अत्याधिक आसक्ति व्यक्ति को न केवल इस जीवन में अशान्त बनाये रखती है वरन् मृत्यु के बाद भी वह उसी तृष्णा वासना से मनुष्य को घुमाती और बेचैन बनाये रहती है। भूत-प्रेत बने रहने और मारे-मारे भटकते फिरने की दयनीय विवशता का यह आसक्ति का अतिरेक ही कारण बनता है। आसक्ति का अतिरेक ही कारण बनता है। आसक्ति और आवेश की अधिकता, उद्विग्नता से विक्षुब्ध अशान्त अतृप्त लोग भूत प्रेत बनकर भटकते है और अपनी आसक्ति की तृप्ति के प्रयास में यों ही एक लंबी अवधि गुजार देते है।
घटना दक्षिण पूर्व इंग्लैण्ड में बोले गाँव के एक गिरजाघर की हैं वर्ष 1939 में फागुन मास की घोर अँधियारी रात को जूहा नामक पादरी के मकान में अचानक आग लगी। गाँव वालों को जब इस दुर्घटना के बारे में पूछा गया तो उनने एक ही उत्तर दिया कि आग लगने से 15 माह पहले ही एक भिक्षुणी की आत्मा ने बता दिया था कि पादरी का आवास जलकर नष्ट हो जाएगा उनका कहना है कि इसके बाद फिर हमने उस भूतनी आत्मा को नहीं देखा है।
बोले गाँव के गिरिजाघर से सटे इस पादरी के मकान का निर्माण कार्य सन् 1863 में पूरा हुआ था। लाल ईंटों से विनिर्मित छोटी छोटी खिड़कियों वाले इस मकान की बनावट बड़ी फूहड़ किस्म की थी। फिर इसके साथ भूत की कहानी जुड़ जाने से तो दृश्य ओर भी अजूबों गरीब हो गया। इस ग्राम के निवासियों के अनुसार तेरहवीं सदी में इस मकान के स्थान पर एक मठ बना था। जिसमें एक नवयुवती भिक्षुणी रहती थी। मठ के ठीक सामने कानवेन्ट का एक नवयुवक पादरी रहने लगा। मसीही धर्म की आड़ में पल रहे दोनों में प्रेम प्रसंग का दौर चल पड़ा चूँकि गिरिजाघर के अनुशासन ही ऐसे थे कि अविवाहित रहकर ही सेवा धर्म का निर्वाह हो सकता था, वे विवाह संस्कार संपन्न नहीं कर सके क्यों कि उनसे संकल्प पत्र भरवा लिए थे। जवानी में वासना की बाढ़ इतनी प्रबल निकली कि संकल्पों के बाँध को टूटने में तनिक भी देर नहीं हुई। परस्पर एक दूसरे को निहारते, वार्तालाप करते और मिलने जुलने का क्रम बनाते चले गये। इस सघन संपर्क के साये में पल रही आसक्ति मोह की बेल इतनी तेजी से फैली कि दोनों के सिर के ऊपर होकर निकल गई। धार्मिक समाज ने जब उनके इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और ऐसा करने पर कठोर सजा देने का आदेश दे दिया तो दोनों ने गाँव छोड़कर किसी अन्य स्थान पर चले जाने का निश्चय कर लिया। रात्रि के समय वे एक घोड़ा गाड़ी में छिप कर भागने की कोशिश करने लगे तो पकड़ में आ गये। नवयुवक पादरी को तुरंत सूली पर चढ़ा दिया और भिक्षुणी को उस मठ की दीवार में जिंदा चुन दिया गया तभी से श्वेत वस्त्र धारी भिक्षुणी की आत्मा अतृप्त, अशान्त होकर भटकाती चली आ रहीं है।
भिक्षुणी की उदास, हताश और निराश प्रेत-छाया प्रायः देखने को मिलती रहीं है। जिस मार्ग से इस परछाई को घूमते फिरते देखा गया उसका नाम ही “भिक्षुणी का पथ” पड़ गया। सन् 1929 में पादरी के इस भुतहा मकान का रहस्य तब समझ में आया जब इस मकान का रहस्य तब समझ में आया जब इस भूतहे मकान का रहस्य तब समझ में आया जब इस मकान के पादरी स्मिथ ने डेरी मिरर के संपादक को एक पत्र लिखा कि इस तथ्य को उजागर किया जाय। संपादक महोदय ने इंग्लैंड के ही सुप्रसिद्ध परा मनोविज्ञानी हैरी प्राइस ने घोड़ा गाड़ी की आवाज पर संदेह किया कि तेरहवीं सदी में इसका कोई प्रचलन ही नहीं था फिर भी उनने इस भूतहे दृश्य को सही साबित किया है। कहते है कि हैरी प्राइस के मकान में पहुँचने पर तो भूतही हलचलें और भी अधिक बढ़ गयी। जलती मोमबत्ती का अचानक गिर पड़ना-कंकड़-पत्थर फिनाइल की गोलियाँ गिरना अचानक ही गिरिजाघर की घंटी का बजना तथा चाबी का गुच्छा ताले से दूर गिर जाना आदि। गतिविधियों को देखकर हैरी हतप्रभ रह गये। डेली मिरर रिपोर्टानुसार हैरी प्रइस को अंततः वह मकान खाली ही करना पड़ा और डेढ़ वर्ष तक वह वैसा ही पड़ा रहा।
सन् 1931 में फायस्ट रनाम का एक पादरी इस मकान में सपरिवार आ बसा। अब तो प्रेतात्मा और भी उग्र हो गयी। पत्थर बरसाने और मारपीट करने का सिलसिला चल पड़ा श्रीमती फायस्टर ने ऐसी 2000 घटनाओं के प्रमाण अपनी डायरी में नोट किये जिनके कारण वह अत्यधिक उत्पीड़ित रही इस भूतही आत्मा को भगाने के उनने अनेकों प्रयास किये किंतु विफलता ही हाथ लगी। फायस्टर दंपत्ति ने बड़ी मुश्किल से दस मकान में चार वर्ष बिताये अंततः इसका परित्याग करना ही पड़ा तदुपरान्त गिरिजाघर के पादरियों की एक संगोष्ठी बुलाई और निर्णय किया गया कि अब इस मकान में कोई भी व्यक्ति नहीं रहेगा।
चर्च के पादरियों ने जब इस आवास को न रहने योग्य सिद्ध कर दिया तो हैरी प्राइस ने अपने प्रयोग - परीक्षण हेतु चुन लिया और किराये पर रहने लगे। उनने टाइम्स नामक लंदन के समाचार पत्र में विज्ञापन दिया कि जो लो भूत प्रेत के अस्तित्व पर विश्वास न रखते हो कृपया यहाँ आकर देख लें। प्रत्युत्तर में अनेकों वैज्ञानिक इंजीनियर चिकित्सक तथा प्रबुद्ध वर्ग के लोगों ने हैरी से संपर्क स्थापित किया तो उनने भिक्षुणी की अतृप्त आत्मा को भटकते हुए स्पष्टतः देखा। भटकी हुई प्रेतात्मा उस मकान की दीवार पर भी कुछ लिखते हुए नजर आई इन समूतों से यही सिद्ध हुआ कि भिक्षुणी का नाम मैरी था। वह फ्राँस की रहने वाली थी। प्रेम प्रसंग चलने के कारण उसकी हत्या कर दी गयी थी। सन् 1939 में अचानक ही इस मकान में आग लगी तो भिक्षुणी की अस्थियाँ भी जलकर भस्मसात् हो गयी। यही उसकी प्रेत लीला पर विराम लग गया।
भारतीय ऋषि आसक्ति मोह के अतिरेक को दूर करने का परामर्श और प्रेरणा सतत् देते रहे हैं। ताकि चित्त पर स्मृतियों आसक्तियों का बोझ न रहे और हलके-फुलके होकर यह जीवन भी जिया जा सके और अगले जीवन में भी सहज गति में कोई बाधा न रहे। वासनाओं और आवेशों का आधिक्य न केवल इस जीवन को भारभूत बना डालता है अपितु अगले जीवन को भी अभिशाप मय बनाकर रख देता है। उनसे मुक्त रहने पर ही जीवन का सहज स्वाभाविक आनंद प्राप्त हो सकता है।