आ रहा है अतिशीघ्र ही- प्रज्ञायुग

March 1995

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प्रज्ञायुग सतयुग एक भवितव्यता है सच्चाई है अगले दिनों हम इसे अवतरित होता हुआ अगले दिनों हम इसे अवतरित होता हुआ अपने इन चक्षुओं से ही देखेंगे भविष्यवक्ता इस संबंध में बड़े ही आशावादी है। वे कहते है अगले दिनों सारा विश्व एक सूत्र में आबद्ध होकर एक कुटुंब में बदल जाएगा। एकता की तरह ही समता भी सर्वत्र दीख पड़ेगी जाति के और रंग के कारण कहीं कोई असमता नहीं बरती जाएगी। नर और नारी में से कोई ऊँच-नीच या असमान न रहेगा। सभी शक्ति भर काम करेंगे, आवश्यकता भर लेंगे कोई धनी निर्धन न रहेगा। असमानता के सभी भेदभाव मिट जायेंगे। शरीर छोटा बड़ा हो सकता है पर मनुष्य का कर्तव्य, अधिकार, सम्मान तो एक जैसा होना चाहिए।

एकता के अभाव में बिखराव ही शेष रह जाता है। टूटे हुए पत्ते और बिखरे हुए तिनके अपने अस्तित्व तक की देर तक रक्षा नहीं कर सकते फिर उनके द्वारा कोई बड़ा कार्य तो संपन्न हो ही कैसे सकेगा? संगठन की शक्ति मानी गई है। यह मात्र जमघट नहीं वरन् मिल-जुल कर एकात्मकता की परिणति है। चींटियों और टिड्डियों का दल तक अपनी सहकारिता के आधार पर समस्त प्रतिकूलताओं से लड़ता हुआ अपना अस्तित्व बनाए रहता है। समर्थता सर्वत्र साधनों पर नहीं घनिष्ठ सहयोग पर निर्भर रहती हैं उसी के आधार पर संसार पर नहीं घनिष्ठ सहयोग पर निर्भर रहती है। उसी के आधार पर सारे के सारे बड़े कार्य संपन्न होते रहे हैं। अगले दिनों लोग बिखराव की व्यथा और अपनाने की हानियाँ और मधुमक्खियों की तरह सृजनात्मक संगठन बनाकर रहेंगे।

इन दिनों लोग अमीरी के प्रदर्शन में अपना गौरव मानते हैं अगले दिनों यह प्रचलन बदल जाएगा जहाँ भी अनावश्यक संग्रह लोग देखेंगे वहाँ उँगली उठायेंगे और अनैतिकता एवं निष्ठुरता अपनाने का आरोप लगावेंगे व्यक्तिगत पूँजी अवांछनीय मानी जाएगी। इसका सेवन करने वाले भी सब ओर से ईर्ष्या घृणा, बरसती देखेंगे और स्वयं दुर्गुणों दुर्व्यसनों के शिकार बनकर अपनी गरिमा गिरायेंगे। इस घाटे के सौदे को करने के लिए किसी का भी मन न होगा। पुरुषार्थ और कौशल के बल पर जो अधिक कमाया जा सकता है उसे लोकोपयोगी कार्यों में नियोजित क्यों न किया जाय। यह तथ्य सभी को सहज गले उतरेगा और लोग औसत नागरिक की तरह रहने में अपना गौरव अनुभव करेंगे

कामुकता एक आवेश है, क्रोध जैसा, नशे जैसा, उन्माद जैसा। इस दिनों लोग उसका रस लेते अधर्मी अपनी जीवनी शक्ति तथा शालीनता को निचोड़ते है। फलतः दाम्पत्य जीवन अविश्वास से परिवार विघटन से समाज अस्थिरता से भरता जाता है। अगले ही दिनों लोग नर-नारी के बीच कलात्मक भावभरा स्नेह, सद्भाव स्थापित करेंगे और अतृप्ति के स्थान पर आनन्द उल्लास का अनुभव करेंगे नर-नारी के बीच का शालीन सहयोग इतना सुखद होगा कि किसी के लिए भी हँसती-हँसती जिंदगी जीने जैसा सुयोग दुर्लभ न रहेगा।

शिक्षा का उद्देश्य होगा-व्यक्तित्व का विकास। जानकारियों का संवर्धन तो उसका एक छोटा पक्ष रहेगा। शिक्षा प्रणाली हर किसी को स्वावलंबन स्वाभिमान संयम और शालीनता प्रधान कर सकने योग्य बनेगी। आजीविका के लिए शिक्षा वाली आज की मान्यता बदल जाएगी। निर्वाह के लिए तो आवश्यक श्रम कौशल जो लोग कुटीर उद्योगों व्यवसाय जैसे कामों से निकाल लिया करेंगे। शिक्षा मात्र व्यक्तित्व को समग्र बनाने की परिधि में कार्यरत रहेगी। तब उसका स्वरूप ही बदल जाएगा जो अब की अपेक्षा काफी भिन्न होगा।

कुटीर उद्योगों के ग्रामीण क्षेत्र में बिखर जाने से गाँव कस्बे बन जायेंगे वहाँ प्रदूषण से बचाव भी रहेगा। लोग शहरों की ओर भागना तो छोड़ ही देंगे वरन् वापस गाँव की ओर लौटेंगे इस प्रकार शहरों का व आबाद होंगे। प्रकृति संतुलन भी इस प्रकार सहज बना रहेगा।

दूरदर्शिता का उदय होते ही प्रजनन घटने लगेगा। जिस तेजी से जनसंख्या बढ़ी है उसी गति से वह कम होने लगेगी फलतः न तो जंगल कटेंगे और न पशुओं के लिए निर्वाह कठिन पड़ेगा। प्रदूषणजन्य समस्यायें हल होगी और सभी को निर्वाह सरल हो जाएगा। निर्वाह तक मर्यादित रहने और शालीनता को मानवी गौरव के साथ जुड़ जाने का परिणाम यह होगा कि सभी को निर्वाह तक मर्यादित रहने ओर शालीनता को मानवी गौरव के साथ जुड़ जाने का परिणाम यह होगा कि सभी अपनी मर्यादायें समझेंगे और वर्जनाओं को पालेंगे तब अपराधों के लिए गुँजाइश ही न रहेगी। उद्दण्डता को करना पड़ेगा जिससे देखने वालों तक की हिम्मत टूट जाय।

नीतिनिष्ठा और लोक निष्ठा का समन्वय ही मानवी धर्म का आधार बनेगा। सामाजिक परम्परायें भी उसी आधार पर नए सिरे से विनिर्मित होगी। लोग दुराग्रही न रहेंगे औचित्य को समझने और अपनाने का वातावरण बनाने में ही बुद्धिवाद का प्रयोग होने लगेगा।

अच्छा समाज बनाने की दिशा में लोग उस रीति-नीति की ओर कदम बढ़ायेंगे जिस पर चलाने की योजना ऋषि चेतना ने इन दिनों बनायी है।


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