प्रकृति की इस माया में मात्र सत्य को तलाशे

March 1995

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प्रकृति का विस्तार बहुत बड़ा है। जो कुछ हम आँखों से देखते कानों से सुनते त्वचा से स्पर्श करते या अन्य किसी प्रकार प्रत्यक्ष अनुभव करते है वह बहुत थोड़ा है। इससे अनेक गुनी वस्तुएँ ऐसी है जो इन्द्रियों से अनुभव में नहीं आती किंतु वे इस संसार में मौजूद है स्थूल या दृश्य की अपेक्षा सूक्ष्म या अदृश्य अधिक है। दृश्य जगत को लोक और अदृश्य जगत को परलोक कहते हैं।

डॉ. गोपीनाथ कविराज अपनी पुस्तक विशुद्ध वाणी में लिखते है इस संसार में हर पदार्थ की प्रत्येक तत्त्व की मूल सत्ता सूक्ष्म है पर वह कभी कभी दूसरे पदार्थों के साथ मिलकर स्थूल हो जाती है। चूँकि विश्व के रासायनिक पदार्थ सदैव गतिशील रहते है इसलिए जब उस रासायनिक सम्मिश्रण में कुछ कमी आ जाती है तो वह स्वरूप बदल जाता या नष्ट हो जाता है। ऐसी दशा में वह पदार्थों की मूल सत्ता पुनः सूक्ष्म रूप धारण कर लेती है अदृश्य बन जाती है किसी वस्तु की मूल सत्ता कभी भी नष्ट नहीं होती, वरन् किसी न किसी दृश्य या अदृश्य रूप में बनी ही रहती हैं। प्रकृति के समस्त परमाणु अनादि और अनंत है।

विज्ञान भी इस बात का समर्थन करता है। उसके संरक्षण के सिद्धान्त के अनुसार किसी वस्तु का नाश या निर्माण नहीं होता जो होता है वह इतना ही है कि उसका रूप अदृश्य हो जाता है, तो ऐसा प्रतीत होता है कि वस्तु नष्ट हो गई। इतने पर भी सच्चाई यह है कि उसकी मूल सत्ता यथावत् बनी रहती है। यदि एक मन लकड़ी जलायी जाय तो मुश्किल से राख की थोड़ी-सी ढेरी बनेगी लकड़ी का शेष वजन कहाँ गायब हो गया? मोटी दृष्टि से मालूम पड़ता है कि वह जलकर समाप्त हो गया, पर यदि इस अग्नि संस्कार के मध्य जो गैसें बनती है जो भस्म शेष बचती है उनका यदि वजन लिया जाय तो वह बिलकुल लकड़ी जितने भार का ही ज्ञात होगा। इससे विदित होता है कि लकड़ी का जितने भार का ही ज्ञात होगा। इससे विदित होता है कि लकड़ी का रूपांतरण हो गया। उसका कुछ भाग अगोचर स्तर गैस में परिवर्तित हो जाता है तथा कुछ राख में बदल जाता है पर उसका कोई परमाणु विनष्ट नहीं होता। वे अदृश्य बन जाते है। उनके दर्शन नहीं होते तो भी इसी संसार में सूक्ष्म रूप से बादलों की भाँति यहाँ वहाँ फिरते है। मिर्चें जलायी जाएँ तो दूर-दूर बैठे हुए लोगों को खाँसी या छीकें आती है हवन की सुगंध दूर-दूर तक फैलती है इससे उस एक ही तथ्य की पुष्टि होती है कि जलने के बाद भी वस्तुओं का अस्तित्व किसी-न -किसी रूप में मौजूद रहता है वही अंश वायुभूत रूप में अप्रकट परमाणुओं की तरह हवा के साथ इधर उधर उड़ते रहकर सुगंध अथवा दुर्गंध के रूप में अपना परिचय देते है।

तालाबों का नालों का पानी गर्मी के दिनों में बड़ी तेजी से सूख जाता है यह कहाँ गया? क्या नष्ट हो गया? नहीं सूरज की गर्मी के कारण वह भाप बन कर आकाश में उड़ गया। यह पानी उड़ते समय दिखाई नहीं देता, पर जब बहुत से तालाबों नदियों और समुद्र का उड़ा हुआ पानी एक जगह जमा हो जाता है तो बादलों के रूप में दिखाई पड़ता है। बादल उस भाप का स्थूल रूप है पर जब वह भाप बहुत ही हलकी और थोड़ी होती है तो दिखाई नहीं पड़ती प्रायः हवा में थोड़ा बहुत पानी सदा ही उड़ता रहता है पर वह दिखाई नहीं पड़ता क्योंकि उस समय वह सूक्ष्म रूप में होता है। सूक्ष्म वस्तुओं को आंखें देखने में असमर्थ होती हैं।

एक खेत में लगातार बीस वर्ष तक ईख की खेती की जाय तो उसमें इतना गुड पैदा होगा कि उस खेत में कई फूट की पर्त बिछ सकती है इतना गुड कहाँ से आया? ईख की जड़े जितनी गहरी जमीन में जाती है उतनी मिट्टी खोद कर वैज्ञानिक जाँच की जाय, तो मालूम होगा कि उस खेत में शक्कर के परमाणु एक दो मन से ज्यादा नहीं है पर उससे कई गुना हर साल पैदा होता है। यह खेत की मिट्टी में से नहीं आकाश से आता है वायु से करोड़ों टन शक्कर उड़ती फिरती है ईख का पौधा पत्तियों द्वारा साँस लेता है और अपनी आवश्यकता की वस्तु शक्कर उस वायु से खींच लेता है।

डॉक्टर लोग बताते है कि रोगों के कीटाणुओं एक प्रकार के जानदार प्राणी है वे आकाश में उड़ते रहते है और जिस प्राणी को कमजोर देखते है उस पर आक्रमण कर देते है तपेदिक हैजा अतिसार आदि के संक्रामक रोग कीट मक्खियों की तरह एक मनुष्य पर से उड़ भी बीमार बना लेते है प्लेग कालरा मलेरिया चेचक आदि मक्खियों के रोग कीट मक्खियों की तरह झुंड के झुंड अरबों खरबों की संख्या में उड़ते हैं। और एक स्थान से दूसरे में दल समेत जा पहुँचते है यह कीटाणु आँखों से इन्द्रियों से दिखाई नहीं पड़ते तो भी इस लोक में उसी में उसी तरह रहते, काम करते और जीते है जैसे कि मनुष्य पशु पक्षी और कीड़े मकोड़े इस दृश्य लोक में जीवनयापन करते है।

भौतिक विज्ञान के शोधक अन्वेषक और आविष्कारक जानते है कि अदृश्य जगत में बहुमूल्य पदार्थों का खजाना छिपा पड़ा है। गैस बिजली विद्युत चुम्बकीय तरंगें ब्रह्मांडीय विकिरणों आदि अदृश्य लोक में छिपी हुई शक्तियों को ढूँढ़ निकाला गया है अब विज्ञान इस दिशा में प्रयत्नशील है कि उन अगोचर सूक्ष्म पदार्थों को इच्छानुसार स्थूल रूप में कैसे परिवर्तित किया जाय।

किसान लोग जानते है कि वर्षा का पानी खेती के लिए कितना उपयोगी होता है। कारण यह है कि वर्षा की बूँद के साथ आकाश के अन्य पदार्थ भी बरसते है। पीछे उन्हें पाकर बहुत जीवनी शक्ति उपलब्ध करते है। स्वास्थ्य विज्ञान का यह सर्वविदित तथ्य है कि जहाँ की आबोहवा में अमुक तत्त्वों के परमाणु अधिक मात्रा में होते है वहाँ रहना स्वस्थता की दृष्टि से लाभदायक होता है। स्वास्थ्य सुधार के लिए लोग उन स्थानों में जाते हैं, जहाँ की आबोहवा में उपयोगी परमाणु होते है यह सब बातें बताती है कि अदृश्य लोक भी इस दृश्य लोक की तरह ही है। उसमें भी सजीव और निर्जीव सत्ताएँ प्रचुर परिमाण में मौजूद है।

हर एक वस्तु कालचक्र के फेर से कभी दृश्य कभी अदृश्य हो जाती है भाप से पानी पानी से भाप इस चक्र में पड़ा हुआ पानी दृश्य और अदृश्य होता है मनुष्य भी जन्म के बाद मृत्यु और मृत्यु के बाद जन्म धारण करता है। जब तक स्थूल शरीर है, जब तक स्थूल शरीर है तब तक वह इस लोक में है और जब शरीर छूट गया, तो परलोक में चला जाता है जीव को लोक ओर परलोक दोनों में रहना पड़ता है दोनों ही उसके घर हैं। लड़कियाँ अपने पिता के घर रह कर भी पति ग्रह में आने वाली स्थिति की जानकारी प्राप्त करती और तैयारी करती है क्योंकि वे जानती है कि हमें मायके की भाँति भविष्य में ससुराल से भी काम पड़ेगा। हमें भी चाहिए कि निकट भविष्य में जिस लोक में जाना है उसका ज्ञान प्राप्त करें। उस लोक को सुधारने के लिए अपना लौकिक जीवन सुधारें।

परलोक कहाँ है? वह कितनी दूर किस स्थान पर किनके बीच में है? इस प्रश्न के उत्तर में यही कहा जा सकता है कि लोक परलोक की सीमाएँ आपस में मिली हुई है पृथ्वी के ठोस धरातल को छोड़ कर जहाँ से पोला आकाश शुरू होता है वहाँ से ही सूक्ष्म लोक आरंभ होता है। पृथ्वी की आकर्षण शक्ति करीब सात सौ मील चारों ओर मानी जाती है यही घेरा परलोक का है कारण यह है कि जिन रासायनिक तत्त्वों से पृथ्वी का संबंध है जो पृथ्वी पर प्रकट होते रहते है वे अदृश्य होकर भी पृथ्वी के आकर्षण की सीमा के भीतर रहते है पृथ्वी उन्हें खींचे रहती है अपनी परिधि से बाहर नहीं जाने देती। वे परमाणु इस भूलो के ही अदृश्य अंश है इसलिए उनका आकर्षण भी भूलोक से ही जुड़ा रहता है अन्य ग्रह उपग्रहों के जो रासायनिक तत्त्व है वे इस लोक के तत्त्वों से भिन्न है इसलिए भी यहाँ के परमाणु का वहाँ कोई मेल नहीं बैठता और वे विजातीय होने के कारण किसी दूसरे लोक में प्रवेश नहीं कर पाते।

इतना सब जान समझ लेने के उपरांत हमें स्थूल-सूक्ष्म लोक परलोक के फेर में न पड़ कर संशोधक की भाँति सत्य के अन्वेषण में निरत रहकर उस सत्य के अन्वेषण में निरत रहकर उस सत्य की उपलब्धि करनी चाहिए, जो मनुष्य का जीवन लक्ष्य है। तभी यह जीवन सफल सार्थक कहलायेगा।


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