निराली-अनुपम है-धर्म की भाषा

March 1995

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धर्म की अपनी भाषा है जिसकी तुलना सामान्य बोलचाल के शब्दों से कदापि नहीं की जा सकती। धर्म को भाव-सम्वेदनाओं का उद्गम नहीं उपचार है जिसके सहारे दिव्य चक्षुओं पर चढ़ी हुई धूल की अनुभूतियों का आनंद ले सकना संभव है।

लैंग्वेज ट्रुथ एण्ड लॉजिक नामक कृति में सुप्रसिद्ध मनीषी ए. जे. एअर ने सत्यापन सिद्धांत का प्रतिपादन करके समूची मानव जाति के अंतराल में यह मान्यता बिठाने का प्रयत्न किया है कि धर्म की भाषा निरर्थक नहीं वरन् अर्थपूर्ण और महत्त्वपूर्ण है। गणित के वाक्यों के साथ इसकी संगति नहीं बैठती। वे तो प्रायः विश्लेषणात्मक स्तर के ही हुआ करते है। दो और दो मिलकर चार होते है। धार्मिक वाक्यों के निर्माण में इस तरह की कोई नियमावली लागू नहीं होती। ईश्वर सत्य है, प्रेम है आदि वाक्यों की व्याख्या विवेचना गणितीय नियमों को आधार मानकर नहीं की जा सकती। परमात्म सत्ता में आस्था और उसके आदर्शों के अनुरूप अपने को ढालने की भावनाएँ ही इस भाषा को सुन-समझ सकती है।

कुछ लोगों का कथन है कि नैतिकता पूर्ण वाक्यों को ही धार्मिकता की परिधि में सम्मिलित किया जा सकता है, पर यह भी एक प्रकार की भ्रांतिमूलक मान्यता ही समझी जावेगी। धार्मिक वाक्य नैतिक वाक्यों से सर्वथा भिन्न स्तर के होते है। नैतिकता का स्वरूप तो योजना बनाने वाला जैसा होता है। चोरी नहीं करनी चाहिए वाले वाक्य को पढ़कर व्यवहार के किसी नियम विशेष का बोध भर होता है दूसरे शब्दों में इसे धार्मिक प्रवृत्ति को उत्पन्न करने वाला उत्प्रेरक भी कहा जा सकता है। दार्शनिक पॉल स्मिथ ने रिलीजियस नॉलेज नामक पुस्तक में इस तथ्य की पुष्टि करते हुए बताया है कि धार्मिक अनुभूतियाँ सामान्य स्तर की नहीं, वरन् एक प्रकार की स्वजनित प्रक्रिया है जो व्यक्त की मनोवृत्तियों को आदर्शवादी उत्कृष्टता की ओर मोड़ने ओर सन्मार्ग पर प्रेरित करने में महती भूमिका निभाती है।

धार्मिक भाषा का अपना पृथक् अस्तित्व है। इसके प्रयोग की विधि व्यवस्था वैज्ञानिक प्रयोग परीक्षणों से बिलकुल भिन्न है। उदाहरण के लिए ईसा मसीह ईश्वर के पुत्र और राम दशरथ के पुत्र है। दोनों वाक्यों में पुत्र शब्द का प्रयोग तो हुआ है पर विवेक दृष्टि से देखा जाय तो प्रतीत होता है कि पहले वाक्य में पुत्र का अर्थ असामान्य है तो हमारे कहने का अभिप्राय यह नहीं कि ईश्वर हमारे जैसा हाड़ माँस का कोई जीव है जो बोलने की शक्ति रखता और निर्देश देता है। ऐन एनालिटिकल फिलॉसफी ऑफ रिलीजन में डब्लू. एफ. गुरजीएफ ने धार्मिक भाषा की अभिवृद्धि को एक ऐसी स्ववृत्ति बताया है जो मनुष्य के सर्वांगीण व्यक्तित्व के विकास में सहायक होती और सामान्य से असामान्य अवस्था में जा पहुँचाती है। इसी को संप्रत्यात्मक अभिवृत्ति को एक ऐसी स्ववृत्ति बताया है जो मनुष्य के सर्वांगीण व्यक्तित्व के विकास में सहायक होती और सामान्य से असामान्य अवस्था में जा पहुँचाती है। इसी को संप्रत्यात्मक अभिवृत्ति (काँन विक्शनल ऐटिच्यूट) के नाम से जाना जाता है।

अब प्रश्न उठता है कि धार्मिक भाषा को कैसे सुना समझा जाय? तामस एक्वीनस ने सुम्नाथियों -लाँजिका में बताया है कि धर्म की लिपि एवं शैली प्रतीकात्मक एवं साम्यानुमानिक हुआ करती है। उनके मतानुसार जब हम किसी भी शब्द को पूर्ण परमेश्वर तथा अपूर्ण मनुष्य दोनों के लिए प्रयुक्त करते है तो उस शब्द का अर्थ दोनों ही अवस्थाओं में एक जैसा नहीं हो सकता। ईश्वर अच्छा है और वह मनुष्य एक अच्छा व्यक्ति है दोनों वाक्यों में अच्छा व्यक्ति है दोनों वाक्यों में अच्छा व्यक्ति है दोनों वाक्यों में अच्छा शब्द का प्रयोग तो अवश्य हुआ है, पर विविधता और भिन्नता जमीन आसमान जितनी स्पष्ट परिलक्षित होती है ईश्वर की अच्छाई में सामान्य नहीं असामान्य भिन्नता होती है। परमात्म तत्त्व गुणातीत है इसलिए उसके गुणों को वर्णन करने के लिए एनोलॉजीकल यानी साम्यानुमानिक पद्धति का प्रयोग करना ही अधिक प्रासंगिक एवं प्रामाणिक होगा।

वस्तुतः धार्मिक भाषा का स्वरूप प्रतीकात्मक होने की विवेचना ही अधिक विवेक संगत सिद्ध होती है पॉल टीलिख ने “डाइनेमिक्स ऑफ फेथ” पुस्तक में अपने अभिमत प्रकट करते हुए बताया है कि प्रतीक एक प्रकार का चिह्न है जो अपने से परे किसी वस्तु व्यक्ति तथा सत्ता की ओर संकेत करता और उनके अस्तित्व का प्रमाण परिचय देता है। लेकिन अपनी स्वयं की सत्ता को वह प्रकट नहीं होने देता। ध्यान रहे कि प्रतीक कोई सामान्य चीज नहीं है यह अपरिवर्तनीय ओर वास्तविक है वस्तु या व्यक्ति की सचाई को ही दर्शाता है सफेद झंडा को मात्र साधारण-सा कपड़ा ही नहीं समझ बैठना चाहिए वह तो शांति का प्रतीक है। इसमें शब्द रूपी आकृति से भावना रूपी प्रकृति की महत्ता और उपयोगिता अधिक होती है। प्रतीक प्रतीक्य के रूप में व्यक्ति की भावनाओं में समाविष्ट होकर अपनी सत्ता को प्रकट करता है चिह्न का काम तो केवल संकेत भर करने का होता है?लेकिन प्रतीक सत्ता के प्रतिनिधित्व सँभालने की जिम्मेदारी का निर्वाह भली प्रकार करत है। वस्तुतः इस प्रतीकात्मक प्रकटीकरण की प्रक्रिया को जितनी सरलता से धार्मिक भाषा में किया जा सकता है कदाचित ही किसी और प्रकार की शैली में संभव हो सकें।

ऐसे भी लोग है जिन्होंने धार्मिक भाषा में विरोधाभास उत्पन्न होने का भ्रम फैलाया है पर वास्तविक स्थिति ऐसी नहीं है। विरोधाभास को विरोध नहीं कहा जा सकता। ईश्वर सर्वव्यापी है और कहीं भी नहीं। ब्रह्माण्ड से भी बड़ा और अणु से भी छोटा आदि कुछ उक्तियाँ ऐसी है जिन्हें धर्म की भाषा में विरोधाभास के नाम से पुकारा जाता है फिलाँसफीकरल फ्रैगमेंट्स नामक पुस्तक में सी किर्केगार्ड ने इसे विचार शील लोगों की जिज्ञासा का मूल स्रोत बताया है जिसके अभाव में उपयुक्त एवं औचित्यपूर्ण धार्मिक अनुभूतियाँ हो ही नहीं सकती।

भारतीय दार्शनिकों में डॉ. राधाकृष्णन का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है। कंटेम्परेरी इण्डियन फिलॉसफी में उनने लिखा है कि परमसत्ता असीम और अखण्ड है जिसके बारे में शाब्दिक कथन कदापि साँव नहीं हो सकता। शब्दों की अभिव्यक्ति तो केवल देश काल और परिस्थितियों की घटनाओं तक ही सीमित है। परमसत्ता को एकमात्र प्रतीकात्मक शैली में ही अनुभव किया जा सकता है उसी प्रकार धर्म भी अनादि और अनंत है, तदनुरूप ही उसकी भाषा का निर्माण हुआ है। भले ही इसका कोई स्वतंत्र शब्द कोष नहीं बन पाया हो, फिर भी इसकी गरिमा को विस्मृत नहीं किया जा सकता। अधार्मिक प्रवृत्ति के लोग भले ही इसके प्रति अनदेखा-अनसुना रुख अपनाकर बैठते और इसकी भ्रांत निरर्थक अथवा पहेली जैसी भ्रामक कल्पना करते रहें पर हर धर्मपरायण व्यक्ति को इसकी अभिव्यञ्जनाओं को समझकर अपने चिंतन और चरित्र को ढालना चाहिए। ईशोपनिषद में ठीक ही लिखा है कि यह गतिमान है अगतिमान भी दूर भी है और निकट भी सबमें समाहित है और सबसे बाहर भी धर्म के इस ब्रह्म रहस्य को समझकर ही लोग सुख शांति का अनुभव करते है और जीवन लक्ष्य की प्राप्ति भी वस्तुतः धार्मिक भाषा एक ऐसी सुनहरी चाबी है जो अज्ञेय मंदिर के स्वर्ण द्वार को खोलती और परमानंद की अनुभूति कराती है। मौलाना रूप ने अपनी विश्व प्रसिद्ध पुस्तक मसनवी में कहा है कि लफंगों में मत फँस मानी की तरफ जा अर्थात् भाषा की शब्दावली के भ्रम में न पड़कर व्यक्ति के मनोभावों का समझना ही विवेकशीलता का परिचायक है। चिकित्सा की अनेकानेक प्रणालियों को अपनाकर उपचार का उपक्रम बिठाने वाले चिकित्सक अपनी-अपनी पृथक् पृथक् शब्दावली अथवा भाषा का प्रयोग करके ही रोगी को परामर्श देते है। चिकित्सा पद्धतियों की विविधता होते हुए भी उपचार उपक्रम एक ही है ठीक उसी प्रकार है। मौलवी पंडित पादरी अलग-अलग दिखते हुए भी एक ही है। एक सूफी संत ने ठीक ही कहा है अपने सीने में उससे जाय जो बात वाइज किताब में है अर्थात् तू किताबों के शब्दों और रस्मों से खुदा को नहीं पा सकता अपने दिल की नहीं पा सकता अपने दिल की किताब को पढ़ क्योंकि इससे बढ़ कर कोई किताब नहीं है अतः व्याकरण के जानने वालों को चाहिए कि वे शब्दों के दृश्य कलेवर पर अधिक ध्यान न देकर उसके मूल भाव को समझ कर ही आचरण करे यही धर्म है और यही उसकी भाषा का सच्चा स्वरूप

एक तांत्रिक ऐसी विद्या सीखकर आया कि उस अनुष्ठान की पूर्णाहुति रात्रि को बारह बजे हो। मंत्र पूरा होते ही उबलते पानी में मक्का के दाने डाले जाये तो वे सभी मोती बन जाय

तांत्रिक अपने काम में लग गया। पत्नी को पास बिठा लिया और सावधान कर दिया कि वह जैसे ही पूर्णाहुति सूचक हुंकार भरे वैसे ही खौलती हाँडी में मक्का डाल दें। विधान चल पड़ा।

पत्नी स्वभाव की आलसी भी थी और अविश्वासी भी। उसने उपेक्षा पूर्वक सुना, पर आज्ञा पालन में भलाई देखी सो चूल्हे में आग जला कर पानी चढ़ा दिया। मक्का का कटोरा भी पास था। रात बीतते-बीतते उन्हें नींद आने लगी सो पैर सिकोड़ कर वहीं सो गई।

पूर्णाहुति की हुंकार तांत्रिक ने कई बार की, पर पत्नी तो सोई हुई थी। वह उठा, जगाया और पानी में मक्का डाली। पर कुछ हुआ नहीं। समय निकल चुका था। अविश्वास और आलस्य ने सारा प्रयास व्यर्थ कर दिया।

दूसरे दिन पड़ोस की बुढ़िया एक कटोरा भर कर मोती लेकर तांत्रिक के पास आई। उन्हें सौंप दिये और कहा-आपकी बात मैं दीवार के छेद में से सुन रही थी। चूल्हे पर पानी उबालती रहीं और हुंकार की प्रतीक्षा करती रही। आपका संकेत सुनकर मैंने तत्काल पानी में मक्का डाल दी। उसी से बने यह मोती है।

जागरूकता और तत्परता सफलता की अनन्य सहायिका है।


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