प्रगति का एक मात्र अवलंबन “अध्यात्म”

March 1995

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भारतीय जन-जीवन का उज्ज्वल अतीत इस कारण शानदार रहा कि तब आदर्शवादिता को विचारणा एवं क्रिया में महत्त्वपूर्ण स्थान मिलता था। सोचने का स्तर उदारता एवं विवेकशीलता से और क्रिया का स्तर लोकहित एवं आदर्शों की रक्षा से भरा पूरा रहता था। जहाँ इस रीति-नीति को प्रश्रय मिलेगा वहाँ सुख-शांति का, प्रगति समृद्धि का बाहुल्य रहना स्वाभाविक है। इस आधार को जब कभी भुलाया जाएगा उपेक्षित किया जाएगा। तभी पतन एवं संकट की विपन्नताएँ इकट्ठी होती चली जाएँगी। साधनों की दृष्टि से हम पहले की अपेक्षा बहुत अधिक बढ़े-चढ़ें हैं अतएव हमें पहले से कहीं ज्यादा शांत-प्रसन्न संपन्न एवं सफल होना चाहिए। लेकिन हो ठीक उलटा रहा है। इसका कारण हमारी विचारणा में घटियापन आ जाने से क्रियाओं का अवांछनीय हो जाना ही है। इस स्थिति को जब तक न बदला जाएगा तक अन्य छूट–पुट कोशिशें मन बहलाव की बाल क्रीड़ाएं भर सिद्ध होती रहेंगी।

अध्यात्म का समस्त कलेवर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए विनिर्मित हुआ है कि मनुष्य आंतरिक दृष्टि से-भावनात्मक स्तर पर अपनी उत्कृष्टता सुरक्षित रखने एवं बढ़ा सकने में समर्थ बना रहे और बाह्य दृष्टि से-क्रिया स्तर पर आदर्शवादिता भरे संयमित, मर्यादित एवं बढ़ा सकने में समर्थ बना रहे और बाह्य दृष्टि से-क्रिया स्तर पर आदर्शवादिता भरे संयमित, मर्यादित एवं बढ़ा सकने में समर्थ बना रहे और बाह्य दृष्टि से-क्रिया स्तर पर आदर्शवादिता भरे संयमित, मर्यादित एवं लोक मंगल के लिए गतिविधियाँ अपनाए रखने की तत्परता बरते। हिन्दू साइकोलॉजी नामक सुप्रसिद्ध ग्रंथ के लेखक स्वामी अखिलानन्द के अनुसार पूजा, उपासना कथा, वार्ता तीर्थ मंदिर, व्रत, अनुष्ठान जप-तप तथा नियम-संयम आदि की आध्यात्मिक क्रियाओं के आधार पर यदि बारीकी से नजर डाली जाय तो एक ही निष्कर्ष पर पहुँचना कि इन मनोवैज्ञानिक क्रिया–कलापों का प्रयोग व्यक्ति की अंतरंग उत्कृष्टता का अभिवर्धन करना है। आस्तिकता का मतलब है, ईश्वर विश्वास। ईश्वर विश्वास का अर्थ है-एक ऐसी न्यायकारी सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार करना जो सर्वव्यापी है और कर्मफल के अनुरूप हमें गिरने एवं उठने का अवसर प्रस्तुत करती है। यदि यह विश्वास कोई सच्चे मन से कर ले तो उसकी विवेक बुद्धि कुकर्म की दिशा में एक कदम भी न बढ़ने देगी। हम आग नहीं छूते, जहर नहीं खाते तो कोई कारण नहीं कि सर्वव्यापी कर्मफल के अनुरूप सुख-दुःख देने वाली ईश्वरीय विधि व्यवस्था तोड़ने और अनाचार अपनाने का दुस्साहस करें। आस्तिकता हमें इसी निष्कर्ष पर पहुँचाती है। वह हमें विवश करत ही है कि यदि सुख शांति के लिए तनिक भी आकर्षण है तो सत्प्रवृत्तियों एवं सद्भावनाओं का ही आश्रय ग्रहण करना चाहिए। थोड़े में आस्तिकता का तत्त्वज्ञान हमारे अंतरंग में उत्कृष्टता एवं बहिरंग में आदर्शवादिता की अधिकाधिक मात्रा का समावेश करने वाला अंतः विश्वास ही कहा जा सकता है।

इसी केन्द्र बिंदु पर आस्तिकता का समस्त दार्शनिक एवं प्रयोगात्मक आधार खड़ा किया गया है। समस्त ग्रंथों में विविध-विधि कथा उपाख्यानों द्वारा इसी का प्रतिपादन हैं। धार्मिक कर्मकाण्डों के द्वारा इसी आस्था को हृदयंगम कराने का मनोवैज्ञानिक उपचार कहा जा सकता है। योगशास्त्र का प्रयोजन कुसंस्कारों एवं लिप्साओं से संघर्ष करके ऊर्ध्वगामी मनस्विता को प्रखर बनाना है। मनुष्य ईश्वर का पुत्र है, उसमें अपने पिता की समस्त विभूतियाँ एवं महत्ताएँ बीज रूप से विद्यमान् हैं। साधना का प्रयोजन अंतःकरण पर चढ़े हुए उन मल, आवरणों, विक्षेपों को हटाना है, जो हमें देवत्व से वंचित कर नर पशु की स्थिति में डाले हुए हैं। तपश्चर्या इसी मलिनता को स्वच्छ करती और इसी मलिनता को स्वच्छ करती और प्रसुप्त ऋद्धि सिद्धियों को जाग्रत करके दैवी वरदान की तरह लघु को महान् बना देती है।

आस्तिकता और उपासना का सारा आधार यही है। धार्मिकता का कलेवर कितना ही बड़ा क्यों न हो, बीज मूल की तरह तथ्य इतना ही है कि व्यक्ति अपनी महान् महत्ता को समझे उसी के अनुरूप सोच और गतिविधियाँ अपनाए। व्यक्ति और समाज की प्रगति एवं सुख शांति का आधार इतना ही है। उत्थान और पतन का सौभाग्य दुर्भाग्य इन्हीं तथ्यों पर पूर्णतया निर्भर है। सद्गुणी, सदाचारी, उदार और जनकल्याण की भावनाओं से ओत-प्रोत मनुष्य ही सच्चा मनुष्य है। देवता उसी को वहाँ स्वर्ग अनायास ही अवतरित होकर रहता है। परिस्थितिवश कुछ कष्टकर स्थितियाँ भी सामने आ जाएँ तो भी उच्च दृष्टिकोण रखने वाले उनका कोई बहुत बुरा प्रभाव उत्पन्न नहीं होने देते बल्कि अपनी सत्प्रवृत्तियों को और भी अधिक उत्तमता से प्रस्तुत करने का एक ईश्वरीय परीक्षा का सौभाग्य सुअवसर मानते हैं और अपनी प्रखरता के साथ प्रस्तुत करते है इस प्रकार सामान्य लोगों के लिए जो घटनाएँ विपत्ति जैसी लगती है, वे ही अध्यात्मवादी के लिए अधिक प्रखर एवं यशस्वी होने की ईश्वरीय अनुकंपा सिद्ध होती है। इस बात में दो मत नहीं कि मनुष्य जाति का सारा सौभाग्य अध्यात्म सूर्य से प्रभावित होता है। इसकी विमुखता घोर अंधकार और आपत्ति भरी अस्त-व्यस्तता ही उत्पन्न करती है। आज की विपन्न परिस्थितियों का तात्त्विक कारण अध्यात्म से हमारी विमुखता ही है। उच्च आदर्शों से विमुख होकर संकीर्ण स्वार्थपरता अपनाने वालों की सदा ही दुर्गति होती रही है। प्रकृति के इस अटल नियम को कोई चुनौती नहीं दे सकता निकृष्ट स्तर के व्यक्ति कभी दे सकता निकृष्ट स्तर के व्यक्ति कभी शांति से न रह सकेंगे। उनके बाहुल्य वाला समाज कभी भी समुन्नत न बन सकेगा।

“आइडियलिस्टिक व्यू ऑफ लाइफ” नामक कृति के रचनाकार प्रख्यात दार्शनिक डॉ. राधाकृष्णन के शब्दों में कहें तो यदि हम व्यक्ति और समाज के उत्कर्ष की बात सोचते हों तो हमें उसके मूल आधार ‘अध्यात्म’ की ओर ध्यान देना होगा और उसको स्वस्थ स्थिति में लाकर जनमानस में गहराई तक प्रतिष्ठित करने के लिए घोर प्रयत्न करना होगा यदि इस ओर ध्यान न दिया गया तो राजनीतिक सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक, वैज्ञानिक क्षेत्रों में कितने ही कुछ भी प्रयत्न किए जाते रहें, उनका तनिक प्रयत्न किए जाते रहें उनका तनिक भी संतोषजनक परिणाम उत्पन्न होगा। कोई योजना कितनी ही उत्तम क्यों न हो उसे चलाने वाले कार्यान्वित करने वाले उत्कृष्ट व्यक्तित्व और आदर्शवादी गतिविधियाँ अपनाने वाले न होने पर परिणाम संतोषजनक न निकलेगा। ओछे और संकीर्ण चिंतन वाले लोग जो भी कार्य हाथ में लेंगे उसे अपने दुर्गुणों के कारण कलुषित कर देंगे और वही लाभदायक की जगह हानिकारक बन जाएगा। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण हम हर क्षेत्र में देखते हैं। उच्च आदर्शों के लिए बनी हुई संस्थाएँ आज पद लिप्सा और धन लोभ के कारण संघर्ष का अखाड़ा बनी हुई हैं।

मानव जीवन का प्रत्येक क्षेत्र आज कंटकाकीर्ण और असुविधाओं से भरा हुआ है। जो आधार हमें प्रगति और प्रसन्नता में सहायक सिद्ध होने चाहिए थे, वे ही हमें शोक और संताप देकर दुखों में वृद्धि कर रहे हैं शरीर रुग्ण मन अशान्त, परिवार उद्विग्न, समाज विक्षुब्ध, धन अपर्याप्त, विज्ञान घातक, राजनीति विस्फोटक, धर्म जंजाल, शिक्षा अनुपयुक्त किसी भी दिशा में दृष्टिपात करें, सर्वत्र उलझन भरी विभीषिकाएँ ही दिखती है। लगता है सुख शांति के सारे आधार उलट कर दुःख दैन्य के कारण बन गए हैं। इस विडंबना का एक मात्र कारण अध्यात्म की उपेक्षा है। अध्यात्म मानव जीवन का प्राण है, उसे जिस क्षेत्र से भी तिरस्कृत, बहिष्कृत किया जाएगा उसी में विपन्नता हो जाएगी। जल के बिना मछली नहीं जी सकती मानवीय शांति भी अध्यात्म की उपेक्षा करके जीवित नहीं रह सकती। आज की श्मशान जैसी सर्वव्यापी जलन का एक मात्र कारण यही है।

अर्थशास्त्री प्रो. जे. एस. बेन का अपने शोध निबंध ”रिथिकिंग आन इकोनॉमिक पालिसीज”में कहना है कि आर्थिक क्षेत्र में उत्पादन काफी बढ़ा है। पैसा पहले की अपेक्षा कम नहीं अधिक है। लेकिन इतने पर भी हम आर्थिक तंगी चौगुनी, सौगुनी अनुभव कर रहें हैं। कारण यह है अपव्ययी और विलासी बनते चले जा रहें हैं और व्यापारिक क्षेत्र में जमाखोरी, मुनाफाखोरी तस्करी मिलावट, धोखाधड़ी पनप रही है। उत्पादन बढ़ता है पर महंगाई नहीं घटती। कमाई बढ़ती है, पर तंगी दूर नहीं होती। इस गोरखधन्धे के पीछे उत्पादक, उपभोक्ता और व्यापारी वितरकों की ओछी दृष्टि ही झाँकती है। लोग उचित आवश्यकता पूर्ण करने भर के लिए उचित श्रम एवं संग्रह करने का आदर्श अपना लें तो जितनी कुछ अर्थ व्यवस्था आज उपलब्ध है, उसी में बड़े संतोष, आनंद और हर्षोल्लास के साथ सारे समाज का काम चल सकता है और वास्तविक प्रगति के सभी अवरुद्ध मार्ग सहज ही खुल सकते है।

बढ़ते हुए अपराधों की संख्या आर्थिक नहीं अध्यात्म के अभाव में बढ़ रही है। नीति, धर्म और सदाचार का बाँध टूट जाए, व्यक्ति, ईश्वर परलोक और कर्मफल की सुनिश्चितता पर विश्वास न करे तो फिर अनीति अपनाकर तत्काल लाभ कोई नहीं बचा सकता फिर वह राजदंड और समाज दंड से बचने की हजारों तरकीबें ढूँढ़ निकालेगा और गुप्त या प्रकट रूप से परिस्थिति के अनुसार अपनी योजनानुसार दुष्कर्म करता रहेगा। किसी भी धूर्त और सूझ-बूझ वाले व्यक्ति के लिए प्रलोभन अथवा आतंक की स्थिति उत्पन्न का शासन अथवा समाज में दंड से बहुत ही सरलतापूर्वक बचते हुए अपराधपूर्ण दुष्कर्म करते रह सकना सरल है। आज आध्यात्मिकता का अभाव ही है कि दुष्ट-दुराचारी दिन दूने रात चौगुने बढ़ते चले जा रहें है।

गिरते हुए स्वास्थ्य का एक मात्र कारण असंयम है। जब तक विलासिता और वासना के प्रति वर्तमान आकर्षण बना रहेगा, जब तक आहार-विहार की मर्यादाओं को तोड़कर अप्राकृतिक रीति नीति को अपनाए रहा जाएगा, सार्वजनिक स्वास्थ्य की स्थिति निरंतर गिरती ही चली जाएगी। औषधि उपचार स्वास्थ्य संरक्षण एवं संवर्धन की भ्रांत धारण मृगतृष्णा की तरह है। उससे मन बहलाव तो हो सकता है पर प्रयोजन की पूर्ति संभव नहीं। अव्यवस्थाजन्य कष्ट बढ़ते ही जाएँगे, बीमारियों का प्रकोप और प्रवाह दिन-दिन प्रबल ही होता चला जाएगा।

मनुष्य जब कभी सच्चे मन से स्वास्थ्य की कामना करेगा और सशक्त शरीर का महत्त्व समझेगा तब उसे अध्यात्म की ही शरण में आना पड़ेगा और संयम-नियमितता और प्रकृति के अनुसरण का अवलंबन प्रकृति के अनुसरण का अवलंबन लेना पड़ेगा वर्तमान अस्त-व्यस्त और अप्राकृतिक रहन-सहन अपनाए रहा गया तो जन स्वास्थ्य में निरंतर गिरावट आती चली जाएगी और अंततः जीवित रहना एक भार मात्र बन जाएगा। इस दुष्परिणाम से उबरने का उपाय चिकित्सा विज्ञान की प्रगति नहीं संयम शिक्षा ही है, जिसे अध्यात्म की शरण में गए बिना पा सकना असंभव है।

परिवार एक छोटा समाज है, जिसमें व्यक्ति को उसी तरह जुड़ा रहना पड़ता है जैसा कि शरीर के साथ-साथ पाँव आदि अवयव जुड़े रहते है। संसार के समस्त सुखों की तुलना में पारिवारिक सौहार्द का महत्त्व भारी बैठता है। माता पिता का वात्सल्य पत्नी का प्रेम, भाई-बहिनों का सहयोग जिसे उपलब्ध है यह जिस मूल्य पर मिलती है वह गहन अंतस्तल से निकलने वाला सद्भाव है और इसे वही उपलब्ध कर सकते है जो स्वयं उदार, सहृदय और सेवा भावनाओं से परिपूर्ण है। परिवार में स्वर्गीय वातावरण का सृजन केवल आध्यात्मिकता के आदर्श ही कर सकते हैं। जब वह तथ्य लोगों के अंतःकरणों में प्रतिष्ठापित हो जाएगा तभी यह आशा की जा सकेगी कि गरीब रहते हुए भी छोटे घर-घरौंदे में रहकर व्यक्ति आनंद और उल्लास से भरे दिन बिता सके।

मानसिक शांति और संतुलन का आधार यों लोगों की समझ में धन की बहुलता और परिस्थितियों की अनुकूलता ही माना जाता है, पर असलियत स्थिति संतोष एवं शांति से भरी पूरी पायी जाती है। यदि ऐसा होता तो धनी मानी लोगों की आंतरिक स्थिति संतोष एवं शांति से भरी-पूरी पायी जाती। किंतु देखा इसके प्रतिकूल जाता है। संपन्न लोग बाहर वालों को ही सुखी दिखते है। कोई भीतर से उन्हें देख सके तो पता चलेगा कि वैभव का सदुपयोग न कर सकने की, बुद्धि न होने के कारण वह संपदा उनके लिए अनेक उलझने, चिंताएँ, कुण्ठाएँ, आशंकाएँ और विभीषिकाएँ उत्पन्न करने वाली बनी हुई हैं। बाहर से मित्र दिखने वाले ही भीतर से उनके शत्रु बने हुए है। घात प्रतिघातों ने उनकी मनःस्थिति को विक्षुब्ध किया हुआ है और अति अशांति भरा जीवन वे जी रहे हैं। मानसिक शांति वैभव पर आधारित नहीं है। वह तो सोचने की सही दिशा पर अवलंबित है। जिसे विचारों को क्रम से सजाना सँभालना मोड़ना, बदलना एवं सुधारना आता है केवल वही सुखी, संतुष्ट और हर्षोल्लास भरा जीवन जी सकता है। “द इन्ट्रिग्रिटी ऑफ परसनैलिटी के लेखक मनोवैज्ञानिक स्टोरर एन्थोनी के अनुसार विचार करने की कला अध्यात्म तत्त्वज्ञान का प्रधान अंग है। जिसने इसे सीख लिया उसकी शिक्षा पूर्ण हुई समझी जानी चाहिए।

जिसकी विचार पद्धति व्यवस्थित है। उसे हर स्थिति में आशा उत्साह संतोष संतुलन आनंद उल्लास और उज्ज्वल भविष्य का प्रकाश परिलक्षित होता रहेगा। गरीबी में भी अमीरी का आनंद विचारशील लोग उठाते हैं और अविवेकी लोग अमीरी में भी अभाव और उद्वेग की आग में जलते है। दृष्टिकोण की परिष्कृत, विवेकशीलता लोग उठाते है और अविवेकी लोग अमीरी में भी अभाव और उद्वेग की आग में जलते है। दृष्टिकोण की परिष्कृति, विवेकशीलता और दूरदर्शिता यदि अपने में हो तो मनुष्य अपने को हर अनुभव करता रह सकता है यह मनःस्थिति आध्यात्मिक दृष्टिकोण पर ही निर्भर है। ऐसे व्यक्ति जहाँ भी रहते हैं सुख-शांति के स्वर्गीय वातावरण का सृजन करते है।

समाज में व्यापक रूप से फैली हुई कुरीतियों और अनैतिकताओं ने उसे जर्जर, विसंगठित और दीन-दुर्बल बनाकर रख दिया है ऐसे अशान्त एवं असुरक्षित ही अनुभव करेगा उसे अपने चारों ओर घिरा वातावरण आक्रमणकारी, आशंका भरा और अविश्वस्त ही अनुभव होता रहेगा। समाज में अवांछनीय परंपराएँ चल पड़ें तो उसके सदस्यों का स्तर हर दृष्टि से दयनीय बना रहेगा। अपने समाज में नारी जाति के रहेगा। अपने समाज में नारी जाति के प्रति जो ओछी मान्यता प्रचलित है, उसने आधी जनसंख्या को अविकसित, असमर्थ और असंतुष्ट बनाकर रख दिया हैं जाति पाँति और ऊँच नीच की मान्यताओं ने एक ही जाति को हजारों टुकड़ों में खंड-खंड निष्कर्ष करके इतना दुर्बल बना दिया है कि विदेश शक्तियाँ उतनी आसानी से इतनी बड़ी जाति को लंबे समय तक पद दलित बनाए रह सकी जैसा कि भेड़ों के झुंड पर ग्वाले के लिए भी संभव नहीं होता।

समाज, सुधार के लिए यों न जाने कितनी तरह के आंदोलन चलते रहते और उनकी असफलता और निरर्थकता भी सामने आती रहती है। समाज का बिगाड़ अविवेक और अनौचित्य को अस्वीकार करने के साहस की कमी से हुआ है सुधार उस दिन से आरंभ होगा जिस दिन लोग अनीति और अनौचित्य का प्रतिरोध करने के लिए खड़े हो जाएँगे और यह न देखेंगे कि वह अवांछनीयता कितने दिनों से प्रचलित किसके द्वारा प्रतिपादित और कितनों के द्वारा व्यवहृत हैं। अनौचित्य के विरुद्ध एकाकी लड़ने का शौर्य संभव है यह उपलब्धि जिस दिन अपने लोगों में जड़ जमाने लगे, समझना चाहिए कि समाज सुधार का शुभारंभ हो गया।

कहना न होगा कि सामाजिक वातावरण का उसके सदस्यों पर असाधारण प्रभाव पड़ता है। उत्कृष्ट का निर्माण होता है और फिर ये उत्कृष्ट व्यक्तित्व ही समर्थ समाज की रचना करते है। यदि हमें अपना समाज सुविकसित सभ्य और समर्थ बनाना हो तो उसकी मान्यताओं और गतिविधियों में आध्यात्मिकता का समुचित समावेश करना होगा। यह समावेश ही हमें अपने अतीत की गौरवपूर्ण स्थिति तक पुनः पहुँचा सकने में समर्थ होगा।

राजनीति में आज की गंदगी हर किसी को निराश कर देती है। लगता है स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए अतीत में जो महान् बलिदान हुए थे, वे व्यर्थ चले गए। नित नई योजनाएँ बनाती है और जनता पर कर और ऋण का भार बढ़ता चला जाता है। जिन लाभों के उसे सब्ज बाग दिखाए जाते है, वे अंत तक आकाश कुसुम ही बने रहते है। न देश में प्रगति न विदेश में प्रतिष्ठा। डींगे हाँकने से काम क्या बनना है। खोखलापन कहाँ तक छिपाया जा सकता है। अंग्रेजों के गए लगभग आधी शताब्दी बीत चुकी है इतने समय में युद्ध जर्जरित जापान जर्मनी ब्रिटेन फ्राँस पहले से भी अच्छी स्थिति में जा पहुँचे। अफीमची चीन ने अपना कायाकल्प कर लिया। यह देखकर जहाँ हर्ष मिश्रित आश्चर्य होता है वहाँ अपनी ओर देखकर दुःख भी होता है कि हमारा नेतृत्व अपने संकीर्ण स्वार्थों में किस बुरी तरह उलझा हुआ है भाषा, प्रांत संप्रदाय आदि के संकीर्ण स्वार्थों को प्रमुखता देने की होड़ लगी हुई है।

तथ्य तो यह है कि राजनीति को कूटनीति मात्र बना दिया गया है। उसके साथ जिन आदर्शों का समावेश होना चाहिए कहने सुनने भर के लिए रह गए है। नेता लोग जोड़ तोड़ मिलाकर उल्लू सीधा करने की नीति पर विश्वास करते है देश की उत्साहजनक राजनीतिक स्थिति के लिए तब हमें प्रतीक्षा ही करने पड़ेगी जब तक हर राजनेता के व्यक्तित्व को आदर्शवादिता और उत्कृष्टता की कसौटी पर कसे जाने और खरे उतरने के लिए विवश नहीं कर दिया जाता। आज की राजनीतिक विपन्नता का यही एक मात्र हल है। घोषणा पत्रों में भरी हुई डींगों का जंजाल कुछ प्रयोजन सिद्ध न कर सकेगा। काम विशाल दृष्टिकोण वाले ऊँचे व्यक्तित्वों से चलेगा और यह उत्पादन केवल आध्यात्मिकता के क्षेत्र में ही संभव है। यदि हमारी राजनीति आध्यात्मिक आदर्शों से जुड़ जाय तो स्वराज्य और सतयुग के दृश्य उत्पन्न होने में देर न लगे।

बात राष्ट्र की राजनीति तक ही सीमित नहीं है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में में आध्यात्मिकता का समावेश ही विश्व बंधुत्व और विश्व परिवार की परिस्थितियाँ उत्पन्न करेगा। तब सेना पर होने वाला व्यय शिक्षा पर किया जाएगा। युद्ध की तैयारियों में लगने वाली धन जन एवं बुद्धि की शक्ति बेकार बीमारों गरीबी एवं अनीति के निवारण में लगेगी। संसार में इतनी साधन संपदा मौजूद है कि प्रत्येक व्यक्ति को जीवनयापन कर सकने तथा आनंद उल्लास के साधन प्राप्त कर सकने की सुविधा मिल सके।

गरीबी और अमीरी को सबमें बाँट दिया जाय तो हर एक के हिस्से में पर्याप्त आ जाएगा और उससे संसार का प्रत्येक व्यक्ति रह सकेगा।

जब अनैतिकता एवं असामाजिकता के कारणों का ही निवारण हो जाएगा तो फिर व्यक्ति को अवांछनीय करने एवं अनुपयुक्त सोचने का कोई आधार ही शेष न रह जाएगा। धन की अनावश्यक मात्रा जब संचय करने का अवसर ही न मिले तो कोई क्यों चोरी बेईमानी करेगा। प्रतिस्पर्धा करने और ललचाकर अमीरी भोगने का जब अवसर नहीं है तो वे दुष्प्रवृत्तियाँ जियेगी कैसे?जब आतंक और अनाचार की हर दिशा से भर्त्सना एवं गुण्डागर्दी बढ़ने की कोई गुँजाइश न रहेगी प्रेम संयम, सहयोग, समन्वय, सहिष्णुता और समझौता ही जब मानवीय आचार में सर्वत्र घुल दीखेंगे तो वे प्रवृत्तियाँ जन्मजात संस्कारों के रूप में हर व्यक्ति को मिलेंगी और विघटनात्मक दिशा में व्यय होने वाली शक्तियाँ रचनात्मक प्रयोजनों में संलग्न होकर इस धरती पर स्वर्ग का अवतरण करेंगी।

विज्ञान का नियंत्रण जब विवेक करेगा तो वह बेकारी, गरीबी आलस्य विलासिता एवं आतंक उत्पन्न करने वाला न रहेगा। थोड़े से व्यक्तियों को असीम सुविधाएँ होने का कारण न बनेगा। वरन् केवल उपयोगी आविष्कारों तक सीमित रहकर मानवीय प्रगति में सहायक सिद्ध होगा। आज की तरह आतंकवादी एवं विलासी उपयोग जब निषिद्ध घोषित कर दिया जाएगा, तब विज्ञान से किसी का विरोध न सुविधाओं में सहायता करने वाला उपयोगी अनुभव किया जाने लगेगा।

अध्यात्म एक ऐसा तथ्य है जिसके ऊपर मानव कल्याण की आधार शिला रखी हुई है। उसे जिस सीमा तक उपेक्षित एवं तिरस्कृत किया जाएगा उतना ही दुःख-दारिद्रय बढ़ता जाएगा। उतना ही दुःख-दारिद्रय बढ़ता जाएगा। हमारी संपन्नता, समृद्धि शांति समर्थता एवं प्रगति का एक मात्र अवलंबन अध्यात्म हैं। यदि हमें सुखी प्रगतिशील होकर जीना है तो यह स्मरण रखा जाना चाहिए कि आदर्शवादिता का समुचित समन्वय नितांत अनिवार्य है। इसकी विमुखता सर्वनाश को सीधा निमंत्रण देने के बराबर है।

हम मानवीय गुणों को जीवित रखना चाहते है। इसलिए उसके प्राण अध्यात्म को असुर प्रवृत्तियों के आक्रमण से बचाए रखना होगा। पर देखते हैं कि असुरता ने पूरी शक्ति से मानवीय आदर्शों को समाप्त करने के लिए चढ़ाई की है। आत्म रक्षा के इस धर्मयुद्ध में लड़ने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं असुरता के सम्मुख प्रस्तुत अविवेक शीलता और अनैतिकता के सम्मुख हथियार डालकर आत्म समर्पण करने का तात्पर्य आत्महत्या के लिए प्रस्तुत होना ही माना जाएगा आदर्श विहीन मनुष्य तो पशु और पिशाच ही बन सकता हैं देवत्व की प्रतीक मनुष्यता की ऐसी दुर्गति होते देख सकना किसी सच्चे साहसी के रहते संभव नहीं। अध्यात्म की जीवन रक्षा के लिए भगवान महाकाल धर्मयुद्ध की घोषणा कर चुके है। उनके प्रत्येक सहचर का दायित्व है कि रक्त की अंतिम बूँद और श्वास के अंतिम प्रवाह तक युद्ध करने के लिए तैयार रहे।


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