सच्चा त्याग

March 1995

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उस दिन प्रातःकाल वाणिज्य ग्राम में एकाएक घोषणा हुई कि भगवान महावीर नगर के प्रांगण में पधारे हैं। वे नीलमणि उद्यान में सुवासित हैं। सारा परिवेश उनकी कैवल्य प्रभा से जगमगा उठा है। बात की बात में यह खबर सारे नगर में फैल गई। हजारों नर-नारी नए-नए वस्त्रों में सज कर प्रभु के वंदन को चल पड़े

आनंद गृहपति को लगा, कि जैसे उसी की पुकार पर त्रिलोकी के तारनहार उसके आँगन में स्वयं ही पधारे हैं। उसने चीन देश के बहुमूल्य रेशमी कपड़े और कीमती रत्नाकर धारण किए। चंदन-केशर का तिलक ललाट पर लगाया और अपने समस्त वैभव परिकर के साथ श्री भगवान के वंदन को चल पड़ा। ही

प्रभु के श्री मुख का दर्शन करते ही, जैसे उसके मन के सारे परिताप और प्रश्न अनायास शांत हो गए। भावाकुलता के कारण उसका बोल फूट नहीं रहा था। प्रभु की धर्म देशना उस क्षण थम गई थी। उस गहरी नीरवता में उद्बोधित होते हुए आनन्द गृहपति ने निवेदन किया।

“श्री चरणों में शरणागत हूँ, भगवन् अंतर्यामी मेरे तन-मन की सारी वेदनाएँ जानते हैं। मुझे इस पीड़ा से उबार लें भगवन्।”

चुप्पी अनाहत व्याप्त रही।

आनंद गृहपति फिर अधीर होकर बोला-

मैं प्रभु का व्रती श्रावक होना चाहता हूँ। मुझे पाँच अणु व्रत और सात शिक्षा व्रतों में दीक्षित करें, स्वामिन्!”

महावीर चुप रहे। आनंद का मन इस कठोर निरुत्तरता से व्यथित हो उठा। वह अपने की रोक न सका। उसका मन अर्हत् का उपासक बनने के लिए उतावला हो रहा था। उसने निवेदक किया।

श्री भगवान की साक्षी में मैं इस प्रकार श्रावक के पाँच अणुव्रत धारण करता हूँ।

“मैं आज से किसी जीव को कष्ट न पहुंचाऊंगा। किसी को बाँधूंगा नहीं, किसी का वध नहीं करूँगा किसी का शोषण न करूँगा इस प्रकार मैं अहिंसा अणु व्रत धारण करता हूँ भन्ते प्रभु!”

“स्वार्थ साधन के लिए झूठ नहीं बोलूँगा। खोटी सलाह न दूँगा, खोटे लेख न लिखूँगा, खोटी गवाही न दूँगा। इस प्रकार मैं सत्य अणुव्रत धारण करता हूँ।

मैं चोरी का माल नहीं रखूँगा। चोर–बाजारी न करूँगा मिलावट करके बनावटी वस्तु को मूल वस्तु के स्थान पर नहीं बेचूँगा। इस प्रकार मैं अस्तेय अणुव्रत धारण करता हूँ भन्ते भगवन्।”

“स्वपत्नी में ही संतोष धारण करूँगा वेश्यागमन न करूँगा कुमारी या विधवा से संसर्ग न करूँगा इस प्रकार मैं आज से ब्रह्मचर्य अणुव्रत मैं प्रतिबद्ध हुआ। “

“एक निश्चित परिमाण में ही संपत्ति और भोग सामग्री रखूँगा। शेष संपदा का स्वामित्व त्याग दूँगा। इस प्रकार मैं आज से परिग्रह परिमाण अणु व्रत का व्रती हुआ भगवन्।”

क्षण भर रुक कर आनन्द ने अर्हत् महावीर की ओर देखा और प्रभु के इंगित की अपेक्षा की। लेकिन उसे कोई उत्तर या इंगित न मिला। प्रभु की इस उदासीनता से वह मर्माहत हो आया। फिर भी मन को जुटा कर उसने फिर निवेदन किया।

मैं एक नियमित प्रतिज्ञा के अनुसार प्रतिदिन उर्ध्वदिशा, अधोदिशा तिर्यग दिशा की सीमा का उल्लंघन न करूँगा इस प्रकार मैं दिग्व्रत में दीक्षित हुआ भगवन्।

मैं एक निर्धारित मर्यादा में ही भोजन, वसन, अलंकरण अंग राग अन्य भोग सामग्री ग्रहण करूँगा इस प्रकार मैं भोग-परिभोग परिमाण व्रत का धारण हुआ।”

“ मैं कामोत्तेजक कथा वार्ता न करूँगा मुशल कुदाली तलवार शस्त्र अस्त्र आदि अनर्थकारी साधनों से संयुक्त न रहूँगा। यों मैं अनर्थ दंड व्रत में कटिबद्ध होता हूँ प्रभु।”

मैं प्रतिदिन नियमित एक निश्चित समयावधि तक सामयिक ध्यान में बैठकर मन वचन, कर्म की चंचलता को रोकूँगा। भाव, भाषा और देह का दुष्ट प्रवृत्ति में प्रयोग न करूँगा यों मैं आज से सामयिक का व्रती हुआ भन्ते भगवन्।”

“अष्टमी, चतुर्दशी, अष्टान्हिका, पर्युषण आदि पवित्र तिथियों और धर्म पर्वों पर मैं प्रोषधोपवास धारण करूँगा इस प्रकार मैं प्रषधोपवास का व्रती हुआ, स्वामिन्।”

“आज से प्रतिदिन मैं तपस्वी, साधु, परदेशी, भोजनपेक्षी सुपात्र अतिथि को आहार दान देकर ही भोजन ग्रहण करूँगा इस प्रकार मैं चिरकाल के लिए अतिथि संविभाग का व्रती हुआ, प्रभु।”

“इस तरह मैं पाँच अणुव्रत और सात शिक्षा व्रत वाले प्रभु के श्रावक धर्म को अंगीकार कर जीवन पर्यन्त के लिए अर्हत् महावीर का श्रमणोपासक होता हूँ स्वामिन।”

आनंद गृहपति ने अत्यंत उत्कंठित और उत्साहित होकर फिर प्रभु की उस समदर्शी चितवन पर टकटकी लगा दी। वह पारदर्शी वीतराग चितवन उसके आर-पार देखती रही। पर वे आंखें आनंद की ओर न उठी। प्रभु से उसे कोई प्रत्युत्तर प्राप्त न हुआ। आनंद हताहत कुंठित, उदात्त देखता ही रह गया। सिर से पैर तक काँप-काँप आया। उसके रोमों में काँटे उग आए। हाय क्या सर्वज्ञात महावीर ने उसे न स्वीकारा? प्राणिमात्र के अकारण बंधु और बल्लभ सुने जाते तीर्थंकर महावीर क्या इतने निर्मम और बेदर्द भी हो सकते हैं? कि उन्होंने उसकी दारुण वेदना समर्पण और उसके व्रत ग्रहण की ऐसी घोर अवमानना कर दी?

फिर सिहरते-थरथराते आनंद गृहपति की आँखों से अविरल आँसू बहते आए। पर जैसे प्रभु ने उसके आँसुओं को भी अनदेखा कर दिया वह मेरु की तरह निश्चल और अप्रभावित दिखे उनकी दृष्टि अनिमेष नासारंध्र पर टिकी थी। मानों कि उन्होंने आनंद के इस व्रत ग्रहण और महात्याग को लक्ष्य ही न किया हो।

आनंद का हृदय एक गहरा झटका खाकर टूक-टूक हो गया। उसके जी में एक तीखा रोष और विद्रोह-सा उमड़ने लगा। मन ही मन वह बोला-क्या मेरे त्याग का कोई मूल्य नहीं अर्हत् महावीर की दृष्टि में?

तब अकस्मात् तल्लीन अर्हत् वाक्मान हुए।

“जो वस्तु भूल में ही तेरी नहीं उसका त्याग कैसा, देवानुप्रिय आनंद? ये जो करोड़ों सुवर्ण मुद्रायें और माणिक्य-मुक्ता तूने अपने निधानों में बटोरे हैं तो उसकी खातिर तूने करोड़ों मनुष्यों को वंचित, तृषित, शोषित, पीड़ित रखा है। करोड़ों को भूखे नंगे रखकर ही तू कोट्याधिपति हुआ है, देवानुप्रिय। क्या यह संपदा तेरी है जो तू इसे त्यागने का दंभ करता है?”

भगवान महावीर कुछ क्षणों तक चुप रहे। प्रश्न वातावरण में मंडराता रहा। आनंद काँप गया, उसे कोई उत्तर न सूझा। फिर सुनाई पड़ा।

“अपनी यह परम सुन्दरी पत्नी जिसे तू भोगने की बात करता है क्या वह तुम्हारी है? क्या तुम उसको कभी भोग सके हो, क्या उसे त्रिकाल में भी कभी भोग सकोगे? और नारी क्या केवल तुम्हारी भोग्या होने के लिए है? अपने सिवाय अन्य को भोगना स्वभावतः ही शक्य नहीं, फिर उसका त्याग कैसा आनंद? शिवानंदा को तुमने भोग्य माना, अन्य नारी मात्र को त्याज्य माना। किंतु इनमें से कोई भूल में ही तुम्हारी भोग्या नहीं। तो भोग और त्याग ग्रहण और निवारण किसका करते हो? वेश्या, कुमारी, बाला या विधवा के भोग और त्याग का निर्णय क्या तुम्हारे हाथ है? क्या वे अपने आप में कोई नहीं? तुम्हें क्या अधिकार है उन्हें ग्रहण करने या त्याग देने का? उन पर अपने अहम् और स्वामित्व की मोहर मारना चाहते हो? क्या वे तुम्हारी क्रीड़ा पुतलियाँ है, कि जब चाहें भोगो, जब चाहे त्याग दो?”

प्रभु फिर विराम हो गए। उस नीरवता में प्रश्न तीव्र से तीव्रतर होता गया। आनंद काठमरा-सा चुप हो गया। फिर अनहर नाद शब्दाय मान हुआ।

यहाँ कौन किसी को भोग सकता है? हर व्यक्ति स्वयं अपने को भोगता है। हर वस्तु स्वयं अपने को भोगती है। पर द्वारा पर का भोग स्वभाव नहीं सद्भूत नहीं। निमित्त नैमित्तिक संबंधों के कारण परस्पर को भोगने की भ्रांति होती है। बहते पवन और बहते पानी को भोगने ओर त्यागने की छलना में पड़ें हो गृहपति आनंद? स्वीकीया शिवानंदा हो या परकीया अन्य नारी हो जो स्वयं ही अपने तन-मन की स्वामिनी नहीं, उसे भोगने और त्यागने वाले तुम कौन होते हो?

प्रभु की इस देशना में वस्तु स्वभाव का कोई अपूर्व ही आयास प्रकट हो रहा था। जो परंपरागत जिन वाणी में कहीं पढ़ने सुनने में न आया था। देव गुरु बृहस्पति से लगाकर सारे पार्श्वानुसारी यति, आचार्य और वेदांत वारिधि गौतम तक यह अश्रुतपूर्ण वाणी सुनकर चकित थे। बौखला गए थे। तब बेचारे आनंद गृहपति की क्या बिसात?

उस अबूझ निस्तब्धता को तोड़ते हुए आर्य गौतम ने सबके हृदयों में उठ रहे तीव्र प्रश्न को उच्चारित किया।

“पूछता हूँ हे सर्वदर्शी सर्वज्ञानी प्रभु! जिनेश्वरी परंपरा में जो श्रावकों के बारह व्रत तथा श्रमणों के महाव्रतों का विधान है वह क्या हेय हैं भगवन्?”

परम्परा केवल प्रज्ञा की होती है, विधि-विधान की नहीं होती गौतम! नीति नियम आचार, विचार विधि, विधान युगानुरूप बदलते रहते है। आज का तीर्थंकर विगत कल के तीर्थंकर को दुहरा नहीं सकता।

लेकिन भन्ते स्वामिन् शास्त्रों में तो विधि-विधान आचार मार्ग है ही। व्रत नियम का विधि विधान है ही क्या वह गलत है और उसकी अवगणना की जा सकती है?

“शास्त्र तात्कालिक होता है, वह त्रिकालिक नहीं होता गौतम! त्रिकालिक आत्म वस्तु का अंतिम निर्णय, तात्कालिक शस्त्र कैसे कर सकता है? शास्त्र शाश्वत नहीं सामयिक है और जानो गौतम शास्त्र की शब्द सीमा में, अनंत पदार्थ उनके गुण पर्याय कैसे बँध सकते है? आज और यहाँ जो नैतिक और वैध है वह कल या और कहीं अनैतिक और अवैध भी हो सकता है। आज जो त्याज्य दिखता है, वह कल ग्राह्य भी हो सकता है। “

तो भगवान् क्या मान लेना होगा कि आपके युगतीर्थ में लोग स्वेच्छाचारी और स्वैर विहारी होंगे? क्या धर्म का कोई राज मार्ग न होगा?

“ मेरे युगतीर्थ में लोग बाहरी प्रतिज्ञा से नहीं आंतरिक प्रज्ञा से चलेंगे। जानो गौतम, हर बाहरी प्रतिज्ञा टूटने को होती है। वह अंततः अधोगामी होती है। लेकिन प्रज्ञा आत्मोत्थ और अचूक होती है। सो प्रज्ञा आत्मोत्थ और अचूक और अचूक होती है। सों वह अचूक और अचूक होती है। मेरे युगतीर्थ में लोग विज्ञानी और प्रबुद्ध होकर व्रत-आचार के सारे बाहरी साँचों ढाँचों और शृंखलाओं को तोड़ देंगे। उन पाखण्डों और प्रपंचों का भंडाफोड़ कर देंगे।”

प्रभु को इस खरधार वाणी ने, आनंद गृहपति की जड़ों में बद्धमूल उसके सारे संस्कारों को ध्वंस कर दिया। वह क्षत-विक्षत होकर अपनी स्थिति का संरक्षण खोजने लगा। उसने तड़प कर पूछा।

क्षमा करें, भन्ते, क्षमा श्रमण आप श्रावक श्रेष्ठियों के प्रति कठोर नहीं?

इसलिए कि पानी तक छानकर पीने वाले ये दया के पालक श्रावक श्रेष्ठ, आदमी के लहू का मूल्य पानी से कम आँकते हैं। मनुष्य का सर्वस्व छीनकर भी वे दया के अवतार बने रहते हैं। अपनी एक-एक दमड़ी के बदले, आदमी की चमड़ी पर्त दर पर्त उतार सकते हैं। उसके रक्त की एक-एक बूँद से, अपनी एक-एक कौड़ी वसूल कर लेते है। फिर भी इनकी मृदुता और मिठास का जवाब नहीं। इनका षड्यंत्र आदिकाल से आज तक इतिहास में अखंड रूप से अंतर्व्याप्त है। करोड़ों अरबों मानवों की अनगिनत पीढ़ियों को कर्म विधान की ओट में अज्ञानी और असंस्कृत रखकर अपने चालाक शोषण से ये उन्हें चिरकाल तक दीन दरिद्र और पराधीन बनाए रखते है और यों अपनी संपत्ति और अभिजात्य की जड़ परंपराओं को अटूट और अक्षुण्ण रखते हैं। महाजनी सभ्यता के इस सर्वनाशी अभिशाप को खुली आँखों से देखो आनंद ये सारी मनुष्य की जाति को सौदागर बना देने पर तुले है। तुम स्वयं इसके ज्वलन्त उदाहरण हो।”

“इसी से तो सर्व के तारनहार प्रभु के श्रीचरणों में अपने परिग्रहों भोगों संपदाओं का त्याग करने आया हूँ।”

“सारे लोक से चुराई संगति का त्याग और परिग्रह परिमाण करने आए तुम मेरे पास? जो मूल में ही तुम्हारा नहीं, जो औरों से छीना झपटा हुआ है उस तस्करी की संपत्ति पर अपने त्याग की मुद्रा आँकने आए हो तुम मेरे पास? कितना हास्यास्पद, निराधार और प्रपंची है यह तथाकथित त्याग, तप, व्रत, आचार का सुविधा जीवी धर्म मार्ग।”

अचानक भगवान चुप हो गए। सारे वातावरण में लपटें उठती सी अनुभव हुई। आनंद गृहपति बिल–बिलाकर रो आया। प्रभु के एक-एक शब्द से मानों उसके जन्मान्तर व्यापी कंचुकी एक के बाद एक उतरते चले गए। उसने बड़ी कातर दृष्टि से भगवान महावीर को निहारा।

उसकी दृष्टि की कातरता के प्रत्युत्तर में महावीर की आँखों में अपरिमित वात्सल्य उमड़ आया। वह उसकी ओर देखते हुए बोले-यदि त्यागना ही चाहते हो तो अपने अहंभाव को त्यागो यदि व्रती होना चाहते हो तो लोक सेवा का व्रत लो

विराट पुरुष के लिए स्वयं का विसर्जन तुम्हारी आत्मचेतना को चरम और परम तक पहुँचा देगा। तुम यथार्थ धर्म लाभ कर सकोगे।”

खुल गए श्रेष्ठी के ज्ञानचक्षु एवं एक एक नये व्यक्तित्व का अंदर से जन्म हुआ जिसने जैन धर्म के कार्य को आगे बढ़ाने में आजीवन स्वयं का काम स्वर्णाक्षरों में लिखा लिया।


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