वैराग्य की पहली पाठशाला, गृहस्थ रूपी तपोवन

March 1995

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देवदत्त संत थे पर साँसारिक संत। यों नहीं कि उन्होंने गृहस्थ सुख का परित्याग न किया हो, वरन् इसलिए कि वे भजन साधन सदाचार का आचरण करते हुए, कभी-कभी क्रोध का व्यवहार कर जाते थे। धैर्य स्थित रख सकना उनके लिए कठिन हो जाता था और घर में जब कभी ऐसी स्थिति आती, धर्मपत्नी को डाँटने लगते-देख यदि तूने अमुक कार्य नहीं किया तो संत पुनीत के आश्रम में जाकर संन्यासी हो जाऊँगा। सहिष्णुता का उनमें नितांत अभाव था।

धर्मपत्नी को उनसे तो नहीं धमकी से बड़ा भय लगता था। नन्हे नन्हे बच्चों का पालन-पोषण का प्रबंध कौन करेगा? यदि ये संन्यासी हो गए, यह कल्पना करते ही वह डर जाती और वे जैसा कहते करने लगती। किंतु वह देवदत्त के इस आचरण से बड़ी दुखी थी। इन्हीं देवदत्त की गाँव के लोग कितनी श्रद्धा करते है, कितना स्नेह और आदर देते मीठे मीठे बोलते है। इस पर ध्यान जाता तो उसे शंका होने लगती कि क्या दूसरों के लिए मीठा होना और घर के निरीह सदस्यों को दबाना और लक्षण है। दिन रात वह इसी उधेड़-बुन में डूबी रहती।

संत पुनीत का आश्रम समीप ही था। वह कभी कभी गाँवों में चले जाते और लोगों के दुःख कष्ट पूछते औषधि वितरण करते, ज्ञान दान देकर शाम तक आश्रम लौट आते। एक दिन वे इसी प्रकार उस ब्राह्मणी के घर भी जा पहुँचे। ब्राह्मणी को दुखी देखकर उन्होंने पूछा विद्यावती। तू दिन पर दिन दुबली होती जाती है, तुझे कोई कष्ट है क्या?

दुःखी आत्माएँ करुणा की प्यासी होती है। संत के स्नेहवचन सुनकर उसकी आंखें भर आयी। उसने भरे कंठ से कहा-भगवान् और तो कोई दुःख नहीं वे पूजा भक्ति करते है वह मुझे भी अच्छा लगता हैं पर क्या भगवान पाने के लिए घर छोड़ना जरूरी होता है। अगर ऐसा न होता तो यों कहकर धमकाने नहीं कि मैं घर छोड़कर संत पुनीत के आश्रम में चला जाऊँगा और संन्यासी हो जाऊँगा।”

“ नहीं नहीं बेटी! संत ने आश्वासन का हाथ उठाया और बोले मनुष्य अपने घर पर रहकर यदि मानवीय गुणों का आचरण निष्ठापूर्वक कर सके तो उतनी ईश्वर भक्ति पर्याप्त हैं। जो यहाँ अपना अहंकार न छोड़ सका, वह मेरे आश्रम में आकर क्या वैराग्य करेगा। फिर कुछ देर रुक कर बोले अच्छा बेटी! तू चिंता मत कर मैं ऐसा कर दूँगा कि देवदत्त फिर कभी ऐसे वचन न बोले। पर हाँ तू भी थोड़ा साहस करना। इस बार जब कभी वह कहे कि मैं संत के आश्रम चला जाऊँगा तो तू भी कह देना हाँ चले जाइए। आगे हम सँभाल लेंगे

बात बात में थोड़ा विलंब हो गया और उस दिन भोजन तैयार होने में थोड़ा अधिक समय लग गया। देवदत्त घर लौटे और भोजन तैयार न मिला तो उन्होंने वही चिर-परिचित अस्त्र उठाया। लेकिन आज विद्यावती के मुख पर भय नहीं मुसकान थी। हलकी हँसी हँसती हुई बोली- चले जाइए और संन्यासी हो जाइए।”

जलती आग में घृत डालो तो आग और तीव्र हो उठती है। फिर यहाँ तो घृत उलीचा गया। देवदत्त ने पीछे मुड़कर नहीं देखा तुरंत आश्रम की ओर चल पड़े आश्रम पहुँच कर उसने संत पुनीत से कहा- भगवन्! संन्यास दीक्षा लेना चाहता हूँ। उसका प्रबंध आज ही अभी अभी करा देने का अनुग्रह करे।

उसी तरह मुसकराते हुए संत पुनीत ने कहा-हाँ वत्स! तू वस्त्र उतार कर यहाँ रख दे और गोदावरी स्नान कर, शीघ्र वापस आ जा। अभी अभी दीक्षा का प्रबंध किए देता हूँ देवदत्त उठे अपने वस्त्र उतार कर एक ओर चल पड़े

इधर संत ने उनके सब कपड़े फाड़ कर फेंक दिए। खाने के लिए कुछ कड़ुए और कसैले फल मँगा लिए। देवदत्त स्नान करके आए तो अपने कपड़े माँगे। संत ने चिथड़ों की ओर संकेत किया-देवदत्त फटे कपड़े देखकर हो तो उठा क्रुद्ध, पर कुछ बोल न सका। महर्षि ने कहा-क्या देखते हो संन्यासियों को अपरिग्रही बनना पड़ता है। अच्छा ले भोजन कर ले। “यह कहकर वही कड़ुए फल आगे कर दिए।

देवदत्त से एक फल कठिनाई से खाते बना। दूसरा तो मुख में रखते ही थूक दिया और बिगड़ कर कहने लगा -”मैं ऐसे कड़ुवे फल खाऊँगा? यह तो जानवर भी नहीं खाते? शांत हो वत्स।” महर्षि कहने लगे ईश्वर को पाना एक बड़ी भारी कसौटी है। वैरागी को संतोषी, धैर्यवान् और सहिष्णु होना पड़ता है। यदि तुम पहले यही नहीं

सीख सके तो क्या बनोगे ईश्वरनिष्ठ दया करुणा उदारता, संयम ही नहीं मिष्ट भाषण धैर्य और सहिष्णुता भी ईश्वरनिष्ठा के आवश्यक गुण है। इनका तुम्हें अनिवार्य रूप से अभ्यास करना पड़ेगा

अपनी अब तक की क्षुब्धता से उबलते हुए देवदत्त ने कहा “तो फिर इसका अभ्यास तो मैं अपने घर में भी कर सकता था। आपके पास तो मैं इस कामना से आया था कि आप हमें कुछ विशेष विभूतियाँ और साधनाएँ सिखाएंगे।”

महर्षि ने हँस कर कहा-तात यह बाद की बात है अभी तो तुम घर लौट जाओ और वहीं रहकर सद्गुणों का अभ्यास करो। देवदत्त की समझ में बात आ गई वे घर लौट आए और धर्मपत्नी से क्षमा माँगते हुए कहा-मुझे पता नहीं था कि वैराग्य की पहले पाठशाला गृहस्थ है। अन्यथा अब तक तुम्हें जो कष्ट दिया, वह न दिया होता।


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