सर्वोपयोगी-सर्व सुलभ गायत्री साधना

January 1993

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गायत्री उपासना के सम्बन्ध में कई प्रकार की शंका-कुशंकाओं की, विधि-निषेधों की चर्चा होती रहती है। अक्सर यह सोचा जाता है कि उसके विधि-विधान में कोई गलती हो गई तो उससे अनिष्ट होगा। इसलिए लोग डरते हैं और यह जानना चाहते हैं कि कहीं कोई ऐसी चूक न हो जाय जिससे उन्हें लाभ के स्थान पर हानि उठानी पड़े। सही विधि के साथ हर काम करना उत्तम है। इसमें शोभा और सफलता दोनों की ही सम्भावना रहती है। चूक करने से इतना तो स्पष्ट है कि जैसा लाभ अपेक्षित है वैसा नहीं मिलता। इतने पर भी एक बात तो साफ है कि उससे किसी प्रकार के विपरीत प्रतिफल की या उलटा अशुभ होने की कोई आशंका नहीं है। गीता में भगवान कहते हैं-

“नेहा भिक्रम नाशोस्ति प्रत्यवायों न विद्यते। स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयरत्॥”

अर्थात्-इस मार्ग पर कदम बढ़ाने वाले का पथ अवरुद्ध नहीं होता। उलटा परिणाम भी नहीं निकलता। थोड़ा-सा प्रयत्न करने भी भय से त्राण मिलता है।

परमात्मा का नाम किसी भी स्थिति में लिया जाय उसका सत्परिणाम ही हो सकता है। दुष्परिणाम तो दुष्कर्मों के निकलते हैं। भगवत् उपासना कोई दुष्कर्म नहीं है। जान-बूझकर या अनजाने भी सत्कर्म करते रहने का थोड़ा-बहुत लाभ ही होता है। यह बात किसी के भी मन में नहीं आनी चाहिए कि किसी के विधि-विधान में कमी रह जाने से किसी प्रकार का अनिष्ट हो सकता है। वाल्मीकि ने उलटा नाम जपा था, उसके विधि-विधान में यह स्पष्ट त्रुटि थी। इतने पर भी भक्ति भावना और चरित्र दृष्टिकोण बदल देने के कारण उनकी उस विधान त्रुटि के कारण कोई हानि नहीं पहुँची बल्कि वे सफलता के साथ चरम लक्ष्य तक पहुँचने में सफल हो सके।

तत्वदर्शी मनीषियों ने यह निर्देश किया है कि उपासना विधान के सम्बन्ध में एक मार्गदर्शक नियुक्त होना चाहिए। इस नियुक्त होना चाहिए। इस नियुक्ति से पूर्व यह बात भली प्रकार जान ली जाय कि मार्गदर्शक का ज्ञान-अनुभव परिपक्व है या नहीं और उसके परामर्श को प्रामाणिक माना जा सकता है या नहीं? इस खोज-बिन में जल्दी भी न की जाय। अपना समाधान हर दृष्टि से भली प्रकार कर लिया जाय। किन्तु जब निश्चय हो जाय तो उसकी बात को ही प्रामाणिक मान कर चला जाय। हिन्दू धर्म में दुर्भाग्यवश पिछले दिनों धार्मिक है। फलस्वरूप हर प्रसंग में अनेकों प्रकार के परस्पर विरोधी मत मिलते हैं। इन सबको सुना और माना जाय तो फिर शंकाएँ इतनी अधिक बढ़ जायेगी कि उनका समाधान किसी प्रकार भी संभव न हो सकेगा। गायत्री मंत्र में एक तीन-पाँच ओंकार लगाने सम्बन्धी मतभेद आए दिन खड़े रहते है। वस्तुतः प्रत्येक वेद मंत्र की शुरुआत में एक बार ओऽम् (ॐ) लगाने का नियम है, वही पर्याप्त है। पर किसी को उसे अधिक लगाकर जप करने का आग्रह हो तो उसे भी रोकने की जरूरत नहीं। भगवान के अधिक नाम ले लेने में कोई हानि नहीं है।

शंकाओं में बहुचर्चित शंका यह भी मानी जाती है कि गायत्री का वर्ण व्यवस्था, वर्ग भेद के साथ कोई सम्बन्ध है क्या? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि परमेश्वर की परम पावनी, परम सामर्थ्य सम्पन्न ऋतंभरा चेतना शक्ति का नाम गायत्री है। वह सूरज की तरह सर्वत्र अपना प्रकाश फैलाती है और बादलों की तरह बिना भेदभाव के बरसती है। चन्द्रमा की चाँदनी में बैठने का हर किसी को अधिकार है। आकाश की छत्र छाया में कोई भी बैठ सकता है। पवन का अभीष्ट उपयोग किसी के भी द्वारा सम्भव है। गंगा स्नान की हर किसी को छूट है। गायत्री सार्वभौम, सर्वजनीन, सर्वसुलभ मंत्र है। उसमें हर आत्मा को पवित्र बनाने-ऊँचा उठाने की शक्ति है। माता को अपने सभी पुत्र प्रिय हैं, इनमें से किसी को माँ के प्यार से वंचित नहीं किया जा सकता। देश, धर्म, जाति, वर्ण सम्प्रदाय से गायत्री महाशक्ति अधिक ऊँची है। सभी सीमा बन्धन मनुष्य कृत है। भगवान की व्यवस्था में इस प्रकार के कोई विभाजन नहीं हैं। अस्तु गायत्री उपासना किसी भी जाति, धर्म, देश का व्यक्ति कर सकता है।

गायत्री ब्राह्मण की कामधेनु है-इस कथन का तात्पर्य उसकी उपासना को किसी जाति-वंश विशेष तक सीमित करना नहीं वरन् यह कि श्रेष्ठ आचरण वाले परमार्थ-परायण ब्रह्मवृत्ति के व्यक्ति उस उपासना का समुचित लाभ उठा सकते है। उसमें सत्पात्रता को, व्यक्तित्व की उत्कृष्टता को बढ़ो का प्रोत्साहन भर है। यही बात स्त्री-पुरुष के भेदभाव के सम्बन्ध में भी है। भारतीय संस्कृति की अन्तरात्मा में आदि से अन्त तक मानवीय समानता का ही प्रतिपादन भरा पड़ा है। आर्षवाङ्मय के अनुसार स्त्रियाँ भी पुरुषों की भाँति सदा से धर्म कृत्यों में प्रवेश पाती रही हैं। गायत्री उपासना तो आदि शक्ति की ही उपासना है। फिर इसमें शक्ति स्वरूपा नारियों को वंचित रखना-किस प्रकार सम्भव है? माता और बेटी के बीच किसी प्रकार के प्रतिबन्ध हो ही नहीं सकते।

यज्ञोपवीत पहने बिना भी क्या गायत्री उपासना हो सकती है? इस प्रश्न चिह्न के उत्तर में यही कह सकते है कि यज्ञोपवीत पहनना और गायत्री मंत्र जपना अधिक प्रशंसनीय है। इसे सोने में सुहागा मिलने पर अधिक चमक आने की तरह अच्छा मान जायगा। पर सुहागे के बिना सोने का कोई उपयोग ही नहीं है, ऐसी बात नहीं है। शिखा और सूत्र-दोनों भारतीय-संस्कृति के प्रतीक चिह्न हैं। इन्हें धारण करना धर्म परम्परा का निर्वाह ही माना जायगा, पर जो धारण नहीं करते वे गायत्री भी जप न करें-यह तो ऐसा है जैसा कि यह कहना कि जिन्हें मिष्ठान उपलब्ध नहीं है वे अन्न भी न खायें। एक भूल तो यह कि शिखा-सूत्र रखने में उपेक्षा की गई। दूसरी भूल ऊपर से यह लाअ ली कि यज्ञोपवीत नहीं पहनते तो गायत्री उपासना भी क्यों करें? जिस औचित्य को नहीं अपनाया गया है-उसे अपनाने की बात सोचनी चाहिए। जनेऊ के साथ-साथ गायत्री भी छोड़ देना तो दुहरी गलती है। बिना जनेऊ पहने भी गायत्री उपासना भली प्रकार सम्भव है।

जिन्हें बीमारी, कमजोरी या अन्य किसी कारणवश उपासना से पूर्व स्नान करने की सुविधा नहीं रहती, वे भी गायत्री साधना कर सकते हैं। यों तो स्नान और वस्त्र शुद्धि की प्रशंसा ही की जायगी। पर हाथ-पैर और मुँह धोकर, पसीने वाले वस्त्र बदलकर भी उपासना हो सकती है। यहाँ तक कि रास्ता चलते, शारीरिक श्रम करते समय भी मंत्र जप चलता रह सकता है। ऐसी स्थिति में मुँह बन्द कर, मन ही मन मानसिक जप करने का विधान है।

रात्रि में जप हो सकता है या नहीं? इसमें भी कोई गंभीर बात नहीं है। सामान्यतया दिन काम करने और रात्रि विश्राम के लिए है। दिन भर का हारा थका शरीर मनोयोग-पूर्वक प्रसन्नता एवं उत्साह के साथ जप ध्यान नहीं कर सकता। रात्रि को जल्दी सो जाने-सुबह जल्दी उठ जाने का नियम शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से उत्तम है। इसी को ध्यान में रखकर सूर्यास्त के एक घण्टा पश्चात् तक जप पूरा कर लेने और प्रातः दो घंटा पूर्व आरम्भ करने का मोटा नियम बनाया गया था। प्राचीन काल में रात्रि में प्रकाश की वैसी सुविधा नहीं थी, जैसी आज है। ऐसी दशा में उन दिनों वह व्यवस्था उचित थी। किन्तु आज जब कि लोगों को दिन निकलते ही काम पर चला जाना होता है और रात्रि देर से घर आने का अवसर मिलता है। ऐसी स्थिति में यदि रात्रि को भी उपासना के लिए प्रतिबन्धित रखा जाय तो फिर उपासना के लिए कोई समय न बचेगा। पूज्य गुरुदेव के जीवन के पृष्ठो से स्पष्ट है कि उनके 24 लक्ष के 24 महापुरश्चरणों का जप रात्रि एक डेढ़ बजे से आरम्भ होता रहा है।

माला की सुविधा न हो तो गायत्री जप हो सकता है या नहीं? इसमें इतना जान लेना ही पर्याप्त है कि जप करने के लिए जितना समय निश्चित किया जाय, नियमित रूप से लगना चाहिए। घट- बढ़ होने से समस्वरता नहीं बनतीं। समय की गणना इन दिनों घड़ी से हो सकती है। प्राचीन काल में इसे हाथ से माला घुमाकर पूरा किया जाता था। इससे यह पता चलता था कि नियत समय तक जप पूरा हुआ या नहीं। माला घुमाकर पूरा किया जाता था। इससे यह पता चलता था कि नियत समय तक जप पूरा हुआ या नहीं। माला का यही मूल प्रयोजन है। किसी को किसी कारणवश माला की सुविधा न हो तो नियत समय की गणना छः मिनट में एक माला पूरी हो जाती है। जितनी माला अपनी हो, उसके हिसाब से घड़ी के द्वारा भी समय नियत रखा जा सकता है। यों माला के साथ परम्परागत श्रद्धा जुड़ी रहने से उसका भावात्मक महत्व तो है ही। इसी भावात्मक उल्लास से ओत-प्रोत होकर अपनी श्रद्धा और सामर्थ्य का नियोजन गायत्री उपासना में करत रहना चाहिए। परम पूज्य गुरुदेव का जीवन-क्रम समस्त वैदिक वाङ्मय का जीवन्त भाष्य है और गायत्री महाविज्ञान उसकी साधनात्मक अनुभूतियों का रसामृत। इसका श्रद्धाभाव से अवगाहन उपासकों की समस्त शंकाओं को निर्मूल करता रहेगा। इसके अतिरिक्त अखण्ड ज्योति के पृष्ठो में प्रकाशित उनकी विचार चेतना की रश्मियाँ-हृदयगत संशय,अन्धकार को दूर भागने के लिए सर्व-समर्थ हैं। फिर भी जिनके मन में शंका उठे, वह शान्ति-कुंज से निःसंकोच पत्र-व्यवहार करके मार्गदर्शन प्राप्त करते रह सकते हैं।


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