सादगी का परिपालन यह बताता है कि इस व्यक्ति की वृत्तियाँ लक्ष्य में केन्द्रित हो गई है। जिस व्यक्ति में जितनी अधिक सादगी होगी वह व्यक्ति उतना अधिक जीवन-लक्ष्य की ओर अभिमुख होगा। “साध्य को तिरस्कृत कर साधनों के लोभ और मोह में जकड़ा हुआ-दूसरों के लिए कुछ कर सके यह निताँत असंभव है। ऐसे लोग पहले अपनी सांकलें तोड़े, फिर आगे की सोचे।” ये उद्गार उस कर्मठ साधिका के है जिन्होंने समूचा जीवन इसी मंत्र की साधना में बिताया।
यह और कोई नहीं लौह पुरुष के नाम से पहचाने जाने वाले सरदार पटेल की पुत्री मणि बहन थीं। जिनके बारे में पटेल साहब कहा करते थे-कि “यदि मणि न होती तो मैं न जाने कब का मर गया होता”
एक बार मणिबेन अपने पिता को कुछ दवाई पिला रही थीं-कि वरिष्ठ काँग्रेसी महावीर त्यागी अपने कुछ साथियों के साथ कमरे में दाखिल हुए। बात-चीत के दौरान देखा कि उनकी धोती में जगह-जगह पैबंद लगे है। त्यागी जी ने देखकर कहा- मणिबेन तुम तो अपने को बहुत बड़ा आदमी मानती हो। तुम एक ऐसे बाप की बेटी हो जिसने साल भर में इतना बड़ा चक्रवर्ती राज्य स्थापित किया है, जितना बड़ा न अकबर का और न अशोक का। ऐसे बड़े सरदार की बेटी होकर तुम्हें इस तरह के दसियों पैबंदों से गुँथी धोती पहनने में शर्म नहीं आती?
मणि ने कहा-”शर्म आए उनको जो झूठ बोलते, बेईमानी करते और शेखी बघारते है, हमको क्यों शर्म आए।” त्यागीजी ने पुनः कहा-यदि इसी शहर में निकल जाओ तो लोग तुम्हारे हाथ में दो पैसे यह कहकर रख देंगे कि भिखारिन जा रही है। यह बात सुनकर सरदार साहब भी खूब हँसे। “यह तो बहुत अच्छा होगा, यह मेरी दवाइयों के लिए पैसे इकट्ठा कर लायेगी।” वहीं डॉ. सुशीला नायर भी थीं--उन्होंने बात को काटते हुए कहा-त्यागी जी किससे बात कर रहे हैं? मणि बहन दिन भर सरदार जी की बड़ी सेवा करती हैं, फिर डायरी लिखती है और फिर नियम से चरखा काटती हैं। जो सूत बनता है, उसी से सरदार के धोती-कुर्ते बनते है। आपकी तरह पटेल साहब का कपड़ा खद्दर भण्डार से थोड़े ही आता है। जब सरदार साहब के धोती-कुर्ते फट जाते हैं, तब उन्हीं को काटकर मणिबेन अपने लिए धोती-ब्लाउज बनाती है। उपस्थित लोग अवाक् हो सारी बातें सुन रहे थे। समाप्ति पर सभी के मुख से एक साथ निकला-ओह! कितनी पवित्र आत्मा है मणिबेन। तब तक सरदार बोल उठे-”अरे भाई! गरीब आदमी की लड़की है, अच्छे कपड़े कहाँ से लाये? उसका बाप कोई कमाता थोड़े ही है। “ उन्होंने अपने चश्मे का केश दिखाया, जो लगभग बीस बरस पुराना था। इसी तरह तीसियों बरस पुरानी घड़ी और एक कमानी का चश्मा देखा जिसके दूसरी ओर धागा बंधा था। स्वतंत्र भारत के पहले गृह मंत्री और उप प्रधानमंत्री के परिवार की यह स्थिति देखकर सभी लोग हतप्रभ रह गए। मणिबेन ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा-”शोभा की परिभाषा बदलनी होगी, इसके सार को पहचानना होगा। आदि काल से इस देश ने त्याग को सर्वोत्तम शोभनीय माना है। आपके अनुसार देखा जाय-तो बापू, महात्मा, बुद्ध, स्वामी विवेकानंद, लंगोटधारी दयानंद, नंगे फिरने वाले तैलंग स्वामी निताँत अशोभनीय और असभ्य थे।”
“क्या यह सच है? यदि नहीं तो जान लीजिए, व्यक्ति की शोभा आँतरिक गुणों को उभारने, उनके द्वारा व्यवहार को निखारने, सभी में परमात्मा को देखने और उसकी सेवा में जुट पड़ने में है। साधनों को बटोरने में लगा हुआ कभी शोभनीय नहीं हो सकता। उसे स्वर्णालंकारों के भार से दबा हुआ देखकर भी पाखण्डी, लालची ही कहा जायेगा।” “नैतिक दृष्टि से स्वस्थ जीवन जी सके-इसके लिए जरूरत है सच्चाई को पहचानने और अंगीकार करने की, जो केवल सादगी रूपी परहेज से ही संभव है।” मणिबेन का यह कथन सुन सभी स्तब्ध रह गये और नत मस्तक हो एक-एक कर चलते बने।