आयु का स्मरण-शक्ति के साथ कोई संबंध है क्या? यदि है, तो वह किस प्रकार का है? क्या उम्र बढ़ने के साथ-साथ मेधाशक्ति घटती है? स्मृति कमजोर पड़ने लगती है?
इन प्रश्नों के उत्तर के संदर्भ में पिछले दिनों तक मनोविज्ञान में परस्पर टकराव जैसी स्थिति थीं दोनों की मान्यताएँ एक दूसरे के बिलकुल विपरीत थीं। मनोवेत्ताओं का मानना था कि आयुष्य का याददाश्त पर सुनिश्चित असर पड़ता है जबकि शरीरशास्त्र की अवधारणा इससे ठीक उलटी है। उसका तर्क है कि नई मशीनें भी निष्क्रिय पड़ी रहने पर बेकार बन जाती है तो मस्तिष्कीय निठल्लेपन के कारण यदि स्मृति की कमी महसूस की जाती है तो इसका कारण बढ़ती वय नहीं है तो इसका कारण बढ़ती वय नहीं है अकर्मण्यता को ही माना जाना चाहिए जबकि मनोवैज्ञानिकों के अनुसार हर वस्तु की अपनी आयु और सीमा होती है, जिसे पार करने के उपरान्त उसकी क्षमता प्रभावित होना स्वाभाविक है।
दलील की दृष्टि से दोनों के तर्क अकाट्य स्तर के माने जाते है इतने पर भी तथ्य यह है कि मानसिक क्षमताओं का ह्रास शारीरिक सामर्थ्य की तरह नहीं होता। विज्ञान के आधुनिक अनुसंधानों ने भी यही सिद्ध किया है और कहा है कि सर्वसाधारण में जो अवस्था सठियाना के नाम से जानी जाती है वस्तुतः वह मनोविज्ञान की देन है वास्तविकता से दूर-दूर तक उसका कोई रिश्ता नहीं। विशेषज्ञों का कथन है कि मनुष्य में बुद्धि और स्मृति के लिए जिम्मेदार भाग सेरेब्रल कार्टेक्स है। जब तक इस हिस्से में किसी प्रकार की कोई स्थायी क्षति नहीं पहुँचती तब तक उसकी क्षमता में कोई कमी नहीं आ सकतीं। उल्लेखनीय है कि मस्तिष्क ही एक मात्र ऐसा अवयव है, जिसमें शुरू से अन्त तक कोशिका-विभाजन नहीं होता है जो होता है वह मात्र इतना है कि तंत्रिका कोशिकाओं में आयु के साथ-साथ आकार प्रकार और क्षमता में अभिवृद्धि होती जाती है अबोध बालक शिशु से किशोर किशोर से वयस्क वयस्क से प्रौढ़ बनता चलता है। इस क्रम में वह अपनी हर प्रकार की क्षमता योग्यता और अनुभव में बढ़ोत्तरी ही करता चलता है। कमी मात्र इतनी भर होती है कि उसका आरंभिक स्वरूप यथावत् बना नहीं रह पाता बौनापन घटता मिटता है और व्यापक विस्तार ग्रहण करता है। यह विस्तार चाहे कलेवर में हो विचारशीलता में अनुभव संपादन में अथवा शिक्षण प्रतिक्षण के कला कौशल में होता अवश्य है। मस्तिष्क के संबंध में भी यही बात लागू होती है वह अपनी इकाइयों के संख्यात्मक विस्तार की तुलना में गुणात्मक वृद्धि करता है। विकासवाद का यह नियम ही है कि जिन अंगों की जितनी अधिक सक्रियता होगी उनका विकास भी उतना ही उत्तम होगा और कालक्रम से वे सुदृढ़ होते चले जायेंगे पहलवान इसी आधार पर अपनी देहयष्टि को सुन्दर सुदृढ़ बना लेते है। मस्तिष्क के साथ भी ऐसा है कुछ होता देखा गया है। अध्ययनों से विदित हुआ है कि जो दिमाग बराबर किसी न किसी कार्य में नियोजित रहता है उसमें न्यूट्रिनो के आकार प्रकार बड़े होते है। जिस अनुपात में ये बड़े होते है उतनी ही बढ़ी चढ़ी उनकी क्षमता होती है मृत्यु उपरांत आइन्स्टीन के मस्तिष्क पर हुए अनुसंधान से पता चला है कि उनकी तंत्रिका कोशिकाएँ असाधारण रूप से आकार में बड़ी थी। दूसरे शब्दों में उनके मस्तिष्क की कॉर्टिकल पत्र काफी मोटी थी। इसके अतिरिक्त अन्य संरचनाएँ सामान्य मस्तिष्क जैसी ही थी। जानने योग्य तथ्य यह भी है कि आरंभ में वे बड़े फिसड्डी किस्म के विद्यार्थी थे।
तंत्रिका विज्ञानी बुद्धि का सीधा संबंध कॉर्टेक्स से बताते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि आरंभ में आइन्स्टीन के दिमाग का वह हिस्सा उतना विकसित नहीं था, किन्तु बार-बार के और उपेक्षा-अपमान के कारण संभवतः वे क्षुब्ध हो उठे हों और तत्संबंधी मान्यता को झूठा साबित करने के लिए तत्पर हो गये हो मानसिक सक्रियता बढ़ी तो शनैः शनैः उसकी क्षमता में भी विकास आरंभ हुआ जिसकी चरम परिणति मूर्धन्य मस्तिष्क के रूप में सामने आयी और वे प्रख्यात विज्ञानवेत्ता बन गये। ऐसी स्थिति में यह कैसे स्वीकार किया जाय कि आयुष्य के साथ-साथ स्मृति घटती है? ऐसे में इसे एक मनोवैज्ञानिक भ्रम कहना ही ज्यादा उचित होगा जिसकी कि बाद में प्रयोगों द्वारा पुष्टि भी हो गई।
प्रायः ऊँचे पर्वतारोहण करने वाले लोगों की यह आम शिकायत होती है कि उत्तुंग शिखर पर उनकी स्मृति कमजोर पड़ जाती है आरंभ में इसे वातावरण का प्रभाव मान लिया गया, किन्तु सन् 1988 में एक अमरीका पर्वतारोही दल के सदस्य नेलसन ने माउण्ट एवरेस्ट पर 21 हजार फुट की ऊँचाई पर इस बात की परीक्षा करनी चाही। उसने अपने साथियों से सामान्य ज्ञान व दैनिक जीवन से संबंधित प्रश्न पूछे, साथ ही हर व्यक्ति से पृथक् पृथक् उनकी स्मृति संबंधी राय जाननी चाही। लगभग प्रत्येक ने इस संबंध में एक जैसे विचार प्रकट किये। उनका मानना था। कि उनकी स्मृति क्षीण पड़ गई है, जबकि परीक्षण से प्राप्त निष्कर्ष कुछ और ही तथ्य प्रकट कर रहा था। उससे इस बात की स्पष्ट जानकारी मिल रहीं थी कि दिमाग के याद रखने की सामर्थ्य में राई रत्ती जितना भी अन्तर नहीं आया है। अनुभव और परीक्षण के परिणाम में दिखाई पड़ने वाले इस स्फुट अन्तर्विरोध को मानस में जिस दृढ़ धारणा का प्रतिफल माना गया, जिसके यथार्थ में ऐसा कुछ घटित होता नहीं था।
लगभग ऐसी ही स्थिति वृद्धों की होती है। वे तत्संबंधी इतनी दृढ़ न्यूनता न आने के बावजूद उन्हें ऐसा अनुभव होने लगता है कि बुढ़ापे के साथ-साथ उनकी स्मरण शक्ति घट रही है। वस्तुतः यह एक पूर्णतः मनोवैज्ञानिक समस्या है इसे अब मानवशास्त्र भी स्वीकारने लगा है। उसका कहना है कि यदा कदा स्मरण शक्ति का ढीला पड़ जाना और उसके कारण दैनिक जीवन में छोटी मोटी कठिनाई उत्पन्न हो जाना यह कोई बड़ी समस्या नहीं है। यह तो बुद्धि संपन्न कहे जाने वाले लोगों के साथ भी घटित हो सकती है। इसका एकमात्र मारण तत्संबंधी प्रकरण में एकाग्रता अथवा अभिरुचि की कमी है इसे तो कोई व्यक्ति स्वयं अनुभव कर जान सकता है कि किस प्रकार जब किसी घटना अथवा बात पर तत्परता-पूर्वक ध्यान नहीं दिया जाता है, तो वह उसका विवरण उस रूप में याद नहीं रख पाता, जिस रूप में वह घटित हुई है या कही गई। अतः ऐसे प्रसंगों में स्मृति को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। इसे उपेक्षा जैसे संबोधनों से संबंधित किया जाना चाहिए। स्मरण शक्ति से इसका कोई लेना देना नहीं। यह सामान्य बात है। यह सामान्य बात है। स्थिति गंभीर तब मानी जानी चाहिए, जब काम करते अथवा कहीं जाते हुए व्यक्ति को यह पूरी तरह विस्मृत हो जाय कि उसे करना क्या था या जाना कहाँ था? ऐसी दशा में विशेषज्ञों की राय लेनी आवश्यक हो जाती है।
इस प्रकार अब लगभग यह सिद्ध हो चुका है कि बुढ़ापे के साथ मानसिक क्षमताओं में न्यूनताओं की जो बात की जाती है उसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। यह एक मिथक मात्र है एवं परंपरागत मान्यता बन जाने के कारण सभी इसी को सच मानने लगे है। वास्तविकता तो यह है कि ज्यों ज्यों आयु बढ़ती है, स्वाध्यायशीलता बढ़ती है, अनुभव बढ़ता चला जाता है त्यों त्यों व्यक्ति की स्मरण शक्ति व सोचने की विधि भी परिमार्जित होती चली जाती है। कबीर एक सौ बीस वर्ष जिए व श्रीमान दामोदर सातवलेकर जी शताधिक आयु जीकर जीवन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य 75 वर्ष के बाद ही कर गए। जब ऐसा है तो क्यों कर हम अपना आयुष्य रिटायरमेण्ट के बाद पूर्णतः निरर्थक जीवन जीते हुए किसी तरह काट देते है। यदि बढ़ती आयु के साथ बढ़ती स्मृति व विवेक बुद्धि का सुनियोजन समाज निर्माण के निमित्त होने लगें तो समाज का कायाकल्प उस बहुत बड़ी संख्या में हो सकता है जिसे हमने वार्धक्य के कारण उपेक्षा के गर्त वानप्रस्थ परंपरा परिव्रज्या का नव संन्यास परंपरा का पुनर्जीवन ही दूसरा एकमेव समाधान है ताकि हर बुढाता व्यक्ति अपने महत्त्व को पहचाने अपने अनुभव व विवेक का क्रमशः बढ़ रही स्मरण शक्ति का लाभ समाज को देने की सोचे, न कि ज्यों त्यों समय काटने को या पोतों पोतियों को खिलाने तक अपना जीवन सीमित मानकर किसी तरह जीता रहे। इस बहुत बड़ी संख्या का राष्ट्र के नवनिर्माण में सुनियोजन समय की एक सबसे बड़ी आवश्यकता है।