“अर्थ” तो हो पर धर्म प्रधान ही

March 1995

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व्यक्तिगत जीवन और फिर समाज को ऊँचा कैसे उठाया जाय? उनमें शांति सुव्यवस्था, शालीनता और सदाचार कैसे कायम किया जाय? इसके लिए भारतीय मनीषियों ने पुरुषार्थ चतुष्टय का एक सुगम उपाय बताते हुए उसे व्यक्तिगत जीवन में अपनाये जाने पर विशेष बल दिया था, पर दुर्भाग्य यह है कि वह वार्तालापों के मध्य होने वाली दार्शनिक चर्चा मात्र बन कर रह गया हैं।

धर्म अर्थ काम मोक्ष-यह जीवन के चार महत्त्वपूर्ण पहलू है। धर्म अर्थात् नीतिमत्ता। अर्थ अर्थात् संपदा काम अर्थात् कर्तव्यपरायणता और मोक्ष अर्थात् विदेह जैसी स्थिति-आंतरिक प्रफुल्लता-आनन्द का अवतरण। जीवन के प्रस्तुत अध्यायों में से आरंभिक तीन को संपन्न कर लेने मात्र से अंतिम का संपादन स्वतः ही हो जाता है। इन तीन में से भी प्रथम दो विशेष महत्त्व के बताये गये ही प्रधानता मिली हुई है और इसी के गिर्द जीवन घूमता रहता है। शेष तीन की उपेक्षा हो जाने के कारण ही न शांति और सुव्यवस्था दिखाई पड़नी चाहिए थी। संपत्ति व्यक्ति यदि धनकुबेर बन भी गया, तो उसे ही चैन कहाँ हैं? उसकी अशान्ति इस बात की है कि संपदा कही कोई चुरा न ले जाय, जबकि दरिद्रों को यह चिंता सताती रहती है कि कुछ पैसे जुड़ जाएँ तो अमीरों जैसा ठाट अपनाया और मौज-मस्ती की जाय। संपत्ति आज हर एक को बेचैन किये हुए है। आखिर इसका कारण क्या है? इन दिनों अर्थ और जीवन क्यों एक दूसरे के पर्याय बने हुए है? जबकि पूर्वकाल में अर्थ को अनर्थमूलक माना और उसके सीमित उपयोग पर जोर दिया जाता था।

गहन विचार मंथन से यही ज्ञात होता है कि इस लंबे अंतराल में मनुष्य का उत्कर्ष के बजाय अपकर्ष ही हुआ है परमार्थपरायण बनने की तुलना में वह अधिकाधिक स्वार्थी बना है। स्वार्थ जब जहाँ भी पैदा होता वह निजी सुख-सुविधा की माँग करता है। सुविधाएँ अनुचित संचय और दूसरों के अधिकारों के अपहरण के बिना संभव नहीं। यह दोनों बातें ऐसी है जो प्रच्छन्न रूप से वैभव से संबंधित है संचय की आम प्रवृत्ति धन के प्रति होती है यही हर प्रकार के संग्रह की मूल है दौलत यदि नहीं हुई तो दूसरे प्रकार का संचय भी असंभव स्तर का बना रहता है इसलिए लोग संपदा को ही इकट्ठा करना ज्यादा पसंद करते हैं, क्योंकि इसके माध्यम से बाद में काई भी अन्य सुविधा आसानी से खरीदी जा सकती है। इसी तरह अपहरण की बात जहाँ आती है, वहाँ भी अर्थलोलुपता की विकृत भावना ही दिखाई पड़ती है। लोग पद का, धन का, जमीन का, मकान, दुकान, सामान का अपहरण करते देखे जाते है, क्योंकि वे सब संपदा के स्रोत है, किंतु इन दिनों एक नये प्रकार का अपहरण बड़े पैमाने पर घटित होता देखा जा रहा है। यह है-आदमी का। व्यक्ति अपहरण के अधिकांश मामलों में अर्थ का घटना से सीधा संबंध होता है और धन हस्तांतरण के साथ ही अपहृत व्यक्ति छूट भी जाता है। कुछ ही प्रकरण उनमें ऐसे होते है, जिनमें घटना का संबंध सीधे रुपये-जैसे से न होकर अपहरणकर्ता के किसी स्वार्थ से होता है पर ऐसे मामले उँगलियों में गिनने जितने होते है। अधिकांश में इसका उद्देश्य फिरौती की रकम प्राप्त करना हैं स्पष्ट है जैसे जैसे मनुष्य में स्वार्थपरता बढ़ी वैसे ही वैसे उसमें धन भी अस्तित्व में आया हैं इसलिए धन के प्रति आकर्षण के नये-नये अवैध धंधे भी अस्तित्व में आये हैं इसलिए पहले जो लक्ष्मी धन की पर्याय मानी जाती थी कल्याणकारक समझी जाती थी, अब वही परेशानी का कारण बनी हुई है। भला लक्ष्मी के आगमन से किसी को कठिनाई क्यों कर होनी चाहिए? जो स्वयं मंगलकारी है, उससे अमंगल की संभावना कैसे हो सकती है? ऐसा वस्तुतः लक्ष्मी संबंधी तत्त्वदर्शन भली−भाँति नहीं समझ पाने के कारण ही है। लक्ष्मी का तात्पर्य मंगल और कल्याण साधन की देवी से है। शब्दकोष में इसीलिए लक्ष्मी को उद्योगी पुरुषों के द्वारा प्राप्य या पुरुषार्थियों को अपनाने वाली बताया गया है। स्वयं पाणिनि ने भी कुछ ऐसा ही अर्थ करते हुए “लक्षयति प्श्यति उद्योगिनं इति लक्ष्मी” कहा है। इन अर्थों से स्पष्ट है कि जहाँ पुरुषार्थ और पराक्रम होंगे वहाँ लक्ष्मी भी होगी। पुरुषार्थ और पराक्रम नीतिवाचक शब्द है, अनीतिबोधक नहीं आज चूँकि पग-पग पर अनीति अपनायी जा रही हे इसलिए धनोपार्जन जैसा सरल मार्ग भी सर्वथा नैतिक नहीं रह सका या यों कहा जाय कि बिलकुल अनास्तिक बना हुआ है तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। जहाँ पुरुषार्थ की जगह बेईमानी हो, भला वहाँ लक्ष्मी कैसे विराज सकती है? वह तो नीतिवानों की सहचरी है। इसीलिए आज के अधिकांश लोग धन कमाने में सफल हो तो जाते हैं पर लक्ष्मी तत्त्व के अभाव में सदा अशान्त और असंतुष्ट बने रहते है।

आर्ष वाङ्मय में असुर शब्द उन लोगों के लिए प्रयुक्त हुआ है, जो न स्वयं चैन से रहते न दूसरों को रहने देते है। इस बिंदु पर वर्तमान धनाध्यक्षों की मनोदशा भी ठीक उन जैसी ही दिखाई पड़ती है। यह बात और है कि वे वैसे अवांछनीय आचरण में निरत नहीं रहते पर माना कि अस्थिरता उन्हें बेचैन तो बनायें ही रहती है। ऋग्वेद में ऐसे कितने ही मंत्र है जिनसे विदित होता है कि असुरों की संपदा देवताओं की तुलना में में कही अधिक थीं इनकी रक्षा में ही निमग्न रहने के कारण वे “राक्षस” हो गये जबकि देवता वे कहलाये जो अपरिग्रह पूर्वक रहते और अभावग्रस्तों को दान करके खाते थे, अतएव वे लक्ष्मीवान् बने रहे।

प्राचीन समय में वस्तुतः संपदा की अपेक्षा श्री की प्रतिष्ठा नीति यही कारण है कि तब समाज में हर प्रकार से शांत बनी हुई थी। जहाँ श्री रहेगी वहाँ समृद्धि और संतोष होना स्वाभाविक है। वर्तमान में संपत्ति सर्वोपरि है। लक्ष्मी की स्थापना की बात तो बाद में सोची जाती हैं। जहाँ वैभव आगे और श्री पीछे हो, वहाँ लक्ष्मी का कोई महत्त्व रह नहीं जाता ऐसी स्थिति में नियंत्रणकारी अंकुश लक्ष्मी के पास न रहकर धनवान् के हाथ आ जाता है जब मंगल चाहने वाली देवी का दौलत पर नियम नहीं नहीं रहा तो उसके सदुपयोग की बात कैसे सोची जा सकती है? जहाँ दुरुपयोग होगा वहाँ दुर्गति भी पैदा होगी उससे व्यक्ति में असंतोष और समाज में अराजकता उत्पन्न होना सुनिश्चित है। यही आज की स्थिति है।

प्रस्तुत दशा से बचने के लिए ही हर भारतीयों के घर पर प्रति वर्ष कार्तिक अमावस्या के दिन लक्ष्मी की पूजा की जाती थे। यह पूजन जहाँ आडम्बर युक्त उपचार बन कर रहा, वहाँ की स्थिति में सुधार की रत्ती भर भी गुँजाइश नहीं रहती, किंतु जहाँ लक्ष्मी के तत्त्वदर्शन को हृदयंगम करते हुए उसे व्यावहारिक जीवन में अपनाने का प्रयास किया जाता है, वहाँ श्री वृद्धि प्रत्यक्ष देखी जा सकती है। प्रति वर्ष लक्ष्मी उपासना का विधान इसलिए भी है कि जिस आदर्श को जीवन का अभिन्न अंग बनाये रखने का संकल्प किया गया और जिंदगी आदर्शहीन श्रीहीन होकर न रह जाय उस निमित्त भी लक्ष्मी की आराधना की जाती है, किंतु इन दिनों तो इस पूजा का अर्थ देवी की उपासना से मालामाल हो जाना लगाया जाता है। यही सबसे बड़ी विडंबना है यदि ऐसी बात रही होती, तो लक्ष्मीनारायण मंदिर के पुजारी अब तक विपुल वैभव के स्वामी बन गये हो तो पर वर्षों की पूजा के बाद भी उनके जीवन में ऐसा कुछ घटित होते कहाँ देखा जाता है? इससे स्पष्ट है कि लक्ष्मी अर्थ तंत्र के श्रेष्ठतम सदुपयोग और सुनियोजन की देवी है। गाँवों में कन्या को प्रायः लक्ष्मी कहा जाता है। यहाँ इसका भाव उसकी उपस्थिति से पिता के धनपति बनने जैसा नहीं वरन् इतना है कि वह अपने व्यवस्था कौशल से घर को एक सुखद-सुन्दर वातावरण प्रदान करती है। सही अर्थों में देवी लक्ष्मी की भूमिका भी इतनी ही है।

इस प्रकार अर्थ अनर्थ के बीच का भेद समझने और लक्ष्मी संबंधी तत्त्वदर्शन के अपना लेने के उपरांत कोई कारण नहीं कि शेष तीन पुरुषार्थ साथ-साथ संपादित न होते चलें। जहाँ अर्थतन्त्र की नियामक श्री रहेगी वहाँ धर्म तत्त्व भी रहेगा और कर्तव्यपरायणता भी निभती चलेगी। इन तीनों के समन्वय से जीते जी मोक्ष जैसा आनन्द न मिले यह हो नहीं सकता। इस तरह जिस समाज में उक्त चारों पुरुषार्थों का संतुलन समीकरण बना रहेगा, वहाँ की धरती पर देवता निवास करेंगे और वह धरती स्वर्ग जैसी सुखद एवं सुन्दर होगी इसमें दो मत नहीं।


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