साधु बनाम बहरूपिया

March 1995

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बहरूपिया, राजा के दरबार में पहुँचा महाराज की जय जयकार हो! अन्नदाता की यश पताका आकाश में सदैव फहराती रहे। बस पाँच रुपए का सवाल है, महाराज से और बहरूपिया कुछ नहीं चाहता।

“मैं कला का पारखी हूँ। कलाकार का सम्मान करना राज्य का नैतिक कर्तव्य है मैं तुम्हारी कला पर प्रसन्न होकर पाँच रुपए का पुरस्कार दे सकता हूँ पर दान के लिए मजबूर हूँ। राजा ने कहा।”

“कोई बात नहीं मैं आपके सिद्धांत को तोड़ना नहीं चाहता। मुझे अपना दूसरा स्वाँग दिखाने के लिए तीन दिन का समय तो दीजिए। “ इतना कहकर वह वहाँ से चलता बना।

दूसरे दिन नगर से बाहर एक टोकरी के ऊपर समाधि मुद्रा में एक साधू दिखाई दिया। मेरुदंड सीधा नेत्र बंद, तेजस्वी चेहरा और लंबी जटाएँ। इधर उधर पशु चराने वाले चरवाहों ने उस साधु को देखा। वे सब उत्सुकतापूर्वक उसके पास पहुँचे।

तपस्वी मृगछाल पर ध्यानावस्थित था। उसे पता ही न चला कि सामने कौन खड़ा है?

स्वामी जी! आपका आगमन कहाँ से हुआ है? कुछ क्षण रुककर फिर दूसरा प्रश्न क्या आपके लिए कुछ फल, दूध और मेवा आदि की व्यवस्था की जाय?

मुख से कुछ शब्द का निकलना तो दूर की बात रही उसका शरीर भी रंच मात्र न हिला।

शाम को सभी चरवाहे अपने पशुओं को लेकर नगर वापस आए। उनके द्वारा घर-घर में तपस्वी संत उनके द्वारा घर-घर में तपस्वी संत की चर्चा होने लगी। दूसरे दिन सुबह ही नगर के अनेक सभ्य, शिक्षित नागरिक, दरबारी, धनिक तथा श्रद्धालु व्यक्ति अपने-अपने वाहन लेकर नगर से बाहर की ओर दौड़ पड़े किसी की थाली में मेवा फल और मिष्ठान्न थे। कोई साबूदाना और मखाने की खीर लेकर गया था। किसी की बाल्टी दूध से भरी थी और कोई तरह-तरह के पकवानों से अपने थाल भरकर ले गया था। सबका एक ही आग्रह था कि उसमें से एक ग्रास लेकर श्रद्धालु भक्तों को कृतार्थ किया जाए।

सबके आग्रह व्यर्थ गए। साधु ने आँख तक न खोली। वह तो अविचलित रूप से वहीं बैठा रहा संत के ध्यान की कहानी महामंत्री के पास तक पहुँच गयी। वह अनेक प्रकार की स्वर्ण और रजत मुद्रायें रथ में भरकर उस टीले पर पहुँचा। मुद्राओं का ढेर लगा दिया संत के आस-पास संत से बड़े विनम्र स्वर में निवेदन करते हुए प्रधान मंत्री ने कहा “बस! एक बार नेत्र खोलकर कृतार्थ कीजिए। में किसी भौतिक लालसा से आपको परेशान करने नहीं आया हूँ।”

प्रधान मंत्री का निवेदन भी बेकार गया। अब उसे निश्चय हो गया कि यह संत अवश्य पहुँचा हुआ है राग विराग लोभ मोह सभी से मुक्त है तभी तो इतने बड़े बड़े उपहारों की ओर आँख उठाकर नहीं देखता।

प्रधानमंत्री ने राजा के महल में जाकर सारी वस्तुस्थिति से अवगत कराया। राजा को सोचते देर न लगी। वह मन ही मन पछताने लगे। जब मेरे राज्य में इतने बड़े तपस्वी का आगमन हुआ है तो मुझे अवश्य उनकी अगवानी करने जाना था। उन्होंने दूसरे ही दिन सुबह उस तपस्वी के दर्शन करने जाने का निश्चय किया। गाँव भर में यह खबर बिजली की तरह फैल गई। जिस मार्ग से राजा की सवारी निकलने वाली थी वह मार्ग साफ करा दिए गए। रास्ते में सैनिकों की व्यवस्था कर दी गयी।

राजा ने तपस्वी के चरणों में एक लाख अशर्फी का ढेर लगा दिया और अपना मस्तक उनके चरणों में टेक कर आशीर्वाद की कामना करने लगें, पर तपस्वी विचलित नहीं हुआ। अब तो प्रत्येक व्यक्ति को यह निश्चय हो गया कि साधु बहुत त्यागी और पहुँचा हुआ है। साँसारिक वस्तुओं से उसका तनिक भी लगाव नहीं है।

चौथे दिन बहरूपिया फिर दरबार में पहुँचा हाथ जोड़ कर कहने लगा-राजन् टब तो आपने मेरा स्वाँग देख लिया होगा और पसंद भी आया होगा। अब तो मेरी कला पर प्रसन्न होकर अधिक नहीं तो पाँच रुपए का पुरस्कार तो दे ही दीजिए, ताकि परिवार के पालन पोषण हेतु आटा दाल की व्यवस्था कर सकूँ।”

“छिः छिः। तुझ जैसा मूर्ख व्यक्ति मैंने आज तक नहीं देखा जब संपूर्ण राज्य की जनता अपना सर्वस्व लुटाने के लिए तेरे चरणों के पास आतुर खड़ी थी। तब तूने धन दौलत के उस ढेर पर एक नजर तक नहीं डाली और अब पाँच रुपए के लिए ऐसे चिरौरी करता है।”

बहुरूपिये ने कहा राजन् उस समय एक तपस्वी की मर्यादा का प्रश्न था। एक साधु के वेश की लाज रखने की बात थी। भले ही साधु के रखने की बात थी। भले ही साधु के रूप में बहरूपिया हो, पर था तो एक साधु ही फिर वह धन दौलत की ओर दृष्टि उठाकर कैसे देख सकता था, उस समय सारे वैभव तुच्छ थे ओर अब पेट की ज्वाला शांत करने के लिए अपने श्रम पारिश्रमिक और पुरस्कार की माँग है आपके सामने।


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