शांति मन की एक स्थिति का नाम

March 1995

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मन के पूरी तरह स्वस्थ एवं संतुष्ट रहने की स्थिति को ही शांति कहा जाता है इसी स्थिति को अध्यात्म मनोविज्ञान में मन की निरुद्ध अवस्था कहा गया हैं। वर्तमान मनोविज्ञान इसी को इण्टीग्रेटेड स्टेट ऑफ माइन्ड के नाम से बताता है। जो भी हो हर कोई मानसिक रूप से स्वस्थ व संतुष्ट रहना चाहता है। संभवतः एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिलेगा जिसे अस्वस्थता और असंतुष्टि भली लगती हों।

सभी के द्वारा इसे पाने की इच्छा करने पर भी न पा सकना एक ही बात को सिद्ध करता है कि पाने का जो रास्ता अपनाया गया है उसमें कहीं न कहीं भूल जरूर है अन्यथा इसकी प्राप्ति अवश्य हो गई होती। डॉ. राधाकृष्णन ने अपनी रचना प्रिंसिपल उपनिषद् में सारे प्रयासों व क्रिया–कलापों को दो वर्गों में विभाजित किया है। पहला है बाहर की वस्तुओं स्थानों में इसकी ढूँढ़ खोज। दूसरी है अपने अंदर ही कहीं ऐसी स्थिति की तलाश उन्होंने एक चीज और बताई है वह यह कि इस ढूँढ़ खोज में लगे लोगों में कुछ तो बिना जाने समझे इसे खोज रहें है कुछ ऐसे है जो जागरूक होकर प्रयास कर रहे है। जागरूक होकर प्रयास करने वालों में भी अधिकतर ऐसे है जो भूल भुलैया में भटक गये है वनवासी समझते हैं कि शहर में शांति है जबकि शहर वाले वन में शांति की कल्पना में खोए रहते है। यह विडंबना ही है कि गृहस्थ समझाता है कि पत्नी बच्चे घर परिवार की जिम्मेदारियाँ न होने के कारण साधू शांति से होगा, जबकि साधु समझता है आराम से बने बनाए पकवान मिष्ठान खाने वाला सर्दी गर्मी बरसात से सुरक्षित रहता हुआ गृहस्थ निश्चित ही शांति में होगा। इसी तरह काम करने वाला विश्राम में आनंद की कल्पना करता है बैठे ठाले रहने वालों की अपनी स्थिति उबाऊ लगती है और इससे छुटकारा पाकर काम करना उन्हें भला लगता है।

वस्तुतः शांति की खोज इधर उधर भटकने वस्तु स्थान और परिस्थितियों के बदलने से मिले यह असम्भव है। जो चीज जहाँ है ही नहीं वहाँ मिलेगी कैसे? इसे न तो एकांत में पाया जा सकता है न समाज के सुविधा साधनों में पाया जा सकता है न समाज के सुविधा साधनों में। यह तो मन की एक अवस्था है। इसका पाना तभी संभव है जब मन उस अवस्था में पहुँचें।

वर्तमान मनोविज्ञान मन की मुख्य दशाएँ बतलाता है पहले अस्त व्यस्त और खंडित दूसरी इन्टीग्रेटेट। पहली में दुःख परेशानियाँ मनोरोगों आदि का अनुभव होता दूसरी में शांति सुख प्रसन्नता का। अध्यात्म-मनोविज्ञान में इसे और बढ़िया तरह से समझाया गया है। इसके अनुसार मन की पाँच अवस्थाएँ है। क्षिप्त मूढ विक्षिप्त, एकाग्र निरुद्ध।

पहली में मन खूब चंचल रहता है पर ज्यादा परेशानी नहीं होती है। यह अवस्था बच्चों के मन की है जो थोड़ी देर में सुखी थोड़ी देर में दुःखी प्रतीत होती है आज का मनोविज्ञान इसे आसिलेशन ऑफ अटेन्सन कहता है दूसरी में जड़ता रहती है न कुछ करने का मन करता है न सोचने का तीसरी स्थिति औसत आदमी की है जो कभी तो अपने को शांत और अच्छा महसूस करता है। चौथी अवस्था वह है जिसमें वैज्ञानिक दार्शनिक मनीषी जीते है यह मन की स्थिरता की दशा है। इसमें पूरी तरह से शांति का अनुभव तो नहीं होता है पर उद्विग्नता हताशा का भी एहसास नहीं होता मन सीधी पटरी पर चलने लगता है बाहरी परिस्थितियों से बिना परेशान हुए काम करने की योग्यताओं जाती है पाँचवीं अवस्था ऐसी है जिसे पूर्ण शांति की अवस्था प्रमाणित किया गया है। इसमें मन की स्थिरता के साथ अंतःकरण के भाव भी जुड़ जाते है। एकाग्र अवस्था में उद्विग्नता परेशानी तो नहीं रहती पर कोई आनंद भी नहीं मिलता। बस ऐसा ही कुछ अनुभव होता है जैसे कोई सही स्थिति में मशीन चल रही हो। उसमें कोई खराबी न हों। एकाग्रता की दशा में जहाँ मन की बागडोर बुद्धि के हाथों रहती है वहीं शांति की दशा में अंतःकरण के उच्च भावों के हाथ में इसी कारण ऐसी स्थिति में आनंद का अनुभव होता है।

सही माने में यदि हम इसे पाना चाहें तो हमें अपने अंदर व्यापक फेर बदल करनी होगी। हमें अपनी दुर्दशाओं इंद्रिय लिप्साओं मन की वासनाओं संकीर्णताओं से ऊपर उठना होगा। इसके लिए जरूरी है जागरूक होना। सही कहा जाय, तो हमारा अधिकांश समय बेहोशी में कटता है ऐसी बेहोशी जिसमें कुछ करने को जी नहीं करता बस जिस किसी तरह दिन काटे जाते है।

शांति पाने के लिए जो फेर बदल जरूरी है उसमें वासनाओं और कामनाओं को भावनाओं में बदलना होगा। इसका मतलब है कि अपने काम का दायरा शरीर और कुटुंबियों से बड़ा करना होगा इससे हृदय की क्षुद्रता विशालता में बदलेगी शांति के बंद दरवाजे खुलेंगे जिससे उसका अजस्र प्रवाह सहज ही आ सकेगा।

आस्कर ब्राउन “इण्टीग्रेशन ऑफ माइन्ड में कहते है किसी भी काम में उच्च और व्यापक भावनाओं तथा पूर्ण मनोयोग घोल देने पर मन के सारे द्वन्द्व समाप्त होते हैं और वह शांत होता चला जाता है इस प्रक्रिया में मन विक्षिप्तता से उठकर एकाग्र होता है और एकाग्रता से बढ़कर निरुद्ध होता है छोटा दीखते हुए भी प्रभाव की दृष्टि से यह एक बड़ा प्रयोग है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति काम करते हुए उसी तरह शांत और स्थित बना रहता है जैसे तेजी से घूमता हुआ लट्टू। गीताकार के शब्दों में जिस प्रकार सारी नदियों के जल को अपने अंदर लेता हुआ पुरुष सारे कर्तव्य कर्मों को करता हुआ परम शांति को प्राप्त होता है। यही है यथार्थ शांति


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