अश्वमेध लेखमाला - दशमावतार की अश्वमेध प्रक्रिया

January 1993

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कौन करेगा? कैसे होगा? इक्कीसवीं सदी में उज्ज्वल-भविष्य आने की घोषणा? सुनने वालों के मन में न जाने कितने सवालों का उठना स्वाभाविक है। भौतिक क्षेत्र में जहाँ विपत्तियों की बाढ़ है, वहाँ आत्मिक क्षेत्र में विकृतियों का अंधकार छाया हुआ है। समस्याएं दो-चार हो तो समाधान सोचे जांय। स्थिति कुछ ऐसी बन पड़ी है कि समस्याओं की गिनती करने में ही इनसानी बुद्धि का दिवाला निकल चुका है। घर-परिवार के छोटे दायरे से लेकर राष्ट्र-विश्व की व्यापक परिधि तक करुण कराहों का कुहराम मचा है। मूर्धन्यों से लेकर जनसाधारण तक सभी इस पर एकमत हो चले हैं कि परिस्थितियाँ मनुष्य के बूते के बाहर हैं।

लेकिन मनुष्य का बल है ही कितना? विशाल ब्रह्मांड में गतिशील हलचलों और परिस्थितियों में उसका स्थान नगण्य-सा है। सिर खड़े पानी से लदे बादल तक को वह बरसा नहीं सकता। मौत-बुढ़ापे तक को रोकने में असमर्थ है। अपनी यह असमर्थता जिस दिन उसे समझ में आ जाती है, उसी क्षण वह सामर्थ्य अवतरित होने लगती है-जो धरती से लाखों गुना भारी भरकम ग्रह-नक्षत्रों को उनकी कक्षाओं में ऐसे आसानी से घुमाती है जैसे कोई बालक गेंद घुमाता है। यह वही सामर्थ्य है-जिसके संकेत मात्र पर प्रकृति सामान्य नदी की तरह अपना करतब दिखाने के लिए विवश है। यह सृष्टि उसी की रचना है और उसे अपनी इस सुरम्य रचना का दुखद अंत कदापि सहन नहीं।

सृष्टि के इतिहास में जब कभी विनाश की घटाएँ-घहराई हैं,तब उसी का समाधान करने के लिए सूक्ष्म-जगत में एक दिव्य चेतना प्रादुर्भूत होती रही है। इस दिव्य चेतना को ही भगवान का अवतार कहा जाता रहा है। समय की आवश्यकता के अनुसार ही वह अपना स्वरूप प्रकट करते रहे हैं। युग की समस्याओं से उत्पन्न असंतुलन को सही करने और युग प्रवाह को उलटने के लिए भगवान उसी क्रम में लीला रचते रहे हैं। सृष्टि के आरम्भ में सर्वत्र जल ही जल था। प्राणि जगत में जलचरों की ही प्रधानता थी, तब उस असंतुलन को मत्स्यावतार ने साधा संतुलित किया। जब जल और थल पर प्राणियों की हलचलें बढ़ी तो उसके अनुरूप कच्छप काया ने संतुलन बनाया। उन्हीं के नेतृत्व में समुद्र मंथन के रूप में प्रकृति दोहन का पुरुषार्थ सम्पन्न हुआ। हिरण्याक्ष ने समुद्र में छिपी सम्पदा को ढूँढ़कर उसे अपने ही एकाधिकार में कर लिया तो भगवान का वाराह रूप ही उसका दमन करने में समर्थ सक्षम हो सका।

जब मनुष्य अपनी आवश्यकता से अधिक कमा सकने में समर्थ हो गया तो संकीर्ण स्वार्थपरता से प्रेरित संचय की प्रवृत्ति भी बढ़ी। संचय और उपभोग की पशु प्रवृत्ति को उदारता में परिणत करने के लिए भगवान वामन के रूप में छोटे-बौने और पिछड़े लोग उठ खड़े हुए और बलि जैसे सम्पन्न व्यक्तियों को स्वेच्छापूर्वक उदारता अपनाने के लिए सहमत कर लिया। उच्छृंखलता जब उद्धत और उद्दंड हो जाती है तो शालीनता से उसका शमन नहीं हो सकता। प्रत्याक्रमण द्वारा ही उसका दमन करना पड़ता है। ऐसे अवसरों पर नृसिंहों की आवश्यकता पड़ती है और उन्हीं का पराक्रम अग्रणी रहता है। उन परिस्थितियों में भगवान ने नर और व्याघ्र का समन्वय आवश्यक समझा तथा नृसिंह अवतार के रूप में दुष्टता के दमन एवं सज्जनता के संरक्षण का आश्वासन पूरा हुआ। स्वरूप कुछ भी क्यों न रहा हो, भगवान के अवतरण की प्रतिज्ञा एक ही रही है-’दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्धन। मनुष्य के क्षात्रबल, ब्रह्मतेज, शौर्य और भावना को उमगा-उकसाकर अवतार चेतना अपना संकल्प पूरा करती रही है। ऐसा नहीं है कि मनुष्य में शौर्य और भावना का सर्वथा अभाव रहता हो। पर अपने एकांगीपन के कारण भावनाविहीन शौर्य विनाश के उन्मादी ठहाके लगाया करता है और शौर्य विहीन भावना अकर्मण्यता की बेड़ियों से कसी-बंधी आँसू बहाया करती है। अवतार का लीला संदोह मनुष्य की इन दोनों विभूतियों के बीच सामंजस्य पैदा कर इन्हें सही दिशा में सुनियोजित कर देता है। अपनी इस अलौकिक सामर्थ्य और क्रियापद्धति की विशेषताओं के कारण ‘यज्ञ’ को भी भगवान का स्वरूप और अवतार माना गया है। शास्त्रकारों ने-

यस्य राष्ट्रे पुरे चैव भगवान यज्ञ पुरुषः। इप्यते स्वेन धर्मेण जनैः वर्णाश्रमान्विते॥

कहकर इसका महात्म्य बताते हुए ‘भगवान यज्ञ पुरुष’ की संज्ञा दी है। हो भी क्यों न? देवपूजन, संगतिकरण और दान यज्ञ से निष्फल ये तीनों प्रवृत्तियाँ व्यक्ति और समाज के उत्कर्ष की तीन धाराएँ ही हैं। देवपूजन का अर्थ है परिष्कृत व्यक्तित्व-दैवी सद्गुणों का अनुगमन। संगतिकरण अर्थात् एकता--सहकारिता संघबद्धता, दान अर्थात् समाज परायणता, विश्व कौटुम्बिकता उदार सहृदयता। यही वे तीन शाश्वत सूत्र हैं जिनसे मानव और सृष्टि की प्रत्येक समस्या का समाधान सहज संभव है। इनकी शिक्षण प्रणाली को अवतार चेतना का नाम देना यथार्थ ही है।

अंशावतार होते हैं कलावतार भी। पूर्णावतार होने की बात भी दिव्यदृष्टि ऋषियों ने की है। अपने विभिन्न स्वरूपों और अनेकों प्रकारों में अंश और कला की अभिव्यक्ति करते हुए यज्ञ जहाँ अपनी पूर्णता प्राप्त करता है-वह-अश्वमेध है। इसे पहली बार भली प्रकार विकसित करने और पूर्णता देने वाले महाराज पृथु को चौबीस अवतारों में गिना गया। पृथु द्वारा किये गए अश्वमेध का वर्णन करते हुए भागवतकार कहता है-

अथादीक्षित राजा तु ह्यमेधेन शतेन च। ब्रह्मवर्ते मनो क्षेत्रे यत्र प्राची सरस्वती॥ -भगवान चतु. स्कन्ध अ. 29-1

“फिर पृथु ने एक सौ अश्वमेध यज्ञ करने का संकल्प किया जहाँ पश्चिम वाहिनी सरस्वती है ब्रह्म और मनु का ब्रह्मवर्त क्षेत्र है। “ पृथु के बाद अवतार और अश्वमेध जैसे परस्पर घुल-मिल गये। अवतार अश्वमेध हो गया और अश्वमेध अवतार। ‘अश्वमेध’ के अर्थ गाम्भीर्य पर विचार करें तो रहस्य समझ में आ जाता है। मेध शब्द का प्रयोग जब बलि के अर्थों में किया जाता है तो उसका तात्पर्य है-दुष्प्रवृत्तियों का विनाश, क्रूरता,पशुता, नृशंसता उन्मूलन, विच्छेदन हनन। मेध का प्रयोग मेधा के अर्थों में प्रधानतः लिया जाता है। इसके द्वारा मनुष्य के ब्रह्मवर्चस सोई संवेदना, विचार शक्ति, सत्प्रवृत्तियों का जागरण पोषण, अभिवर्धन, संकल्प, मूर्त होता है। अश्व की शब्द व्युत्पत्ति पर ध्यान दें-” अंश-क्वन अश्नुते अछानम अश्नुते व्यापनीति अर्थात् तीव्रगति वाला,मार्ग पर व्याप्त हो जाने वाला। इन अर्थों में अश्वमेध-दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन सत्प्रवृत्ति सम्वर्धन का तीव्रतम सर्वव्यापी होने वाला प्रयास है। “

यही कारण है कि बाद की बाद की अवतार लीलाओं में अश्वमेध के यजन का कोई न कोई स्वरूप, संकेत अथवा विवेचन अवश्य मिलता है। रावण के आतंक को धूल−धूसरित कर धरती पर स्वर्ग का अवतरण करने वाले भगवान राम ने जब अश्वमेध यज्ञ के बारे में वामदेव, जाबालि और कश्यप आदि ऋषिगणों से चर्चा की तो सभी ने प्रसन्नता जाहिर करते हुए कहा-

कुरु-कुरु महाभाग धर्मारण्ये त्वमुत्तमम। दिने-दिने कोटि गुणं यावर्द्वष शतं भवेत॥ -स्क. पु. 3-35-14

ये महाभाग रामचंद्र जी! आप इस धर्मारण्य में उत्तम यज्ञानुष्ठान कीजिए। इसके प्रभाव से स्थल की पवित्रता सौ वर्षों तक बढ़ती चली जायेगी। जो मनुष्यों में

कोटि-कोटि सद्गुणों का विकास और वृद्धि करती

रहेगी। इसी तरह गर्ग संहिता अश्वमेध खण्ड 10-7 में भगवान कृष्ण द्वारा उग्रसेन से अश्वमेध सम्पन्न कराने का वृत्तांत मिलता है। उन्हीं की प्रेरणा और व्यास के कथन के उपराँत सम्राट युधिष्ठिर द्वारा अश्वमेध सम्पन्न किये जाने के विवरण महाभारत अश्वमेधिक पर्व 71-94 में मिलते हैं। परशुराम की अवतार लीला में भी कुछ ऐसे ही प्रयास का दर्शन होता है।

इन सभी का अवतरण बढ़ते हुए अनाचरण के प्रतिरोध और सदाचरण के समर्थन-पोषण के उद्देश्य के लिए हुआ। परशुराम ने “अग्रतः चतुरो वेदाः पृष्ठः सशरो धनुः” का स्वरूप धारण कर सामन्तवादी निरंकुश आधिपत्य को समाप्त कर ब्रह्म विद्या का प्रचार विस्तार किया। राम ने मर्यादाओं के पालन पर जोर दिया तो मर्यादाओं के पालन पर जोर दिया तो कृष्ण ने धूर्तता और छल छद्म से घिरी परिस्थितियों का शमन “विषस्य विषमौषधम” की नीति अपनाकर लिया।

धर्म क्षेत्र में विकृतियाँ बढ़ीं तो उसका स्वरूप साबुन से भी गंदगी फैलने जैसा हो गया। मद्य-माँस मीन-मुद्रा और मैथुन के पंचमकार धर्म की आड़ में लोक व्यवस्था को तहस-नहस करने लगे और जन-जीवन में अस्त-व्यस्तता आने लगी। ऐसी स्थिति में बुद्ध ने धर्म व्यवस्था के लिए सज्जनों को संगठित कर विवेक को सर्वोपरि स्थान पर प्रतिष्ठित किया। “धम्मं शरणं गच्छामि, संघ शरणं गच्छामि, बुद्धं शरणं गच्छामि “ ही बुद्ध का लीला संदोह है। इसका शंखनाद सुनकर बुद्ध के आह्वान पर लाखों परिव्राजक साँस्कृतिक दिग्विजय के लिए निकल पड़े।

परिस्थितियाँ बदलती रही हैं। इसके लिए भगवान को भी अपना आधार बदलने रहना पड़ा है। अश्वमेध अभियान भी तद्नुरूप अपने नये स्वरूप और नई विशिष्टताओं के साथ आयोजित हुए हैं। विकास क्रम की व्यवस्था के अनुरूप भगवान के अवतार का स्वरूप स्तर तथा कार्यक्षेत्र भी विस्तृत होता चला गया। मनुष्य जब तक साधन प्रधान और काय प्रधान था तब तक शास्त्रों और साधनों से काम चलता रहा। लेकिन वर्तमान में परिस्थितियाँ भिन्न हैं।

इस समय बुद्धि-तत्व चतुर्दिक् छाया हुआ है। महत्वाकाँक्षाओं के क्षेत्र में अनात्म-तत्व की भरमार होने के कारण सम्पन्नता और समर्थता का दुरुपयोग ही बन पड़ रहा है। इस विकृति का क्षेत्र सीमित नहीं रहा वरन् समूची मानव जाति को ही इसने जकड़ रखा है। विज्ञान की उपलब्धियों से दुनिया बहुत छोटी हो गई। गतिशील तेजी से सिमटती और द्रुत गति से भागती दुनिया में भगवान का अवतार युगान्तरीय चेतना के रूप में जनमानस के सुविस्तृत क्षेत्र में अवतार का संकल्प मूर्त होना संभव है। पूर्वार्ध में बुद्ध ने धर्म-चक्र का प्रवर्तन किया था। साँस्कृतिक विजय की वैजयंती फहराई थी। लाखों व्यक्तियों ने इस प्रक्रिया में अपना योगदान सम्पन्न किया। आनंद जैसे मनीषी, बिम्बिसार जैसे श्रीमंत, आम्बपाली जैसे कलाकार और अंगुलिमाल जैसे दुस्साहसी, पराक्रमी प्रतिभाशाली लोग बड़ी संख्या में अपने तरह के अनूठे उस अश्वमेध अभियान के अंग बने थे। बुद्ध के पहले हुए अवतारों का कार्यक्षेत्र सीमित था। बुद्ध के पहले हुए अवतारों का कार्यक्षेत्र सीमित था। उनके समय की समस्याएँ छोटी और स्थानीय थीं। बुद्धकाल तक समाज विस्तार बड़े क्षेत्र में हो गया था। इसलिए बुद्ध का कार्य भी भारत की सीमाओं तक सीमित नहीं रहा।

उन दिनों जितने व्यापक प्रयास सम्भव थे वे सभी अपनाए गए। इसका प्रभाव भी पूरे एशिया में फैला। उससे भी आगे बढ़कर अन्य महाद्वीपों तक अपना आलोक पहुँचाया। बुद्धावतार का उत्तरार्ध कल्कि अवतार (प्रज्ञावतार) है। जो इन दिनों सम्पन्न हुआ है। भविष्य पुराण में किये गये अलंकारिक चित्रण में कल्कि भगवान को घोड़े पर सवार हाथ में तलवार लिये चित्रित किया गया है। यह और कुछ नहीं उनके द्वारा सम्पन्न किये जाने वाले अश्वमेध अभियान का संकेत भर है। बुद्धि प्रधान इस युग में समस्याएँ भी चिंतन प्रधान हैं। मनुष्य की प्रेरणाओं का केन्द्र मान्यताएँ-विचारणाएँ, इच्छाएँ होती हैं। उन्हीं के प्रवाह में समाज बहता है। ऐसे समय में अवतार का स्वरूप भी तद्नुरूप ही हो सकता है। समाधान भी अश्वमेध में छुपे हुए अर्थ गाम्भीर्य को प्रकट करने पर ही सम्भव है।

लोकमानस में घुस पड़ी विकृतियों को उलटने तथा अवांछनीयता अनैतिकता एवं मूढ़ मान्यताओं को निरस्त करने में साँस्कृतिक दिग्विजय अभियान ही सफल हो सकता है। मानवी चेतना को उत्कृष्टता ही दिशा में घसीट ले जाने वाला और सामाजिक क्षेत्रों को समान रूप से प्रभावित करने वाला प्रवाह ही अपने समय का अवतार हो सकता है और वही हो भी रहा है। कल्कि अवतार और उसके विश्वव्यापी अश्वमेध अभियान को इसी रूप में देखा समझा जा सकता है।

अवतार का आवेश दिव्य आत्माओं पर उतरना और उसे जो अभीष्ट होता है करा लेता है। दिव्य आत्माएँ उसकी प्रक्रिया का निमित्त मात्र बनती हैं। निष्कलंक अवतार का आवेश उसके साँस्कृतिक दिग्विजय अभियान से आ जुड़ने वाले परिव्राजकों-समयदानियों पर उतरेगा। उनसे ऐसा कुछ करा लेगा जिसे अनुभव कर वे स्वयं तो कृतकृत्य होंगे ही समाज और जन-जीवन भी धन्य-धन्य हो उठेगा। युगावतार का लीला संदेह इस समय अपनी पूरी तेजी पर है। वातावरण में परिवर्तन भी उसी तीव्रगति से हो रहे हैं। जिसके प्रभाव से वर्तमान युग का अंधियारा छँटने और इक्कीसवीं सदी के उज्ज्वल भविष्य में बदल जाने में देर नहीं।


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