अपरिग्रही का वैभव

March 1995

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सम्राट चक्कवेण अपनी न्यायकारिता और प्रजावत्सलता के लिए विश्व विख्यात रहे हो से बात नहीं उनकी ख्याति का प्रमुख कारण यह था कि वे सम्राट होकर भी अपनी आजीविका अपने परिश्रम से कमाते थे।

यद्यपि उनके राज्य का विस्तार दूर-दूर तक था। करोड़ों स्वर्ण मुद्रायें कर में आती थी। करोड़ों स्वर्ण मुद्रायें कर में आती थी। किंतु वह सब राज व्यय में प्रयुक्त होती थी। अपने आहार वस्त्र ओर आवश्यकताओं का प्रबंध वे आप करते थे। कृषि योग्य भूमि उनके अधिकार में थी। अपनी आजीविका के लिए सम्राट साम्राज्ञी स्वयं कृषि करते थे। उनका सामान्य स्वयं कृषि करते थे। उनका सामान्य स्वयं कृषि करते थे। उनका सामान्य जीवन विशुद्ध कृषक का था। 6 घण्टे उसमें लगाते थे, इससे बचा हुआ समय राजकार्यों पर।

अपने परिश्रम से मनुष्य आजीविका भर कमा सकता है। परिग्रह तो तब होता है, जब मनुष्य परिश्रम करे कम और आवश्यकताओं का काई अंत न हो। लोभ लालच वासनाएँ और तृष्णाएँ उनसे कोसों दूर थी। इसलिए अर्थ संचय की उन्हें कभी आवश्यकता भी नहीं पड़ी।

अपने हाथ से उत्पन्न किया हुआ अन्न खाने के कारण उनकी शक्ति और स्वाभिमान का कोई अंत नहीं अपने खेतों से उत्पन्न कपास से बनी वस्त्र बुनती वही दोनों के पहनने के काम आते। परिश्रम का जीवन और कृत्रिमता से विरक्ति के कारण ही दोनों के पहिनने के काम आते। परिश्रम का जीवन और कृत्रिमता से विरक्ति के कारण ही दोनों में विलक्षण तेजस्विता थी।

यथा राजा-तथा प्रजा, मार्गदर्शक उसे ही तो कहते हैं। जिसके चरण चिह्नों का सारी जनता अनुसरण करती हो। जो तेजस्विता सम्राट के जीवन में थी, वही सभासदों पदाधिकारियों और संपूर्ण प्रजा के जीवन में भी थी। किसी को कोई अभाव न था। कहीं दैन्यता न थी रोग और शोक इस परिश्रमी और स्वावलंबी राज्य में कभी प्रवेश नहीं पा सकें।

घटनाएँ न हो तो इतिहास का निर्माण कैसे हो? इतिहास न हो तो पीढ़ियाँ प्रेरणाएँ कहाँ से ग्रहण करें। एक दिन सम्राट के जीवन में भी अग्नि परीक्षा का दिन आ ही गया।

प्रजा की स्थिति जानने के लिए नृपति प्रतिवर्ष राजकीय समारोह आयोजित किया करते थे। अब तक उसमें पुरुष ही सम्मिलित हुआ करते थे। राजनायकों के माध्यम से राज्य की विदुषी महिलाओं हुआ करते थे। राजनायकों के माध्यम से राज्य की विदुषी महिलाओं ने अपना संदेश भेजकर पूछा क्या स्त्रियों को परिस्थितियाँ अवगत कराने और सार्वजनिक समस्याओं में भाग लेने का अधिकार नहीं है? यदि है तो राज्य की आधी प्रजा को उनके अधिकार से वंचित रखना कहाँ का न्याय है?

बात उचित थी मानी गई। सत्य बात को स्वीकार करने में सम्राट ने अभी तक कभी भूल न की थीं। इसीलिए राज्य का एक भी नागरिक उनका विरोध नहीं कर सकता था निश्चय यही हुआ कि सम्मेलन में महिलाएँ भी भाग लेंगी। उनके शिविर स्वतंत्र होंगे। जिनका संचालन स्वयं महारानी करेगी। इस समाचार से स्त्रियों को बड़ी प्रसन्नता हुईं। सम्मेलन में भाग लेने के लिए वह भी तैयारी में जुट गई।

अंतःपुर में महिलाओं का निजी सम्मेलन हुआ। उसमें परस्पर हितों की चर्चा भी हुई। किंतु स्वभाववश वे सब अपनी मानसिक दुर्बलता भी व्यक्त किए बिना न रह सकी। महारानी को अत्यंत सादे वस्त्र और आभूषण विहीन देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ। उन्होंने महारानी को उसके लिए कुछ ऐसा व्यंग भाव भी दर्शाया जिसे सहन कर सकना उनके लिए संभव न हुआ। उन सब ने कहा- “हम सब आभूषण पहने और राजमाता की वेशभूषा एक ग्रामीण की तरह हो, यह राज्य के लिए अपशकुन जैसा हैं स्त्रियों का शिविर इसी चर्चा के साथ समाप्त हो गया।

अपशकुन अब तक न था, अब हो गया। दुर्बलता का एक छोटा से छिद्र भी मनुष्य के पतन के लिए काफी है। वह दुर्बलता महारानी के मन में प्रवेश कर गई। उस दिन अवकाश पाकर उन्होंने सम्राट च्क्कवेण से महिलाओं द्वारा चर्चित सारी बात कह सुनाई। राजा ने बहुतेरा समझाया पर महारानी के मन में आभूषणों की लिप्सा ने ऐसा तीव्र प्रभाव डाला था। कि वे अपने हठ से एक इंच भी मुड़ने के लिए तैयार न हुई।

ऐसी दुर्बलताएँ मनुष्य जीवन में स्वाभाविक है, पर सामान्य मनुष्य उन्हें बहुत बढ़ा चढ़ा कर देखने लगते है। इसलिए एक ही दुर्बलता से अनेक बुराइयों के द्वार खुलते चले जाते है। महाराज चक्कवेण इस बात को समझाते थे। इसी कारण उन्होंने कोई बात शीघ्रता में नहीं की। ऐसे समय में मनुष्य की अपनी स्वार्थ वृत्ति या कामुकता आदर्शवादियों को भी पथभ्रष्ट कर देती है। इसीलिए चक्कवेण ने आज तक कोई भी कार्य सकाम दृष्टि से नहीं किया था। निष्काम कर्म योग का पालन करने से ईश्वर प्राप्ति का मार्ग खुलता है। क्योंकि निष्काम कर्म करने से सेवा संयम और सदाचार की जड़ें गहरी होती चली जाती है। चक्कवेण अपनी आजीविका की दृष्टि से जहाँ प्रजा से निष्काम थे वहाँ अपनी पत्नी के लिए भी उनकी निष्कामता में कोई अंतर नहीं आया था।

उन्होंने समझाया प्रजा से और कर लेकर अपने खर्च में नहीं लगाया जा सकता और अपनी कमाई इतनी नहीं है कि आभूषण बनवाई जा सके। इसलिए अपनी इच्छा पर पुनर्विचार कर सकें तो अच्छा है। इन बातों का रानी पर कोई प्रभाव नहीं हुआ। वह अपनी माँग पर दृढ़ रहीं।

चक्करवेण ने सचिव को बुलाया और कहा-लंकाधिपति रावण मेरे मित्र है तुम उनके पास जाओ और महारानी के लिए आभूषण बन सकें उतना स्वर्ण उनके पास से ले आओ।” सचिव आज्ञा शिरोधार्य करके लंका की ओर चल पड़ा रावण से उसने सब समाचार कह सुनायें। आज तक चक्कवेण ने रावण के सामने कभी सिर नहीं झुकाया था। अहंकारी रावण के लिए यह सुनहरा अवसर था। उसने सचिव से कहा-निः संदेह हम तुम्हारे राजा के लिए अपने राजकोष के द्वार खोल देंगे, किंतु अभी नहीं तुम जाओ और मुझसे याचना करें। जितनी स्वर्ण राशि की आवश्यकता होगी हम सहर्ष प्रदान करेंगे।

सचिव को महारानी की आकस्मिक लोभ वृत्ति पर जितना दुःख नहीं हुआ था, उतना दुःख उन्हें अपने सम्राट के प्रति इन दंभपूर्ण वाक्यों को सुनकर हुआ। पर उसे मालूम था, महाराज को अपने लिए किसी वस्तु की इच्छा नहीं है वे महारानी को ही अपनी प्रजा मानकर उनके हित का संरक्षण करना चाहेंगे इसलिए कहीं ऐसा न हो याचना के लिए वे स्वयं चल पड़े स्वाभिमानी राज्य का नागरिक होकर भला मैं यह कैसे सहन कर सकूँगा।

सचिव समुद्र तट पर आए। उन्होंने समुद्र की मिट्ठी से एक कृत्रिम किंतु कलाकारिता पूर्ण लंका बनाई। फिर लेकर लंका गए और रावण को वहाँ लाकर दिखाया तो यह रही तुम्हारी लंका अभी चाहूँ तो इसे समुद्र में डुबा दूँ अथवा तोड़ फोड़ कर नष्ट कर दूँ देख लो यह लंका तुम्हारी ही है न।

रावण ने ध्यान से देखा था तो घरौंदा पर बिलकुल लंका जैसा सचिव की कला की प्रशंसा करते हुए रावण ठहाका लगा कर हँसा और बोला-सचिव! इस लंका के टूटने फूटने या डूबने से भला मेरा क्या बिगड़ेगा?

प्रत्यक्ष देखना चाहते हों तो लो देखो सचिव ने अपने मन को एकाग्र करते हुए घरौंदेनुमा लंका के कँगूरे तोड़ डाले। इनके टूटते हुए जोर का शब्द हुआ सभी ने देखा रावण की लंका कँगूरों से विहीन हो चुकी है। उन्हीं कँगूरों से जिन पर रावण अपने मस्तकों की तरह गर्व करता था। इस चमत्कार को देखकर सभी हतप्रभ थे। रावण स्वयं आश्चर्यचकित होते हुए बोला इस तरह तो सब कुछ नष्ट हो जाएगा।

उसके आश्चर्य का समाधान करते हुए सचिव ने स्वाभिमानपूर्वक कहा-क्या तुम इतना भी नहीं समझ पाए कि चक्कवेण के राज्य का प्रत्येक नागरिक अपने कठोर परिश्रम की बौद्धिक और आत्मिक प्रतिभाएँ बहुत तीक्ष्ण है। यह लंकाकृति उसी का प्रमाण है। तुम नहीं समझे पर मैंने एक दृष्टि में जहाँ तुम्हारे वैभव का मूल्यांकन कर लिया है वहाँ तुम्हारी प्रत्येक दुर्बलता का भी। तुम्हें यही दिखाने लाया था, यदि तुमने चक्कवेण को नीचा दिखाना चाहा तो हम राज्य के नागरिक तुम्हें एक दिन में नष्ट कर देंगे

सचिव की बात सुनकर रावण सारी स्थिति समझ गया। जिस राज्य की प्रजा इतनी आत्मबल संपन्न हो वहाँ के सम्राट से मित्रता के बंधन में बँधे ही रहना चाहिए यह सोचकर रावण ने स्वर्ण राशि सहर्ष प्रदान कर दी।

किंतु सचिव जब तक राजधानी पहुँचे महारानी अपनी भूल स्वीकार कर चुकी थी। उन्होंने वह स्वर्ण राशि पुनः रावण के पास वापस भिजवा दीं। अपनी इस भूल सुधार से उन्होंने प्रजा को लोभ, लालच के त्रुटिपूर्ण प्रोत्साहन से बचा लिया।


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