तप की सिद्धि

March 1995

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गृहस्थाश्रम का अंत निकट आ चला किंतु महाराज दिलीप को कोई संतान नहीं हुई। वानप्रस्थ ग्रहण करने से पूर्व राज्य के लिये योग्य उत्तराधिकारी की उन्हीं चिंता थी और सुदक्षिणा को निःसंतान होने का दुःख। अंततः दोनों ने मंत्रणा की और समुचित समाधान के लिये गुरु वशिष्ठ की शरण जाने की निश्चय कर लिया।

दिलीप और सुदक्षिणा समित्पाणि महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में पहुँचें और गुरु को प्रणिपात कर अपना दुःख निवेदन किया। एक क्षण मौन रहकर त्रिकालदर्शी महर्षि ने देखा पूर्वजन्म में दिलीप से एक गाय बहुत दुःखी हुई थी। आत्मा अबूझ रहे तो भी उसकी सर्वशक्तिमत्ता नष्ट तो नहीं होती। भरे हृदय से उसने श्राप दिया था और उसी कारण महाराज दिलीप को इस जन्म में संतान सुख से वंचित होना पड़ा था।

अपनी महत्ता छिपाये रखने का ऋषियों में स्वभाव होता है, इसलिये उन्होंने पूर्वजन्म का तो कोई उल्लेख नहीं किया पर उन्होंने कहा-दिलीप यदि तुम तप करने के लिए तैयार हो तो ही संतान का सौभाग्य मिल सकता है, तुम्हें ज्ञात हो परमात्मा भी निरंतर तप करता है, तभी वह संसार का स्वामी बन सका।

महर्षि का सीधा उद्देश्य दिलीप से पूर्व-कृत-पापों का प्रायश्चित कराना था। तत्त्वदर्शी आचार्य आश्रमों में आये आगन्तुकों की इच्छाएँ उनके मनोरथ सब कुछ जानते हैं, उन्हें पूरी करने की सामर्थ्य नहीं कर सकते। देते है वे भी पर जब प्रायश्चित द्वारा उनकी मलीनताओं और कुसंस्कारों को दूर कर लेते हैं। दुष्ट-दुराचारी पाप और वासनाओं में डूबे हुए को कोई वरदान देकर उस अलौकिक आत्म-शक्ति के दुरुपयोग का अपराध वे कभी नहीं करते, नहीं करते, भले ही सारा संसार एक ओर हो जाये और अपने सिद्धांतों पर उन्हें अकेले ही तटस्थ होकर खड़ा रहना पड़े

दिलीप! और सुदक्षिणा! तुम दोनों ही मुझे मेरे प्राणों से भी अधिक प्यारे हो। राजवंश की रक्षा हमारा धर्म भी है-वशिष्ठ बोले किंतु ईश्वरीय न्याय के सिद्धांत प्राणिमात्र के लिए एक से है, जिस तरह तुम अपनी प्रजा का न्याय करते समय छोटे-बड़े अपने-पराये का भेद नहीं करते क्या उसी प्रकार ईश्वर की सत्ता पर यह विश्वास न करोगे कि वह प्राणिमात्र के प्रति समान न्याय भाव रखता है।

यह तो हमारा धर्म हे गुरुदेव! दिलीप ने दोनों हाथ जोड़कर कहा-आप जो कहेंगे उसमें हमारा हित ही होगा।” इससे आगे की बात सुदक्षिणा ने पूरी की-देव आपकी कोई भी आज्ञा हमें शिरोधार्य है, हम तप करने के लिये राजी है।”

वशिष्ठ ने राज-दम्पत्ति को आशीर्वाद दिया आश्रम के प्रबंधकों ने उनके निवास का प्रबंध किया जिस तरह आश्रम में विद्याध्ययन और साधनायें करने वाले स्नातक और वानप्रस्थ पर्ण-कुटीरों में रहते थे, उन्हें भी एक पर्ण-कुटीर रहने के लिये दे दी गई। बिलकुल सामान्य, राज-वंश की शान के अनुकूल विशेषता का एक भी अंश उसमें नहीं था।

एक दिन सायंकाल उनके द्वार आये दो बटुकों के साथ महर्षि की नंदिनी गाय थी- उन्होंने बताया- कल से आपको इस गाय को चराने जाना होगा। इस गाय की संपूर्ण व्यवस्था का उत्तरदायित्व आगे आप लोगों पर ही होगा, ऐसा महर्षि का आदेश है।

सुदक्षिणा और दिलीप दोनों ने नंदिनी के चरण स्पर्श किये और उसे पर्ण कुटीर के सम्मुख एक अन्य पर्ण कुटीर में रख दिया।

प्रातःकाल नंदिनी वन के लिए चलीं कटि में परिकर और पीठ पर तूणीर, जिन में बाण भरे हुए थे, धारण कर दिलीप गाय के पीछे चले। दक्षिण स्कंध पर प्रत्यंचा चढ़ा हुआ धनुष-दिलीप का वीर वेश देखते ही बनता था। उनके पीछे पादत्राण रहित सुदक्षिणा। जिसने कभी एक योजन भी पैदल न चला था, जिसकी देह पर वर्षों से सूर्य का भरपूर प्रकाश भी न पड़ा था, वही सुकुमारी सुदक्षिणा कंटकाकीर्ण वन में पति दिलीप के साथ नंदिनी चराने जाने लगी।

नंदिनी जब चरती उसकी सुरक्षा के लिये धनुषधारी दिलीप उसके पीछे-पीछे चलते नंदिनी बैठ जाती, तभी उन्हें बैठने को मिलता नंदिनी कभी अस्वस्थ दीखती तो दिलीप और सुदक्षिणा रात-रात जागकर उसका उपचार करते। जप, तप, हवन, ब्रह्म-भोज सब कुछ उनके लिये नंदिनी की सेवा ही थी। गुरुदेव की गाय को वे अपने प्राणों से भी अधिक बचाकर रखते थे

शीत, बरसात, ग्रीष्म ऋतुयें बदलती गई पर दिलीप की साधना में कोई अंतर नहीं पड़ा एक शरद गई दूसरी ने प्रवेश किया। कार्तिक के सुहावने दिन प्रकृति की हरीतिमा और नव्य-कुसुमों की शोभा वन-श्री को नई आभा प्रदान कर रही थी। नंदिनी चरते-चरते कैलाश शिखर तक जा पहुँची दिलीप प्रकृति के अजस्र सौंदर्य का पान करते उसके पीछे-पीछे चलते चले गये।

संध्या हो चली पर नंदिनी ने पीछे मुड़ने का नाम भी न लिया। भगवान् सूर्यदेव थक कर में हलकी आभा से उदय हो चला। विलक्षण शांति थी उस समय। सघन क्षेत्रों का कोलाहल वंदना इस शांति पूर्ण वेला में एकाग्र हो गया प्रकृति के सौंदर्य में वे एक क्षण के लिये खो गये नंदिनी थोड़ा आगे निकल गई।

तभी एक सिंह की गरज ने उनका ध्यान भंग किया। वह अभी नंदिनी पर टूट पड़ने वाला था कि दिलीप का धनुष गति कर उठा। तीखा बाण तूणीर से काढ़कर उन्होंने प्रत्यंचा चढ़ाई। श्रवण तक खींचकर अभी वे बाण को छोड़ना ही चाहते थे कि हाथ धनुष से चिपक गये और वे अपने को सर्वथा असहाय, असमर्थ अनुभव करने लगे। सिंह समझते हो, वह नहीं हूँ मैं भगवान् आशुतोष का गण हूँ मुझे नंदिनी को भक्षण करने के लिये भेजा गया है। तुम उसे बचा नहीं सकते।”

दिलीप आर्तनाद कर दौड़े और नंदिनी को अपने पीछे कर बोले “जब तक मेरा शरीर है वनराज! तब तक तुम नंदिनी पर प्रहार नहीं कर सकते" अब तक सुदक्षिणा भी आगे पहुँच चुकी थी, उसने हाथ जोड़कर याचना की-"मृगेन्द्रः आप पहले मुझे भक्षण करें तब मेरे पतिदेव पर हाथ उठाये"

एक निमिष में सब कुछ हो गया। सिंह वहाँ था कहाँ महर्षि वशिष्ठ शिला पर खड़े मुस्कुरा रहे थे उन्होंने आशीर्वाद दिया-अब तुम आश्रम लौट आओ दिलीप! तुम्हारी तपश्चर्या पूरी हो गई।”

इसी साधना के प्रताप से दिलीप और सुदक्षिणा ने रघु को जन्म दिया। जिनके नाम पर दिलीप के वंश का नाम ‘रघुवंश’ पड़ा।


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