अतिवादी-आत्मघाती

January 1993

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शरीर के प्रत्येक अंग अवयव को समुचित पोषण मिलना चाहिए साथ ही उसे इतना श्रम भी करने दिया जाना चाहिए कि माँसपेशियों और कोशिकाओं को सुसंचालित रहने का अवसर मिले। जिस प्रकार पोषण के अभाव में दुर्बलता आती है उसी प्रकार श्रम की कमी से भी वह क्षेत्र सूखने लगता है।

एक हाथ ऊपर रखने का अभ्यास करने वाले साधु उस हाथ की क्रियाशक्ति से वंचित हो जाते हैं। वह अंग सूख जाता है। लम्बा मौन रखने के बाद जीभ लड़खड़ाने लगती है। अंधेरी कोठरियों में रहने वाली बंदी प्रकाश में निकल नहीं पाते थे। कुपोषण से बच्चों को सूखा रोग लग जाता है। न्यूनता की तरह अति भी असंतुलन उत्पन्न करती है और रुग्णता के चंगुल में कस लेती है। कामुक नरनारी यौन रोगों से घिरते और समय से पूर्व नपुँसक होते देखे गये हैं। यह अति अल्प या अति कर्म की परिणित है जो समान रूप से हानिकारक है। अधिक बैठने वालों की तोंद निकल आती है और अतिशय चलने वालों की कमर झुकने लगती है। अति मात्रा में भोजन या अति उपवास करने वाले सुगठित नहीं रह पाते।

शारीरिक श्रम आवश्यक है, भले ही वह कृषक, श्रमिक के रूप में हो अथवा सैनिक, धावक, खिलाड़ी आदि के रूप में। बिनोवा के आश्रम में कुएं से पानी निकालने के लिए चरस चलाने का काम स्वयंसेवक ही मिलजुल कर करते थे। वे बागवानी के सर्वोत्तम व्यायाम बताया करते थे। वे कहते थे कि “यह एक उत्पादक व्यायाम हैं।”

मस्तिष्क से काम लेना उचित है इससे ज्ञानवृद्धि, बौद्धिक-तीक्ष्णता का लाभ मिलता है पर इतना दिमागी श्रम भी न किया जाय, जिसमें एक ही विषय पर निरंतर सोचते रहा जाय। न अन्य विषयों पर ध्यान जाय और न अन्य कोई काम करने का अवसर रहे। यह अतिवाद सर्वथा हानिकारक है। कहते हैं कि अतिशय मात्रा में पिया गया अमृत भी विष हो जाता है। अतिशय कठोर तपस्या में निरत भगवान बुद्ध को दैवी प्रेरणा मिली भी कि वे मध्यम मार्ग अपनायें और संतुलित रीति−नीति अपनाते हुए जीवनयापन करें।

समय से पूर्व बूढ़े हो जाने और याददाश्त खो बैठने में एक बड़ा कारण बुद्धिजीवियों का किसी एक विषय में तन्मय हो जाना है। एक प्रकार के “एग्नेजिया” नामक मानसिक रोग में व्यक्ति भुलक्कड़ हो जाता है और कई बार तो अपना तथा अपने परिवार वालों का नाम तक भूल जाता है। कोई क्रिया कर चुकने के उपराँत उसी को करने की फिर से तैयारी करता है। उसे यह याद नहीं रहता कि इस काम को अभी-अभी किया जा चुका है।

बहुत लाड़-प्यार से बच्चे बिगड़ते हैं। उद्दंड होते और अनुशासन की अवज्ञा करते हैं। किंतु दूसरा पक्ष यह भी है कि जिन बालकों की कुरूपता या कन्या होने के कारण उपेक्षा होती है वे हीनता की ग्रन्थि से ग्रसित हो जाते हैं। पतितों के या ससुराल परिवार के अन्य लोगों द्वारा तिरस्कार किये जाने पर कई महिलाओं की घुटन हिस्टीरिया के रूप में परिणत होती है। उन्हें दौरे पड़ने लगते हैं या भूतोन्माद जैसी विकृतियाँ आरंभ हो जाती है। भयानक सपने देखना भी चिंताओं अथवा आशंकाओं के कारण होता है। बाइबिल में लिखा है कि अत्यधिक ज्ञान मनुष्य को उन्माद की ओर ले जाता है। दार्शनिक सिनेका अपने समय के असाधारण विद्वान थे पर उनकी आदतों और हरकतों में से कोई एक ऐसी थीं जिनके कारण उन्हें छिछोरा कहा जाने लगा था।

एन्टोनी चेखोव, मैक्सिन गोर्की, एलेक्जण्डर ब्लॉक, सैमुअल जॉनसन, जैसे विद्वान और साहित्यकारों की जीवन गाथाओं के वे प्रसंग भी आते हैं जिन्हें उनकी महत्ता को देखते है बचकाना ही कहा जा सकता है। नशीले पदार्थों से होने वाली मानसिक विकृतियों की चर्चा प्रायः होती रहती है पर अतिवाद जैसे आचरण अपनाने वाले मनुष्य भी अपनी बौद्धिक क्षमता गँवा बैठते हैं और अधपगलों जैसे आचरण करते देखे जाते हैं। जो लोग समाज से कटे रहते हैं, और अपनी निजी समस्याओं और आकाँक्षाओं पर ही विचार करते रहते हैं उन्हें संसार नीरस लगने लगता है। किसी अन्य के प्रति सेवा सहानुभूति का भाव न रहने पर व्यक्ति अपने आपकी भी उपेक्षा करने लगता है और तनिक के कारणों पर आत्महत्या कर बैठता है। संसार के जिन देशों में आत्महत्या करने वालों की संख्या बढ़ी हैं, वे लोग किसी भी प्रकार मरे हों, उनके सम्बंध में यही पाया गया है कि वे सार्वजनिक जीवन नहीं बिताते थे। घर में घुसे रहते थे और वार्ता सिर्फ अपनी आकाँक्षा-अभिलाषाओं की ही करते थे। अन्ततः वे ऊबते-ऊबते आत्महत्या का फैसला कर बैठे।

साहित्यकार वाल्टेयर की आयु मरने योग्य हो गयी थी पर उन्हें मृत्यु का भारी भय लगता था। जब वे सोचते कि मरना पड़ेगा तो असहाय बालक की तरह फूट-फूटकर रोने लगते। जर्मन दार्शनिक शाँपेनहाँवर ने छुरे से किसी की हत्या होते देखी थी, उन पर तब से आजीवन छुरे का भय छाया रहा और दाढ़ी बनाने तक में रेजर का प्रयोग न कर सके।

कई व्यक्ति कुछ चिंताओं और आशंकाओं को मन में बसाये रहते हैं। कोई विपत्ति आने की कल्पना करते रहते हैं। भाग्यवादी, भविष्यवक्ता उनके ऊपर ऐसा ही रंग चढ़ा देते हैं, फलस्वरूप वे डरते-डराते दिन काटते हैं और जिंदगी भर हारे, थके-माँदे टूटे और निराश रहते हैं।

परेशानियों से रहित किसी का जीवन नहीं। उनसे जूझना भी एक प्रकार का व्यायाम है। जो लोग केवल सुख-सुविधाओं ही में जीते हैं और चाहते हैं, उनका धैर्य, पराक्रम और साहस विदा हो जाता है। आयु भर का अभ्यास उन सभी पराक्रमों का बना रहना चाहिए जो जीवन में आमतौर पर काम आते हैं।


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