कुकल्पनाओं का अनौचित्य

January 1993

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जिस प्रकार नशीली वस्तुएँ तथा मिर्च मसाले की उत्तेजना शरीर और मन को हानि ही हानि पहुँचाती है, उसी प्रकार कुछ मानसिक कल्पनाएँ भी हैं जो अनावश्यक उत्तेजना उत्पन्न करती हैं और अत्यंत हानिकारक प्रतिक्रियाओं को जन्म देती हैं। इसी प्रकार कुछ मानसिक आवेश भी हैं जो सर्वथा अनावश्यक होते हुए भी कृत्रिम उत्तेजना के कारण अपना विषैला प्रभाव उत्पन्न करते और मात्र हानि ही हानि पहुँचाते हैं।

साधारण से मतभेदों या गलतफहमियों में विरोध, विद्वेष मान लिया जाय, जो उसकी प्रतिक्रिया क्रोध के रूप में उबलने लगती है। बात बढ़ती है और कटु भाषण से लेकर बात हाथापाई और मार-पीट तक जा पहुँचती है। कई बार तो आक्रामकता तक जाग पड़ती है और ऐसे अनर्थ खड़े कर देती है जिनके लिए पीछे पछताना ही शेष रह जाता है। चिंता, भय, निराशा, आशंका जैसे उद्वेग भी ऐसे होते है जिनके पीछे मात्र कुकल्पना ही होती है। तिल का ताड़ बन जाता है और राई का पहाड़ बन जाता है। गहराई में उतर कर कारण खोजने पर प्रतीत होता है कि बात छोटी-सी थी पर उस पर कुकल्पनाओं का पुट लगाते रहने पर मानसिक विक्षोभ इस हद तक बढ़ जाता है कि उससे अपनी और दूसरों की शाँति ही नष्ट हो जाती है।

इन आवेशों को मनोविकार की ही संज्ञा दी जा सकती है तथा इन्हें किसी अति कष्टकारक शारीरिक रोग से कम नहीं माना जा सकता। शरीर में संग्रहित विजातीय द्रव्य जैसी हानि पहुँचाते हैं वैसी ही विपन्नता-विकृत कल्पनाओं से उत्पन्न मनोविकार भी पहुँचाते देखे गये हैं। इन्हीं अवाँछनीय आवेगों में कामुकता भी है। वह कल्पना क्षेत्र में सीमित रहने पर अश्लील संभावनाओं-आशाओं तथा उपलब्धियों का ताना-बाना बुनती रहती है जिनके साकार होने की न तो संभावना रहती है और न तद्नुरूप परिस्थितियाँ बनने की आशा की जा सकती है। अश्लील कामुकता की दृष्टि से देखने पर विभिन्न नर-नारियों के सम्बंध में ऐसे सोच उभरते हैं जिनको सर्वथा अव्यावहारिक ही कहा जा सकता है। हर परिवार में कई नर-नारी मिलजुलकर निवास, निर्वाह करते हैं। इनमें से कई युवक-युवती भी होते हैं किंतु भावना की पवित्रता एवं स्वाभाविक रहने पर कोई किसी के सम्बंध में अचिंत्य नहीं करता। मन में घिनौने स्तर की कल्पना तक नहीं उठती। पर कल्पना क्षेत्र में अवाँछनीयता जग पड़ने पर ऐसे कल्पना चित्र उभरने लगते है। इन कुकल्पनाओं में से कदाचित ही कभी कोई साकार हो सकी हो।

संसार के प्राणियों में प्रायः आधे नर और आधे मादा होते है। वे मिलजुल कर साथ-साथ रहते और दैनिक निर्वाह क्रम चलाते हैं। कोई किसी के प्रति न तो अश्लील कल्पना करते हैं और न वे वैसा कुछ घटियापन दिखाने की अपेक्षा करते हैं। गर्भ धारण का एक विशेष अवसर होता है। इस समय मात्र मादा अपनी आवश्यकता जताती है। नर उसकी इच्छा-आवश्यकता की पूर्ति कर देता है। यह सारा प्रसंग कुछ घड़ियों में ही समाप्त हो जाता हैं और फिर वे अपने-अपने साधारण स्वाभाविक आचरण की स्वाभाविक स्थिति में आ जाते हैं। कोई किसी के प्रति अश्लील भाव-प्रदर्शन नहीं करता। ऐसी स्थिति आजीवन भी बनी रह सकती है। पहल यदि इंस्टीक्ट्स के कारण न हो तो। यही स्थिति मनुष्य के सम्बंध में भी है। कामुक स्तर का चिंतन न तो स्वाभाविक है और न आवश्यक। यह वस्तुतः एक प्रकार की मानसिक विकृति है, जिसका कारण निजी कुकल्पना भी हो सकती है अथवा साहित्य, चित्र, दृश्य, घटनाक्रम आदि भी ऐसे भड़काने का निमित्त कारण हो सकते हैं। अन्यथा नर और नारी परस्पर सहयोगी या मित्र की तरह स्वाभाविक शीलवान जीवन जी सकते हैं तथा पवित्रता एवं प्रसन्नता से भरा-पूरा निर्वाह कर सकते हैं। इन मनोविकारों से बचने में ही मनुष्य का हित है।

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