विज्ञान अध्यात्म के साथ चले, तो ही समग्र प्रगति संभव

March 1995

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आज के तथाकथित बुद्धिवादी लोग वर्तमान वैज्ञानिक प्रगति की दलील देकर आस्तिकता, अध्यात्मिकता तथा धार्मिकता जैसे महान् सिद्धांतों का प्रतिवाद करते है। कहते है प्रत्यक्षवाद में इनका कोई अस्तित्व नहीं पर वास्तविकता क्या है? यदि इसका गंभीर अध्ययन द्वारा अन्वेषण किया जाय, तो ज्ञात होगा कि विज्ञान की दुहाई देने वाले इन लोगों का विज्ञान की दुहाई देने वाले इन लोगों का विज्ञान संबंधी ज्ञान कितना उथला है जिन्होंने गहन परीक्षणों के उथला है जिन्होंने गहन परीक्षणों के उपरांत कोई महत्त्वपूर्ण सफलता प्राप्त की है उन वैज्ञानिकों में से कदाचित् ही कोई ऐसा है, जिसने जीवन को गरिमा प्रदान करने वाले इन तथ्यों से इनकार किया हो। अधिकांश ने सिद्धांतत इनके अनुशासनों को स्वीकार है और उनके अपनाये जाने पर बल दिया है।

यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि पिछली दो शताब्दियों में ज्ञान−विज्ञान के अनेक क्षेत्रों में तेजी से विकास हुआ है जिससे निकट भविष्य में और अधिक महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों की आशा बँधी है। फोटोग्राफी का प्रचलन अब से लगभग डेढ़ शताब्दी पूर्व हुआ था और आज उसका अतिविकसित रूप त्रिआयामी चित्रों एवं रंगीन तस्वीरों के रूप में देखा जा सकता है। टेलीफोन के रूप में देखा जा सकता है। टेलीफोन ने विकास के छः दशक लिये रेडियो ने साढ़े तीन दशक राडार ने डेढ़ दशक टी.वी. एक दशक तथा अणु शक्ति ने लगभग आधा दशक समय लिया। यह निरंतर सिकुड़ती सीमा-अवधि इस बात का प्रतीक है कि ज्ञान की विभिन्न दिशाओं का जितना विकास होता है, विज्ञान की उतनी ही प्रगति तीव्र होती है इन तथ्यों ने ज्ञान की सार्थकता सिद्ध करके निश्चय ही यह बता दिया है कि ज्ञान के अभाव में मनुष्य किसी भी दिशा में बढ़ नहीं सकता। ज्ञानार्जन की प्रवृत्ति को सर्वोपरि आवश्यकता के रूप में स्वीकार करके ही उन्नति संभव है।

किंतु इतने भर से पूर्णता का दंभ करना बौद्धिक औचित्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं। भौतिक ज्ञान का भी क्षेत्र सीमित नहीं, वह इतना अगाध है, जितना अभेद्य यह ब्रह्माण्ड इसे अब विज्ञान ने भी स्वीकार लिया है कि मात्र बौद्धिक ज्ञाने के सहारे इस विस्तृत ब्रह्माण्ड और जीवन के रहस्यमय पक्षों की जानकारी का प्रयास मनुष्य को गंभीर समस्याओं में उलझा सकता है अस्तु इसका समाधान बुद्धि से परे के स्तर में ही जाकर ढूँढ़ना श्रेयस्कर होगा।

ऐसी दशा में बुद्धिवाद की चुनौती देना दर्प के अतिरिक्त और कुछ नहीं बौद्धिक दृष्टि से इन दिनों संसार ने जितनी प्रगति की है, अपने पूर्वज उससे तनिक भी पीछे नहीं थे। धर्म और अध्यात्म ने प्रदान किये है उनके ज्ञान की सामर्थ्य अतुलनीय थीं। यदि विज्ञान को, टेक्नोलॉजी को ही ज्ञान का मापदण्ड माना जा रहा हो तो इस क्षेत्र में भी पूर्वज अग्रणी थे। उनकी उपलब्धियों पर दृष्टिपात करने से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है।

आज की सबसे बड़ी उपलब्धि आकाश गमन को माना जाता है। वायुयानों द्वारा पृथ्वी को कुछ ही घटों में लाँघ जाना निश्चय ही आश्चर्य की बात है पर ऐसी बात नहीं कि ऋषिकालीन विज्ञान इस क्षेत्र पिछड़ा हुआ था। वेदों के मर्मज्ञ जर्मन वैज्ञानिक डॉ. ड्रइच के अनुसार प्राचीन भारत ने इस दिशा में जो उन्नति की थी वहाँ तक पहुँचने में आधुनिक विज्ञान को शताब्दियाँ लग जायेंगी अत्यंत सही कथन है क्योंकि तब का विज्ञान अध्यात्म की सीढ़ियों के सहारे उस उत्तुंग ऊँचाई पर पहुँचा था, जबकि आज का विज्ञान मात्र बुद्धिवाद के सहारे ऐसा करने का दुस्साहस कर रहा है जो असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। प्राचीन वैमानिकी से संबंधित सबसे प्रामाणिक ग्रंथ महर्षि भारद्वाज रचित यंत्र सर्वसव” के 40 प्रकरणों में से 28 वां प्रकरण माना जाता है इसमें विमानों के विभिन्न किस्में यथा शकुन रुक्म सुन्दर त्रिपुर जैसे 25 प्रकार के विमानों की चर्चा है। सुन्दर विमान शुँडालु से निकलने वाले धुएँ ये चलते थे त्रिपुर जल, थल, वायु, तीनों मार्गों में चलने की समान क्षमता रखते थे। इसमें लगा “सीत्कारी यंत्र” उसे पनडुब्बियों की विशेषता प्रदान करता था, जिससे पानी के भीतर भी लोगों को शुद्ध व शीतल वायु मिलती रहती थी। ग्रंथ के उक्त प्रकरण में विमानों के रेखापथ, दम्भोक्ति गुहादर्भादर्श यंत्र ़स्यवात, निसन आदि यंत्रों को विस्तृत उल्लेख है, जो दूरवर्ती ग्रहों की यात्रा के अवरोधों को भी हटाने में सक्षम थे। यह सब अत्यधिक वैज्ञानिक जानकारी के आधार पर ही संभव रहा होगा। फिर चरमोत्कर्ष के बाद अपना बौद्धिक ज्ञान का अभिमान उचित प्रतीत नहीं होता

यहाँ यह सवाल उठ सकता है कि यदि यह सब वास्तविकता थी तो आज क्यों नहीं? अब तक तो इस विकास को पूर्णता की स्थिति में होना चाहिए था, पर ऐसा न हो सका? आखिर क्यों? उत्तर के लिए पुनः उस युग से वर्तमान युग में आना पड़ेगा तब विज्ञान का चरम विकास होने पर भी लोगों ने आस्तिकता आध्यात्मिकता ओर धार्मिकता के मूल मानवीय लक्ष्य का परित्याग नहीं किया था। विचारशीलता ने तर्क की गुँजाइश नहीं रखी थी विज्ञान विराट् की साकार परिकल्पना का माध्यम मात्र था। उसे भौतिक दंभ का आधार नहीं बनाया गया। तब ज्ञान श्रद्धाभूत था। उसे भौतिक दंभ का आधार नहीं बनाया गया। विश्वास की शक्ति के लिए तर्क से अधिक श्रद्धा और सम्मान को मान्यता मिली हुई थी इसी कारण सामाजिक जीवन में नैतिकतापूर्वक मर्यादा, पारस्परिक एकता और बंधुत्व की भावना संव्याप्त थी सर्वत्र सुख शांति का हेतु यही था।

वर्तमान में भौतिक उपलब्धियों की चकाचौंध ने धार्मिक आध्यात्मिक अनुशासनों की सर्वथा उपेक्षा कर दी, जिससे निरंकुश भौतिकवाद का जन्म हुआ और चार्वाक एवं नीत्से जैसे दर्शन कुकुरमुत्तों की तरह उगने लगे। परिणाम स्वरूप लोभ-मोह की वासना-तृष्णा की ललक इस कदर बढ़ी जिसमें नैतिकता की नीतिमत्ता ही जल कर खाक हो गई। शेष बचा अध्यात्म का कंकाल इसी ढकोसले में लोग जब तब जहाँ तहाँ तरह तरह के रंग रोगन चढ़ा कर आध्यात्मिक होने का प्रपंच रचते और दूसरों की आँखों में धूल झोंकते है। आज का अध्यात्मवाद यहीं तक सीमित है जबकि भौतिकवाद एक बार पुनः आदिम युग की ओर ले चलने को उतारू है। संभवतः कभी पूर्व में इन्हीं परिस्थितियों में परमाणु संकट उत्पन्न हुआ होगा, जिसके प्रमाण अब भी देश-विदेश में मिल रहे है।

कुछ वर्ष पूर्व लेबनान में शीशे की तरह चट्टान के टुकड़े मिले है इन्हें टेक्टीटेस कहते है अमेरिका के परमाणु विज्ञानी डॉ. स्टेयर ने इनमें रेडियोधर्मी एल्युमिनियम आइसोटोपों का अध्ययन किया, तो जो निष्कर्ष सामने आया, उससे वे स्तब्ध रह गये उनका कहना था, “ऐसा लगता है जैसे परमाणु युद्ध पहले कभी हो चुके है। यह काले पत्थर न सिर्फ लेबनान वरन् भारत फ्राँस, आस्ट्रेलिया दक्षिण अफ्रीका, चिली आदि देशों में भी मिले है जिनमें एल्युमिनियम तथा बैरीलियम बड़ी मात्रा में विद्यमान् है। अध्ययनों से पता चला है कि यह अत्यंत उच्च ताप वाले भयंकर अणु विस्फोटों के परिणाम स्वरूप बने है। विशेषज्ञों ने इनका रचना-काल महाभारत युग के आस-पास बताया हैं। महाभारत युद्ध में प्रयुक्त अस्त्र शस्त्र वैज्ञानिक आयुधों से काफी कुछ मिलते जुलते है। इस आधार पर इसकी संगति महाभारत युद्ध से ठीक ठीक बैठ जाती है। वह स्थिति दुबारा आ सकती है, यदि दुर्योधन की सी दुर्बुद्धि को त्यागा नहीं गया।

मनुष्य प्रायः अपनी पिछली भूलों से सबक लेता है। जो गलती पहले वह कर चुका उसके प्रति सावधानी बरतता और जागरूक रहता हैं। इन दिनों हम लगभग उसी स्थिति में है। इन दिनों हम लगभग उसी स्थिति में है, जब एक बार फिर वैसा ही खतरा सिर पर मँडरा रहा है। पुनः वह हृदयविदारक दृश्य उपस्थित न हो, इसके लिए विज्ञान पर अध्यात्म का अंकुश लगे और उसे उच्छृंखल बनने से रोके, क्योंकि ज्ञान की गरिमा शालीनता में है उच्छृंखलता में नहीं। सम्मान तभी मिलता है श्रद्धा इसी स्थिति में उपजाती है। जहाँ श्रद्धा का अभाव है वहाँ ज्ञान भी शुष्क होता है। विज्ञान शुष्क न हो, वह श्रद्धायुक्त बने और अध्यात्म के साथ एकाकार होकर चले। समय की माँग यही हैं।


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