तप का उद्देश्य आत्म परिष्कार

March 1995

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जीवात्मा अपने साथ जन्म जन्मान्तरों के संस्कारों को सूक्ष्म रूप में लेकर अवतरित होता है जिस परिवेश में मनुष्य रहता है विकसित होता है उसके संस्कार भी साथ में जुड़ते चले जाते हैं। कुसंस्कारों का परिमार्जन न हो तो आत्म साधना की गति अवरुद्ध हो जाती है। जप और ध्यान की साधनाएँ भी उतनी सहयोगी नहीं बन पातीं जितनी कि होनी चाहिए, क्योंकि परिशुद्ध अंतःकरण में ही ईश्वरीय सत्ता का प्रकाश अवतरित होता है। वह स्थिति नहीं बन पड़ने पर दिव्य अनुदानों से वंचित रहना पड़ता है। प्रायः देखा भी जाता है कि अनेक लोग घंटों जप-ध्यान करते है, पर उनकी स्थिति ज्यों की त्यों बनी रहती है, कोई कहने लायक सफलता नहीं मिल पाती। इस विफलता का एक ही कारण है कि अंतः की मलिनता का परिमार्जन नहीं हो सका। अध्यात्म मनीषियों ने इस अवरोध को दूर करने का उपयुक्त माध्यम तप बताया है। अभ्यास ही स्वभाव बनता और संस्कार के रूप में परिणत हो जाता है अनुपयुक्त अभ्यासों को तोड़ना तप का प्रमुख लक्ष्य है। वे शारीरिक क्रियायें व मानसिक चिंतन सभी में सम्मिलित है। प्रायः तन मन एवं अंतःकरण के अभ्यास ही अगणित स्थूल, सूक्ष्म क्रियायें व मानसिक चिंतन सभी में सम्मिलित है। प्रायः तन मन एवं अंतःकरण के अभ्यास ही अगणित स्थूल सूक्ष्म क्रियाओं को गति देने का कारण बनते है। मानवी अंतरात्मा के प्रतिकूल उनका स्वभाव होने पर पतन-पराभव का सिलसिला शुरू हो जाता है अस्तु उनका परिष्कार आवश्यक ही नहीं अनिवार्य हो जाता है।

तप स्वयं को तपाने की एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें मल विक्षेपों अवाञ्छनीय वृत्तियों कुसंस्कारों को जलने गलने का अवसर मिलता है साथ ही प्राण ऊर्जा का उत्पादन संवर्धन भी होता है। यह दो क्रियाएँ इसमें साथ साथ चलती है इसी का मृदु रूप तितिक्षा है, जो शारीरिक मानसिक दोनों प्रकार की होती हैं। सामान्य स्थिति में मनुष्य अपने मन व इच्छाओं का दास होता है। किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं होने से इच्छाएँ इन्द्रियों को विषय वासना के आकर्षणों के पीछे दौड़ती रहती है और उनकी प्राप्ति के लिए मनुष्य तरह-तरह के उपक्रम करता रहता हैं। एक बार मन को इनके सेवन का अवसर मिल गया तो अगली बार उनकी यह लिप्सा द्विगुणित हो उठती है। वह इसी की प्राप्ति के अवसर ढूँढ़ता रहता है इस प्रकार मनुष्य अवगति की ओर बढ़ता जाता है। मन की इसी हेय प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के लिए तप का विधान है इस योगाग्नि में तप कर मनुष्य सोने की भाँति शुद्ध खरा व प्रखर बन जाता है। इसलिए तप को साधना का प्राण कहा गया है। उसमें जो कुछ भी शाश्वत उदात्त उपादेय तथा महत्त्वपूर्ण है वह सब तप से संभूत है।

तप की महत्ता और उपयोगिता का बखान करते हुए वैदिक ऋषि कहते है कि तपस्या से वेदों की उत्पत्ति हुई। तप से ही ऋत और सत्य उत्पन्न हुए इसी से ब्रह्म की खोज संभव है। मृत्यु पर विजय और ब्रह्मलोक की प्राप्ति एक तपस्वी ही कर सकता है। तपने में ही व्यक्ति समाज और संसार का कल्याण है। यह साध नहीं नहीं साध्य ब्रह्म भी है।”

नीति शास्त्र के प्रवर्तक महर्षि मनु का कथन है “तप से ऋषिगण त्रैलोक्य जगत के चराचर प्राणियों का साक्षात्कार करने में समर्थ होते थे। जो कुछ भी दुर्लभ और दुष्प्राप्य इस संसार में है वह सब तपश्चर्या द्वारा साध्य है।”

मुण्डकोपनिषद् में कहा गया है- यह आत्मा तप और सत्य के द्वारा ही जाना जा सकता है।” पातंजलि योगसूत्र में वर्णन है-तप से अशुद्धि के क्षय होने से शरीर और इन्द्रियों की शुद्धि तथा सिद्धि की प्राप्ति होती है।

इस तरह जिस प्रयास से शोधन की क्रिया संपन्न होती है, अथवा जिसमें इस प्रकार का प्रयोजन निहित हो उन सभी प्रकार के कृत्यों को योगशास्त्र में तप की संज्ञा दी गई है किंतु जिनसे यह प्रयोजन नहीं सधता जो मात्र प्रशंसा प्रदर्शन के निमित्त किये जाते है उन्हें तप की श्रेणी में नहीं रखा गया है। तप का एकमात्र उद्देश्य आत्म-परिष्कार हैं। इसे क्रियायोग का एक अनिवार्य अंग माना गया है। साधनाएँ इसके साथ जुड़कर ही फलीभूत होती रही है एवं रहेगी।


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