कैसे हो अंतस् में सत्य का अवतरण

March 1995

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सत्य का अर्थ है यथार्थता। जो बात जैसी है उसे उसी रूप में समझना मानना और प्रयुक्त करना सत्य की साधना हैं दुर्भाग्य से हम इन दिनों बनावट विडंबना भ्रांति और दुर्बुद्धि से भरे युग में रह रहे है। अज्ञान भरे अंधकार युग ने कुछ ऐसा कृत्रिम वातावरण बना रखा है जिसने बरसात की काली घटाओं में छिपे हुए सूर्य की तरह सत्य को एक प्रकार से छिपा दिया है। छल और कृत्रिमता का दूसरा नाम ही सभ्यता पड़ गया है। जो जितनी कृत्रिमता बरत सकता है, कुछ को कुछ बनाकर दिखा सकता है वह उतना ही बड़ा सभ्य और कलाकार माना जाता है। पिछली शताब्दियों और सहस्राब्दियों से असत्य और कृत्रिमता की आराधना में मानवीय मस्तिष्क संलग्न रहे है और अब वह उपार्जन इतना विशालकाय इतना सघन और प्रचलित हो गया है कि आमतौर से उसे ही सत्य माना जाने लगा है। आज सामान्य बुद्धि के लिए यह ढूँढ़ निकालना अति कठिन है कि प्रचलित मान्यताओं प्रथा परिपाटियों विश्वासों रीति-नीतियों एवं विचारणाओं में सत्य का कितना अंश है।

जिस कसौटी पर यथार्थता को कसा जा सकता है वह है विवेक। विवेक उस साहस का नाम है जिसके आधार पर बहु प्रचलित मान्यताओं की उपेक्षा करके भी सचाई को ढूँढ़ निकालने का भावना उत्पन्न होती है यही भावना है जिसके आधार पर कोई व्यक्ति सत्य का दर्शन कर सकता है। जो यह सोचना है कि समाज का वर्तमान प्रचलन ही ठीक है और उसी का समर्थन ठीक है तो फिर उसके लिए सोचने और ढूँढ़ने के सारे रास्ते ही बंद हो जाते है। प्रचलन के ढर्रे से लुढ़कते लुढ़कते अभ्यास परिपाटी के प्रति मनुष्य को मोह उत्पन्न हो जाता है, उसी के साथ पक्षपात जुड़ जाता है। अपनी यह दुर्बलता समझ में भी नहीं आती। लगता है हम जो सोचते है वही सत्य है जो करते है वहीं सत्य है, जिस रास्ते पर चल रहे है वही सत्य है। विभिन्न व्यक्ति अपनी प्रचलित परिपाटियों और रीतियों नीतियों को सत्य मानने लगते है चूँकि सत्य का निरूपण तो किसी ने किया नहीं अपनी-अपनी परिपाटियों को ही सत्य मान लिया है। इसलिए उनकी मान्यताएँ स्वभावतः एक दूसरे से भिन्न अथवा विपरीत होती है।

इस भिन्नता एवं विपरीतता को स्वभावतः वे वर्ग नापसन्द करते है, कई बार घृणा भी करते वे वर्ग नापसन्द करते है कई बार घृणा भी करते है और यदि असहिष्णुता की मात्रा अधिक हुई तो परस्पर संघर्ष भी खड़ा हो जाता है। एक दूसरे को असत्यवादी मानते है। उनकी लड़ाई का आधार तो सत्य का समर्थन और असत्य का निवारण होता है पर वस्तुतः दोनों ही असत्य का निवारण होता है पर वस्तुतः दोनों ही असत्य का समर्थन और सत्य ढूँढ़ने की किसी ने चेष्टा नहीं की। अपने चारों ओर घिरे मानसिक अथवा सामाजिक वातावरण को ही सही माना जब कि वस्तुतः वह एक पक्ष मात्र था। इतिहास के अगणित पृष्ठ इसी सत्य के आवरण में छिपे पक्ष मात्र था। इतिहास के अगणित पृष्ठ इसी सत्य के आवरण में छिपे पक्षपात से लाखों करोड़ों मनुष्यों के शोणित तर्पण की करुण कथा से कलंकित हो रहे है गोरी गजनबी नादिरशाह औरंगजेब आदि ने धर्म की सेवा के नाम पर क्या नहीं किया था। ईसाई और गैर ईसाई मुसलिम और गैर मुसलिम आर्य और अनार्य आदि की भिन्नताओं ने कितनी नृशंसताएँ उपस्थित की इसका लंबा इतिहास पढ़ने पर लगता है कि मनुष्य सत्य के अवलंबन की डींग मात्र हाँकता है वस्तुतः सत्य से कोसों दूर है।

आज के तमसाच्छन्न युग में यह नितांत आवश्यक है कि सत्य और असत्य का नए सिरे से विश्लेषण किया जाय और उसका आधार विवेक, न्याय एवं औचित्य को माना जाय। दूसरों के प्रति जो व्यवस्था लागू की जा रहीं है। वहीं यदि अपने प्रति भी लागू हो तो कैसी लगे? इस कसौटी पर न्याय अन्याय का निरूपण आसानी से हो सकता है। उसी प्रकार यदि यह मानकर चला जाय कि संसार के बहु संख्यक व्यक्ति अनुपयुक्त विचारणा और क्रियापद्धति के अभ्यस्त है तो फिर तथाकथित लोकभय से मुक्ति पायी जा सकती है और स्वतंत्र चिंतन के लिए उपयुक्त दिशा मिल सकती है। अपनी मनोभूमि के पक्षपात को भी समझना चाहिए और ध्यान रखना चाहिए कि हम जिस परंपरा में जन्मे पले और बड़े हुए है स्वभावतः उसी के समर्थन में बुद्धि काम करेगी। इसलिए स्वतंत्र चिंतन, सत्य का अन्वेषण, करने के लिये इतना साहस भी एकत्रित करना होगा कि अपनी अभ्यस्त बुद्धि की भी उपेक्षा करके विश्वव्यापी सत्य का निरूपण कर सकने की भावना सही रूप का निरूपण कर सकने में समर्थ हो सके।

‘हमारा सो सही आपका सो गलत’ आज सही गलत की सही मात्र परख है। अपनी जाति, भाषा देश, वंश परिवार संप्रदाय, रहन-सहन रीति रिवाज एवं विचार पद्धति का जो अनावश्यक पक्षपात है उसे हटाया जाना चाहिए और निष्पक्ष विश्व के निष्पक्ष नागरिक की तरह एक न्यायनिष्ठ जज की तरह हमें हर प्रचलित रीति नीतियों और विचारणाओं पर गंभीरता-पूर्वक विचार करना चाहिए। न तो प्राचीन के प्रति मोह रहे और न नवीन के प्रति द्वेष। प्राचीन हो या नवीन इससे यथार्थता में कोई अंतर नहीं आता। किसी सड़ी गली मृतप्राय वस्तु को इसलिए सँजोकर नहीं रखा जा सकता है कि वह पुरानी है।

जिस प्रकार दूसरे लोगों के बारे में गलत राह अपनाने वाला सोचा जा सकता है उसी प्रकार बहुत संभव है कि विवेक की कसौटी पर अपनी मान्यताएँ अथवा गतिविधियाँ परखी जाय तो वे असत्य निकले। ऐसी दशा में हमें इतनी निष्पक्षता तो अपने भीतर उत्पन्न कर ही देनी चाहिए कि जो सत्य होगा उसे स्वीकार करेंगे अपने और पराए का प्राचीन और नवीन का कोई भेद भाव एवं पक्षपात पैदा न होने देंगे इतना आधार यदि तैयार हो सका तो ही आशा की जा सकती है कि सत्य का अवतरण संभव हो सकेगा।


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