अग्नि तत्व-प्राण है देव संस्कृति का

January 1993

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वैदिक काल में देवताओं की प्रतिमा पूजन की परम्परा नहीं थी। उन दिनों एक ही परब्रह्म की मान्यता थी और उसका प्रतीक अग्निदेव को माना जाता है। ऋषियों ने जिन प्राकृत शक्तियों की स्मृति व प्रशंसा की है उनमें अग्नि का स्थान सर्वप्रथम है। ऋग्वेद का प्रथम मंत्र एवं शब्द अग्निदेव की स्तुति से ही आरंभ होता है। यह अग्नि ही यज्ञ का मुख्य अग्रणी, पुरोहित एवं संचालक है, क्योंकि उसी से इस विश्व ब्रह्मांड में रूप है, दर्शन है और प्रकाश है। उसी के आलोक से समस्त विश्व आलोकित है। उसी ज्ञान स्वरूप प्रकाशक, चेतना शक्ति की शासिका एवं अधिष्ठात्री अग्नि की अभ्यर्थना, उपासना से जीवन पवित्र बनता, आत्मोन्नति होती और अमृतत्व की प्राप्ति होती है।

देवताओं में सर्वप्रथम एवं सर्व समर्थ अग्निदेव की उत्पत्ति हुई। इसके गीता गीता से लेकर वेद-पुराणों तक में कितने ही प्रमाण मिलते हैं। महाभारत, अश्वमेधिक पर्व, 92 वें अध्याय में उल्लेख है-

“ब्रह्मत्वेनासृजं लोकानहमादौ महाद्युते।सृष्टोऽग्निर्मुखतः पूर्व लोकानाँ हितकाम्यया॥”

अर्थात् श्री भगवान ने कहा-”महातेजस्वी राजन! मैंने सबसे पहले ब्रह्मस्वरूप से लोकों को बनाया। लोगों की भलाई के लिए मुख से सबसे पहले अग्नि को प्रकट किया।” इसी अध्याय के वैष्णव पर्व में कहा गया है-”सभी भूतों से पहले अग्नि तत्व मेरे द्वारा पैदा किया गया,” इसलिए पुराण ज्ञाता मनीषी उसे ‘अग्नि’ कहते है।

भौतिक शक्तियों के उद्भव एवं उपयोगी परिवर्तनों में अग्नि का उपयोग प्रधान रूप में होता है। भोजन पकाने से लेकर धातु परिशोधन तक के अनेकानेक कार्य अग्नि द्वारा सम्पन्न होते हैं। तेल, कोयला, भाप, बारूद जैसे ईंधनों के सहारे अपने युग में यंत्रों का संचालन होता है। अग्नि का उपयोग केवल मनुष्य ही जानता है, अन्य प्राणी तो उससे दूर भागते हैं। अग्नि का है, उतना और किसी का नहीं। विद्युत भी अग्नि का एक विशेष प्रकार ही है। अणु-विखण्डन एवं विकिरण जैसे माध्यमों से प्रकट की जाने वाली ऊर्जा अग्नि ही है जो एक विशिष्ट तापधारा कही जा सकती है।

आत्मिक प्रयोजनों में अग्नि का और भी विशिष्ट उपयोग है। तपश्चर्या, योग साधना में अग्नि की समीपता और सहायता से अनेकों उपासनात्मक उपचार होते है। अग्निपूजा ही यज्ञ का प्रधान विषय है। न्यायदर्शन 4/1/62, मनुस्मृति-1-22, सिद्धाँत शिरोमणि (गणिताध्याय), गोपथ ब्राह्मण (1/4/24), गीता (4/22), ऋग्वेद (1/1/1), अनेकानेक आप्त वचनों में उपासनात्मक एवं अध्यात्म प्रयोजनों में अग्नि को प्रमुख माध्यम माना गया हैं। उसके प्रकटीकरण एवं क्रियान्वयन की पद्धति को अग्निहोत्र कहते हैं। भौतिक अग्नि में जब तक मनुष्य का परिचय नहीं था, तब की पिछड़ेपन और आज उस महाशक्ति के सहारे संभव हुई प्रगति वाली स्थिति की तुलना करते हैं तो दोनों के मध्य जमीन-आसमान जैसा अंतर दिखायी पड़ता है। यही बात दैवी अग्नि के संपर्क के बिना और उसकी सहायता से संभव आत्मिक प्रगति के बारे में भी कही जा सकती है। दैवी शक्तियों के साथ संपर्क बनाने और अनुग्रह पाने में अग्नि का सहयोग असाधारण है। अगरबत्ती, धूप, दीप में अग्नि की ही गरिमा है।

यज्ञाग्नि तो प्रत्यक्ष ही विष्णु स्वरूप है। ऋग्वेद 7/11/1 के अनुसार अग्नि के बिना देवता की अनुकम्पा प्राप्त नहीं होती। ऋग्वेद 7/1/7-7/11/1 तथा अथर्ववेद 5/12/2 के अनुसार हमारे अनुदान और प्रतिवेदन देवताओं के पास तक अग्नि के माध्यम से पहुँचते हैं। शतपथ ब्राह्मण 3-7-4-10, सांख्यायन - ब्राह्मण 3-7, महाभारत 7/7/10 में अग्नि को ही देवताओं का मुख बताया गया है। वे इसी माध्यम से मनुष्यों की भेंट स्वीकार करते और अपने वरदान उस पर उड़ेलते हैं। अग्नि को संस्कारित कर उसमें श्रद्धा-भावना-भावना के साथ एवं विधि-विधान के साथ जो भी आहुति दी जाती है, उसे देवता ग्रहण कर प्रसन्न होते हैं और मनुष्यों की सुख-सुविधा का संवर्धन करते है। उन्हें श्रेष्ठ बनाते हैं। स्वर्ग तक आत्मा को पहुँचाने वाला वाहन यज्ञाग्नि ही है। ब्रह्मांड की नाभि-ध्रुव केन्द्र जैसी आधारभूत सत्ता इसी में है। प्रत्यक्ष अग्नि पूजा यज्ञ का उपचार स्वरूप है, किंतु वह इतने तक ही सीमित नहीं है। वह अध्यात्म का चेतना जगत का अति प्रभावशाली ऊर्जा केन्द्र है जिसके सहारे व्यक्ति सूक्ष्म जगत से संपर्क साधने में समर्थ होता है। इस सम्बंध में ऋषि-मनीषियों का प्रतिपादन गंभीरतापूर्वक समझा जाना चाहिए। उनने ‘अग्नि तत्व’ को तीन भागों में विभाजित किया है और प्रत्येक का अलग-अलग महत्व और उपयोग बताया है। ये हैं-(1) पावक (2) पवमान और (3) शूचि। ‘पावक’ वह है जो गर्मी उत्पन्न करती है, चूल्हा जलाने जैसे लौकिक कार्यों में प्रयुक्त होती है। ‘पवमान’ मनुष्य की काया में रहने वाली वह अग्नि है जो भोजन पचाने से लेकर गतिशीलता तक के अनेक क्रिया-कलापों में काम आती है। तप, संयम द्वारा इसी को बढ़ाया जाता है और व्यक्तित्व के हर पक्ष को प्रखर किया जाता है। तीसरी-’शुचि’ वह है जिसके सहारे वातावरण को प्रभावित किया जाता है, अदृश्य जगत को अनुकूल बनाया जाता है। विश्व व्यवस्था को वही प्रभावित करती है।

यह विज्ञान के पावक का प्रयोग होता है जिसमें अग्निहोत्र के माध्यम से लौकिक प्रयोजनों में आने वाली ऊर्जा को विकृत होकर ऋतु प्रभावों और प्रकृति उपद्रवों के प्रेरक नहीं बनने दिया जाता और इस स्तर को देखा जाता है कि वह वर्षा से लेकर तूफानों तक की सभी हलचलों को जीव-जगत के लिए उपयोगी बनाये रह सके। पवमान को व्यक्तित्व के सर्वतोमुखी विकास के लिए प्रयुक्त किया जाता है। कषाय-कल्मषों की कुसंस्कारिता भी इसी से दूर होती है। सद्गुणों, सत्प्रवृत्तियों एवं विभूतियों को इसी आधार पर पाया-बढ़ाया जाता है। पवमान को साधना क्षेत्र की प्राण ऊर्जा कहा जा सकता है। तीसरी शुचि है जिसकी समर्थता और व्यापकता अत्यधिक है। उसके सहारे अदृश्य जगत के प्रवाह को निकृष्टता की विभीषिका उत्पन्न करने से रोका जा सकता है और सुखद संभावनाओं से भरा-पूरा सतयुग की स्थापना में योगदान लिया जा सकता है। इस प्रकार संक्षेप में अग्नि के तीन क्षेत्र ऊर्जा, प्रखरता एवं विश्व नियामक शक्तियों के रूप में जाना जा सकता है। यज्ञाग्नि का स्वरूप ऐसा बनाया जाता है कि उसके द्वारा पवमान और शुचि की भूमिका सम्पन्न की जा सके।

पावक, पवमान एवं शुचि के अतिरिक्त प्रयोग एवं प्रयोजन-भेद से संस्कार प्रक्रिया में अग्नि के और भी अनेकों नामकरण हुए हैं। गोमिल पुत्रकृत संग्रह में कुछेक के नाम इस प्रकार हैं-”अग्नेस्तु मारुतो नाम.....क्रव्यादों मृत भक्षणे।” अर्थात् गर्भाधान में अग्नि को मारुत कहते हैं। पुँसवन में ‘चंद्रमा’ शऽ्गणकर्म में ‘शोभन’ सीमन्त में ‘मंगल’ जातकर्म में ‘प्रगल्भ’ नामकरण में ‘पार्थिव’ अन्नप्राशन में ‘शुचि’ चूड़ाकर्म में सत्य, व्रतबंध अर्थात् उपनयन में ‘समुद्भव’ गोदान में ‘सूर्य’ तथा केशाँत (समावर्त्तन) में ‘अग्नि’ कहते हैं। विसर्ग अर्थात् अग्निहोत्रादि क्रिया-कलापों में ‘वैश्वानर’, विवाह में ‘योजक’, चतुर्थी में ‘शिखी’, धृति में ‘अग्नि’, प्रायश्चित-अर्थात् प्रायश्चित्तात्मक महाव्याहृत होम में ‘विधु’, पाकयज्ञ में ‘साहस’ लक्षहोम में ‘वन्हि’, कोटिहोम में ‘हुताशन’, पूर्णाहुति में ‘मृड़’, शाँति में ‘वरद’, पौष्टिक में ‘बलद’, अभिचारक में ‘क्रोधाग्नि’ वशीकरण में ‘शमन’, वरदान में ‘अभिदूषक’, कोष्ठ में ‘जठर’, और मृतभक्षण में ‘क्रव्याद’ कहा गया है।

योगाग्नि अथवा ज्ञानाग्नि शब्दों में भी ‘अग्नि’ का ही प्रयोग हुआ है। गीता में कथन है-

“ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मासात्कुरुते तथा।ज्ञानाग्नि दग्ध कर्माणं तमाहुः पण्डित बुधाः॥”

इस प्रकार अनेक नामों से प्रख्यात अग्नि तत्व के विभिन्न उद्देश्य एवं प्रयोजन हैं। अग्नि का शब्दार्थ है-ऊर्ध्वगामी। अगि-गतौ, अर्गना लोपश्च, अंग-नि और न का लोप -इस व्याकरणिक विश्लेषण से अग्नि शब्द से अग्नि तत्व में ऊर्ध्वगमन की विशेषता का संकेत मिलता है। वस्तुतः है भी वैसी बात-अग्निशिखा सदा ऊपर की ओर उठती है। उसके माध्यम से उठने वाला धुआं भी ऊपर की ओर ही चलता है। भाप की दिशा भी वही है। हवा गरम होने पर न केवल फैलती है, वरन् ऊपर की ओर भी बढ़ती है। यही क्रिया-कलाप चेतना को प्रभावित करने वाली ‘यज्ञाग्नि’ की भी है। वह संपर्क साधने वालों को ऊँचा उठाती-आगे बढ़ाती है। उत्कर्ष की उमंगे उठाने और तद्नुरूप साहस प्रदान करने में यज्ञाग्नि के माध्यम से असाधारण योगदान मिलता है।

भगवान की उपासना के जो-जो भी लाभ अध्यात्म तत्व दर्शन, शास्त्र निर्धारण, आप्त वचन एवं योगी-तपस्वियों के अनुभव बताते हैं, उन सबको ब्रह्मविद्या के महामनीषी यज्ञाग्नि के माध्यम से भली प्रकार उपलब्ध होने की बात कहते हैं। उपासनाओं के लिए अन्य इष्टदेवों का भी निर्धारण हो सकता है, पर उन सब प्रक्रियाओं में अग्नि को इष्ट मान लेना कहीं अधिक श्रेयस्कर है। उपासना कृत्यों की अनेकानेक विधि-व्यवस्थाओं में ‘अग्नि पूजन’ को अधिक वरिष्ठता इसलिए भी प्रदान की गयी है कि उसके अवलम्बन से मानवी गरिमा को बढ़ाने वाले देवत्व और वर्चस्व की उपलब्धि सहज एवं शीघ्र होती है।


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