संस्कृति संतति (Kahani)

March 1995

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बूढ़े और अशक्त सियार का पेट भरना दूभर हो गया। उसे एक उक्ति सूझी। वह चूहों के बिल के समीप जाकर एक पैर के बल तपस्वी की मुद्रा बनाकर खड़ा हो गया। कंठमाला पहने आसमान की ओर मुँह फाड़े एक पैर पर बिल के द्वार पर सियार को खड़ा देखकर चूहों का मुखिया ठिठका। घबराया यह क्या नई मुसीबत आ गई। सोचा अब हमारी खैर नहीं। परिवार को बचाने हेतु यहाँ से भागना पड़ेगा? किंतु साहस बटोर कर मूषक सरदार सियार के पास जाकर बोला आप कौन हैं? हवा में मुँह फैलाए एक टाँग पर क्यों खड़े हैं। कपटी सियार मीठे स्वर में बोला। शांत रहे बच्चा। तप में विघ्न मत डालो हम दंडक बन से आये है। क्षुद्र जीवों के कल्याण हेतु तप में रत हैं। देखते नहीं हमारी कृषकाय तप करते-करते सूख गई है। सरदार ने पूछा आसमान की ओर मुँह फाड़ने से आपका क्या प्रयोजन है? तपसी सियार ने उत्तर दिया “पौहारी हैं भोजन नहीं करते।” मात्र वायु के सहारे जीते है।

सरदार ने साथियों को महात्मा का मंतव्य कह सुनाया। सब निश्चित हो गये सभी रात भर इधर-उधर जाते प्रातः अँधेरे में ही वापस लौट आते। कुशल पूर्वक जीवन व्यतीत होता। कालांतर में परिवार के सदस्यों की संख्या घटती देखकर मूषक सरदार ने पूछा क्या कुछ सदस्य बाहर चले गये है। पहले तो हमारा बिल में खड़े होकर भी गुजारा नहीं होता था। बूढ़े का माथा ठनका कही यह वेशी महात्मा बनने वाला सियार ही तो हमारे सदस्यों को नहीं खा जाता? छिपकर देखा तो ज्ञात हुआ प्रतिदिन लौटते झुंड में से अंतिम सदस्य को अँधेरे में कपटी सियार चट कर जाता है। चूहों के सरदार ने सिर पीटा और पछताया गलती मैंने की है। छद्म वेश और मीठी बातों से प्रभावित हो कर मैंने ही अपने परिवार का नाश कराया है।

कहीं हम भी ऐसे छद्मवेषधारी लोगों के हाथों अपनी संस्कृति संतति को गँवा तो नहीं रहे।


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