आस्तिकता का यथार्थ

March 1995

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

आज लोगों की सामान्य धारणा यही है कि भगवान मोर-मुकुट धारी रूप में होते हैं व समय-समय पर पाप बढ़ने पर पौराणिक प्रस्तुति के अनुसार वे उसी रूप में आकर राक्षसीं से मोर्चा लेते व धर्म की स्थापना करते हैं। बहिरंग के पूजा कृत्यों से उनका प्रसन्न होना व इस कारण उतने भर को धर्म मानना, यह एक जन-जन की मान्यता करते हैं। व इसी कारण कई प्रकार के भटकाव भरे धर्म के दिखाने वाले क्रिया-कलाप अपनी इस धरती पर दिखाई देते हैं। जोर से आरती गाई जाती है। नगाड़े -शंख आदि बजाए जाते हैं, एवं चरणों पर मिष्ठान के ढेर लगा दिए जाते हैं सवा रुपये व चंद अनुष्ठानों के बदले भी उनकी अनुकंपा खरीदने के दवे किये जाते हैं। प्रश्न यह उठता है कि आस्तिकता के बढ़ने का क्या यही पैमाना है जो आज बहिर्जगत में हमें दिखाई दे रहा है? विवेकशीलता कहती है कि “नहीं"

ईश्वर विश्वास तब बढ़ता हुआ मानना चाहिए जब समाज में जन-जन में आत्मविश्वास बढ़ता हुआ दिखाई पड़े, आत्मावलम्बन की प्रवृत्ति एवं श्रमशीलता की आराधना में विश्वास अभिव्यक्त होता दीखने लगे। आस्तिकता संवर्धन तब होता हुआ मानना चाहिए जब एक दूसरे के प्रति प्यार-करुणा-ममत्व के बढ़ने के मानव मात्र के प्रति पीड़ा की अनुभूति होता हुआ मानना चाहिए जब एक दूसरे के प्रति प्यार-करुणा-ममत्व के बढ़ने के मानव मात्र के प्रति पीड़ा की अनुभूति के प्रकरण अधिकाधिक दिखाई देने लगें व वस्तुतः समाज के एक−एक घटक में ईश्वरीय आस्था परिलक्षित होने लगें। कोई भी अभावग्रस्त हो एवं अपना अंतःकरण उसे ऊँचा उठाने के लिए छल छला उठे तो समझना चाहिए कि वास्तव में भगवद् सत्ता वहाँ विद्यमान् है। अनीति-शोषण होता हुआ देखकर भी यदि कहीं किसी के मन में किसी की सहायता का आक्रोश नहीं उपज रहा है तो मानना चाहिए कि बहिरंग से आस्तिक यह समुदाय अभी अंदर से उतना ही दिवालिया? भीरु व नास्तिक है। जब ईश्वरीय सत्ता पर विश्वास बढ़ने लगता है तो देखते-देखते लोगों के आत्मबलों में अभिवृद्धि, संवेदना की अनुभूति के स्तर में परिवर्तन तथा सदाशयता का जागरण एक सामूहिक प्रक्रिया के रूप में चहुँ ओर होता दीख पड़ने लगता है।

आज का समय ईश्वरीय सत्ता के इसी रूप के प्रकटीकरण का समय है। प्रसुप्त सम्वेदनाओं का जागरण ही भगवत् सत्ता का अंतस् में अवतरण है। आस्तिक संकट की विभीषिका इसी से मिटेगी व यही अस्तित्व का संवर्धन कर जन-जन के मनों के संताप को मिटाएगी। हमें इसी प्रज्ञावतार को आराध्य मानकर अपने क्रिया−कलाप तदनुरूप ही नियोजित करना चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles