प्रेत ने बताना शुरू किया मैं पूर्व जन्म में ब्राह्मण था, विद्या भी खूब पढ़ी थी किंतु अपनी योग्यता का लाभ समाज को देने की बात को तो छुपा लिया हाँ अपने पांडित्य से लोगों में अंधश्रद्धा अंधविश्वास जितना फैला सकता था फैलाया और हर उचित अनुचित तरीके से केवल यजमानों से द्रव्य दोहन किया उसी का प्रतिफल आज इस रूप में भुगत रहा हूँ मैं क्षत्रिय था पूर्व जन्म में अब सचीमुख नामक दूसरे प्रेत ने आत्मकथा कहनी शुरू की। मेरे शरीर में शक्ति की कमी नहीं थी मुझे लोगों की रक्षा के लिए नियुक्त किया गया। रक्षा करना तो दूर उलटे मैं सबको सताने लगा। एक दिन मैंने एक स्त्री को देखा जो जंगल में अपने बेटे के साथ जा रही थी। मैंने उसे भी नहीं छोड़ा उसका सारा धन छीन लिया यहाँ तक कि उनका पानी तक लेकर पी गया। दोनों प्यास से तड़प कर वहीं मर गए उसी पाप का प्रतिफल प्रेतयोनि में पड़ा भुगत रहा हूँ।

तीसरे शीघ्राग ने बताया मैं था वैश्य। मिलावट कम तौल ऊँचे भाव तक ही सीमित रहता तब भी कोई बात थी। व्यापार में अपने साझीदारों तक का गला काटा। एक बार दूर देश वाणिज्य के लिए अपने एक मित्र के साथ गया। वहाँ से प्रचुर धन लेकर लौट रहा था। रास्ते में लालच आ गया मैंने अपने मित्र की हत्या कर दी और उसकी स्त्री, बच्चों को भी धोखा दिया व झूठ बोला। उसकी स्त्री ने उसी दुःख में अपने प्राण त्याग दिए। उस समय किसी की पकड़ में नहीं आ सका पर मृत्यु से कौन बचा है तात! मेरे पाप ज्यों ज्यों मरणकाल समीप आता गया मुझे संताप की भट्टी में झोंकते गए और आज जो मेरी स्थिति है वह आप देख ही रहे है। पाप का प्रतिफल ही है जो इस प्रेत योनी में पड़ा मलमूत्र पर जीवन निर्वाह करने को विवश हूँ। अंग अंग में ब्रणू फूट रहे हैं दुःखों का कहीं अंत नहीं दिखाई देता।

जब चौथी की बारी थी उसने अपने घावों पर बैठी मक्खियों को हाँकते और सिसकते हुए कहा तात। मैं पूर्व जन्म में रोधक नामक शुद्र था। तरुणाई मैं मैंने ब्याह किया कामुकता मेरे मस्तिष्क पर बुरी तरह सवार हुई। पत्नी मेरे लिए भगवान हो गई। उसकी हर सुख सुविधा का ध्यान दिया पर अपने माता पिता भाई बहनों का कुछ भी ध्यान न दिया माता पिता बड़े दुःख और असहाय पूर्ण स्थिति में मरे। एक स्त्री से तृप्ति नहीं तो और विवाह किए। पहली पत्नी को सताया घर से बाहर निकाला। उन्हीं सब कर्मों का प्रतिफल भुगत रहा हूँ।

चार प्रेत अपनी बात तो कह चुके किंतु पाँचवाँ प्रेत तो आचार्य की ओर मुख भी नहीं कर रहा रहा था। पूछने पर अन्य प्रेतों ने बताया यह तो हम लोगों को भी मुँह नहीं दिखाते बोलते बात चीत तो करते है अपना मुँह इन्होंने आज तक नहीं दिखाया।

आप भी तो कुछ बताये आचार्य प्रवर ने प्रश्न किया इस पर इस पर घिघियाते स्वर में मुँह पीछे ही फेरे फेरे पाँचवें प्रेत ने बताया मेरा नाम कलाकार है। मैं पूर्व जन्म में अच्छा लेखक था। पर मेरे कलम से कभी नीति धर्म, सदाचार कभी नहीं लिखा गया। कामुकता अश्लीलता और फूहड़पन बढ़ाने वाला साहित्य ही लिखा, मैंने ऐसे ही संगीत नृत्य और अभिनय का सृजन किया जो फूहड़ से फूहड़ और कुत्साएं जगाने वाला रहा हो। मैं मूर्तियों और चित्र एक से एक भावपूर्ण बना सकता था। किंतु उनमें भी कुरुचिपूर्ण वासनाएँ और अश्लीलता गढ़ी सारे समाज को भ्रष्ट करने का अपराध लगाकर मुझे यमराज ने प्रेत बना दिया। किंतु मैं यहाँ भी इतना ही लज्जित हूँ कि अपना मुँह इन प्रेत भाइयों को भी नहीं दिखा सकता।

आचार्य महीधर ने अनुमान लगाया अपने-अपने कर्तव्यों से गिरे का हुए ये कुल पाँच ही थे इन्हें प्रेतयोनि का कष्ट भुगतना पड़ रहा है और आज जबकि सृष्टि का हर ब्राह्मण हर क्षत्रिय हर वैश्य हर शुद्र कर्तव्यच्युत हो रहा है हर कलाकार अपनी कलम की परवाह किए बगैर वासना की गंदी कीचड़ उछाल रहा है तब आने वाले कल में प्रेतों की संख्या स्थिति क्या होगी सो लोगों को कर्तव्य की ओर प्रेरित करना ही आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। अब तक प्रातःकाल हो चुका था आचार्य महीधर यह संकल्प लेकर चल पड़े कि पाँचों प्रेतों की कहानी सुना सुनाकर मार्ग भ्रष्ट लोगों का सही पथ प्रदर्शन करेंगे


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