दृष्टिकोण के परिवर्तन से जहान बदल सकता है

March 1995

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आनंद प्राप्त करना हमारा मुख्य लक्ष्य है दिन रात उसी की प्राप्ति में लगे रहते हैं जो जिस स्थिति में है उसे उसी स्थिति में आनंद की अनुभूति हो रहीं हैं। गाँव में रहने वाला इसलिए प्रफुल्ल है कि उसे मुक्त प्रकृति स्वस्थ आब हवा और अनेक प्राकृतिक साधनों का भोग भोगने को उसके कम प्रसन्न नहीं है उसे अपनी तरह के साधन प्राप्त है। शिक्षा मनोरंजन के साधन आदि कई तरह के प्रसाधनों की दृष्टि से वह अपेक्षाकृत अधिक सुख से वह अपेक्षाकृत अधिक सुख अनुभव करता है। कोई एक स्थान पर स्थायी रहकर सुखी है किसी को चलते रहने में आनंद आता है।

किसी को कृषि में आनंद है किसी को रोजगार में। सैनिक को अपना ही जीवन प्रिय है दुकानदार को अपनी ही जीवन प्रिय है दुकानदार को अपनी स्थिति। नौकरी पेशा अपने ही इर्द−गिर्द जाल बुनकर आनंदित है तो छोटा-सा धंधा करने वाला, नित्य प्रति मजदूरी करते हुए पेट भरने वाला मजदूर भी आनंदित है। अपनी मौज की सामग्री हर कोई ढूँढ़ कर उसमें ही आनंद का अनुभव करते रहते है। जानवर को भी अपनी स्थिति से असंतोष नहीं है, क्योंकि मृत्यु से उसे भी भय है, वह भी चोला बदलने से हिचकिचाहट जताता है। गंदे नाली में कुलबुलाने वाले कीड़े की भी यही दुर्दशा है वहीं वह आनंद अनुभव करता है 11 लाख योनियों में भटकने वाले जीव जंतुओं की यही स्थिति है। तात्पर्य यह है कि यहाँ सभी आनंद का ही जीवन जी रहे हैं। आनंद सार्थक है या नहीं उचित है या अनुचित सात्विक है या असात्विक विचारने के लिए इतना ही शेष रह जाता है।

‘भोग से रोग उत्पन्न होते है इस कहावत के अनुसार उन सभी सुखों को जिनसे इन्द्रियों के विषय तृप्त होते हों वास्तविक आनंद की कोटि में नहीं रखा जा सकता। स्वाभाविक आनंद से ही यदि आत्म तृप्ति हो जाती तो संभवतः यह प्रश्न उतना महत्त्वपूर्ण न होता जितना लोगों के सामने है। पूर्ण आनंद वह है जहाँ विकृति न हो। किसी तरह की आशंका अभाव या परेशानी न उठानी पड़ती हों। स्वाभाविक जीवन में जो आनंद मिल रहा है, उसमें हमारा अभ्यास बन गया है इसलिए वह अनुचित हो तो भी वैसा नहीं लगता। आनंद से शुद्धतम आनंद प्राप्ति के लिए दृष्टिकोण परिमार्जन करने की आवश्यकता अनुभव की जाती है। लौकिक आनंद सिद्धांत नहीं है। इससे जीवन का उद्देश्य पूरा नहीं होता। विचार बुद्धि तर्क विवेक की जो साधारण तथा असामान्य शक्तियों मनुष्य को प्राप्त होती हैं ये केवल भौतिक सुखों के अर्जन में ही लगी रहें तो उसमें कुछ अनोखापन नहीं।

जीवन दीपक बुझने के पूर्व क्या हमने अपने आपको पहचान लिया है कि हम कौन हैं”? इस प्रश्न का सुलझ जाना ही तो सबसे बड़ी बुद्धिमानी है। आत्मज्ञान आनंद का मूल है। इस विषय में अज्ञान बना रहा तो लौकिक जीवन में ही भटकते रहना पड़ेगा सिद्धि आत्मा की शरण में ही जाने से मिल सकती है यह बात दृष्टिकोण बदल देने से भली भाँति मालूम पड़ जाती है हम जो प्रतिदिन आनंद प्राप्ति के साधनों में परिवर्तन और प्रयोग किया करते है उससे भी यह स्पष्ट है कि हमें थोड़े आनंद की अपेक्षा अधिक शुद्ध और पूर्ण आनंद की तलाश है।

चिर आनंद अक्षय, आनंद लौकिक जीवन में उपलब्ध नहीं है। तब फिर पारलौकिक जीवन की बात सामने आती है और आत्मा परमात्मा पर भी ध्यान जमने लगता हैं। यह सिद्धि भगवान की शरण में जाने से ही मिल सकती है फिर भी लोगों की समझ में यह बात नहीं आती और वे लौकिक सुखों में ही आसक्त बने रहते है, क्योंकि हमारा दृष्टिकोण जैसा बन गया है उसमें कुछ परिवर्तन नहीं करना चाहते।

सूर्य प्रतिदिन अपने उसी क्रम से निकलता है उसके प्रति हमारा दृष्टिकोण प्रतिदिन उगते रहने वाले सूर्य जैसा ही होता है, किंतु यदि अपना दृष्टिकोण प्रतिदिन उगते रहने वाले सूर्य जैसा ही होता है किंतु यदि अपना दृष्टिकोण बदलें और विराट जगत के महान् क्रियाशील शक्तितत्त्व के रूप में उस सूर्य का चिंतन करें तो वह महाप्राण अनेक विचित्रताओं से संयुक्त और जीवन दाता समझ में आयेगा। दृष्टिकोण के बदलती है और अधिक आनंद की ओर अग्रसर होने लगते है। दैनिक जीवन में ऐसी अनेकों बातें आती है जो यों सामान्य-सी लगती है किंतु वे अपने भीतर बहुत बड़ा अनोखापन छिपाये होती है।

हमारा दृष्टिकोण बोधक न होकर उथला, गहराई तक न जाने वाला होता है इसलिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण वस्तुओं को छोड़ जाते है और केवल उन्हीं सुखों के चिंतन में लगे रहते है जो स्थूल प्रयोग में आ चुके होते है। दृष्टिकोण बदलता है तो सारी चीजें बदली नजर आती है। दृष्टिकोण बदल जायेगा तो सर्वत्र आनंद ही बिखरा दिखाई देगा। कहावत भी है नजरें तेरी बदली तो नजारे बदल गये किश्ती ने मोड़ा रुख तो किनारे बदल गये। दृष्टिकोण बदलते ही वाल्मीकि का डाकू से संत बन जाना, कामुक राम बोला से संत तुलसी बन जाना अंगुली काटने वाले अंगुलिमाल से बौद्ध भिक्षु बन जाना, आम्रपाली वेश्या से भिक्षुणी बनकर बौद्ध धर्म का प्रचार करना, बैरिस्टर गाँधी से महात्मा गाँधी बापू बन जाना इस तथ्य के प्रत्यक्ष प्रमाण है कि यदि दृष्टिकोण बदलने के लिए किसी एक स्फुल्लिंग का स्पर्श किसी माध्यम से हो जाय तो व्यक्ति का कायाकल्प हो जाता है।


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