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January 1993

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अन्य सभी प्रगति प्रयासों की तरह अध्यात्मिक प्रगति के भी दो पक्ष है। एक है पात्रता का सम्पादक- योग्यता का विकास। दूसरा है तद्नुरूप उत्तरदायित्वों की-अधिकारों की उपलब्धि और उनका निर्वाह। बिना योग्यता के कहीं, कोई, किसी को बहुमूल्य सम्पदा प्रदान नहीं करता। भला अपनी बेटी कोई किसी कुपात्र के हाथों में कैसे सौंप देगा? किसी के हाथ अपने कारखाने की अर्थव्यवस्था क्यों कर सुपुर्द करेगा?

बादल सर्वत्र बरसते हैं पर उस पानी को जमा करना छोटे या बड़े बर्तनों के हिसाब से ही सम्भव होता है। छोटे गड्ढे या बड़े सरोवर में उनके विस्तार के अनुरूप ही पानी जमा हो पाता है। प्रतियोगिताओं में जीतने वाले ही पुरस्कृत होते हैं। पद उन्हें ही सौंपे जाते है जो उन्हें निर्वाह कर सकने की क्षमता को खरी सिद्ध करके दिखाते हैं। सोने का मूल्याँकन उसे कसौटी पर घिसने और आग में तपाने के आधार पर किया जाता है। यही पात्रता है जो आध्यात्मिक प्रगति की पहली सीढ़ी है।

ईश्वर का प्यार और अनुदान उसकी हर संतान के लिए प्रचुर प्रमाण में विद्यमान है पर उसकी उपलब्धि पात्रता के अनुरूप ही होती है। किसी के लिए चपरासी बनना भी सौभाग्य है और किसी को जिस श्रेणी का अफसर बनाया गया है उसे उससे भी बड़ी पदोन्नति जल्दी ही मिल जाती है। इसमें भेदभाव या पक्षपात जैसा कोई अन्याय नहीं। ऊँची श्रेणी में उत्तीर्ण होने वाले ही पुरस्कृत होते और छात्रवृत्ति पाते हैं।

दैवी अनुग्रह और अनुदान प्राप्त करने के लिए ये प्रमाणित करना पड़ता है कि पार्थी ने उसके लिए उपयुक्त प्रामाणिकता अर्जित कर ली है। इतना कर चुकने के उपराँत योग्यता का मूल्य प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं आती। किंतु यदि इससे बचकर नियुक्तिकर्ता की मनुहार कर छुट-पुट उपहारों के सहारे फुसलाने का प्रयास करें और अपना उल्लू सीधा करने के लिए स्वामी भक्ति की दुहाई दे तो उसका सफल होना कहाँ तक सम्भव है? बैंक में ढेरों रुपया होने पर भी किसी का उतना बड़ा ही चेक स्वीकारा जाता है जितनी उसकी अमानत जमा है। कर्ज भी वापस किये जाने की गारण्टी पर मिलती है। इन मर्यादाओं की उपेक्षा करके कोई मैनेजर का स्तवन, अभिवादन या पुष्प अक्षत भेंट करके मनचाही राशि प्राप्त नहीं कर सकता। इस विश्व व्यवस्था का कण-कण नियम मर्यादाओं में बँधा है, ईश्वर भी। उससे कोई नाक रगड़ कर, गिड़गिड़ाकर, कुछ ऐसा प्राप्त नहीं कर सकता जो शानदार हो और आकाँक्षाओं के अनुरूप हो। ईश्वर से बहुत कुछ पाया जा सकता है किंतु नियत मर्यादाओं के अनुरूप ही।

जिन अध्यात्मिक अनुदानों की पात्रता के अनुरूप हमें उच्च स्तरीय वृद्धि-सिद्धियाँ मिलती है, उन्हें व्यक्तिगत जीवन की पवित्रता और प्रखरता कहा जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में उन्हें चिंतन और चरित्र की प्रमाणिकता भी कहा जा सकता है। सर्वप्रथम साधक को इसी के लिए प्रयत्न करना होता है। अगली उपलब्धियाँ प्राप्त करने वाला पक्ष अति सरल है। रंगाई से पहले धुलाई आवश्यक है। बोने से पहले खेत जोतना पड़ता है। ईश्वर की अनुकंपा पाने के लिए भी यही करना पड़ता है।

जुताई, बुआई, सिंचाई का प्रबंध बन पड़ने पर ही फसल लहराती है और कोठा भरने जितनी उपज देती है। अध्यात्म क्षेत्र में इन्हीं तीन प्रयासों को उपासना, साधना और आराधना कहते हैं। उपासना ईश्वर की, साधना अपनी और आराधना समाज की। इन्हीं तीनों का मिलन गंगा, यमुना, सरस्वती का मिलन त्रिवेणी संगम कहलाता है और उसका अवगाहन करने वाला हर दृष्टि से कृतकृत्य बनता है।

उपासना कहते हैं-भगवान के समीप बैठने को। महान तत्वों की समीपता भी असाधारण लाभ प्रस्तुत करती है। स्वाति बूँद सीपी में पड़कर मोती बनती है और बाँस के संयोग से वंशलोचन। चंदन के निकट उगे हुए झाड़-झंखाड़ भी महकने लगते हैं। फूलों पर बैठने वाली मधुमक्खी ढेरों शहद एकत्रित कर लेती है। राजा के चपरासी की भी इज्जत होती है। ईश्वर के पास बैठना अर्थात् उपासना कैसे हो? इसका उपाय है उसके साथ अपने आप को जोड़ देना। इसमें अपनी हस्ती, अपनी इच्छा मिटाकर ईश्वर को, निज को समर्पित करना पड़ता है। नाला नदी में मिलता है, बेल पेड़ पर चढ़ती है, ईंधन आग में जलता है और तद्रूप बन जाता है। पत्नी अपना व्यक्तित्व अलग न रखकर पति में घुला देती है। फलस्वरूप वह विवाह होते ही पति की सम्पदा में साझीदार हो जाती है और उत्तराधिकार की दावेदार बनती है। ये लाभ वैश्या को नहीं मिल सकता। यद्यपि वह पत्नी से भी बढ़कर रिझाने वाले उत्तेजक उपचार करती है। महत्व क्रियाओं का नहीं भावनाओं का है। किसकी उपासना सच्ची किसकी झूठी है। इसकी एक ही परख है। अपनी मर्जी के अनुरूप इष्ट देव को चलाना या उसकी मर्जी के अनुरूप स्वयं चलकर अपनी स्वामी भक्ति और वफादारी का परिचय देना। कठपुतली की तरह हम अपने आप को बाजीगर की उँगलियों में बँधा लेते हैं और उसके इशारों पर नाचना आरम्भ कर देते हैं। तमाशा इतना मजेदार होता है कि दर्शकों की तालियाँ बजने लगती हैं। कठपुतली बाजीगर को अपनी मर्जी पर नचाना चाहे तो बात समझ में आने योग्य भी नहीं रह जाती। हमें ईश्वर के दरबार में भिखारी बनकर कामनाग्रस्त होकर नहीं जाना चाहिए वरन् ये देखना चाहिए कि उसकी इच्छा हमारे तई क्या है?

मनुष्य जीवन का अनुपम उपहार देकर सृष्टा ने हमसे ये आशा की है कि उसकी सृष्टि को अधिक सुँदर, अधिक समुन्नत बनाने का प्रयत्न करें। इसके लिए जितने भी प्रयास किये जाते है वे सभी ईश्वर उपासना के अंग माने जाते है। जप, तप, भजन, पूजन का मतलब ईश्वर को रिझाना नहीं, वरन् ये है कि मानवीय गरिमा का निर्वाह सतर्कता पूर्वक करें और उसे कलंकित न होने दें। ये स्मरण नाम रट के आधार पर बारम्बार किया जाता रहे। अपने आप को राम नाम का साबुन रगड़ कर शुद्ध-स्वच्छ बनाया जाय।

सिद्धाँत को समझ लेने के उपराँत पूजा उपासना का कर्मकाण्ड सरल पड़ता है। उसे अपनी पूर्व मान्यताओं के अनुरूप बहुत या थोड़ी देर अपनी रुचि या सुविधा के अनुरूप किया जाता है। ऋषियों तथा महापुरुषों का निजी जीवन गायत्री उपासना के आधार पर ही असाधारण बन कर रहा है। शास्त्रों और ऋषियों ने गायत्री को देव माता, वेद माता और विश्व माता कहा है। उसे आद्यशक्ति और उपासना विज्ञान का सार तत्व बताया है। हम उसी का जप और प्रकाश पुँज सविता का ध्यान करें, पर यह भी निताँत अनिवार्य नहीं है। जिन्हें यह न रुचे वे अपनी मर्जी के अनुरूप अन्य साधनायें कर सकते है, पर होना चाहिए उन सब में समर्पण भाव की प्रधानता। भिक्षुक या दरिद्र बनकर हम परमात्मा के दरबार में सम्मान नहीं प्राप्त कर सकते। कुछ छुट-पुट अनुग्रह पाकर खाली हाथ न आने का मिथ्या संतोष भर भले ही प्राप्त कर सकें।उपासना भले ही थोड़ी हो पर नियत, समय पूर्वक, नियम पूर्वक और भाव भरी होनी चाहिए। वह हमारी आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ने में बहुत हद तक सफल रहेगी। बिजली के ट्राँसफार्मर के साथ तार जोड़ लेने पर पंखे, बल्ब, हीटर, कूलर आदि यंत्र गतिशील हो उठते है। पानी की टंकी या लाइन के साथ जुड़े हुए नल यथेष्ट पानी देते रहते है। छोटे बैंक बड़े बैंक के साथ जुड़कर सम्पन्न हो जाते हैं। हम भी ईश्वर के साथ जुड़कर उसकी शक्तियों का अनुभव अपने भीतर करने लगते है। बूँद समुद्र में गिरकर अपना अस्तित्व खोती नहीं वरन् अपना आकार उतना ही विस्तृत कर लेती है। ईश्वर की आत्म समर्पण की उपासना करके हम अहंता खोते हैं बदले में उतने ही समर्थ हो जाते है जितना कि ईश्वर स्वयं है।

उपासना के उपराँत दूसरा चरण साधना का है। साधना अर्थात् अपने अंतरंग और बहिरंग जीवन को पवित्र, प्रखर एवं प्रमाणित बना लेना। मनुष्य वस्तुतः एक प्रकार का पशु है। जन्म जन्माँतरों से उसके संचित संस्कार इस जन्म में भी चिपके रहते है और हमारे अधिकाँश आचरण नर पशुओं जैसे होते है। अनगढ़ उच्छृंखल, असभ्य और मानवीय गरिमा की दृष्टि से गये बीते। इन्हें सुधारना और सुसंस्कृत बनाने का संकल्प-पूर्वक कठोर प्रयास करना, यही अपने को साधना है। बिखराव को, चंचलता को, उद्दण्डता को केन्द्रीभूत करना और मर्यादा के बंधनों में अपने को बाँध लेना ही साधना है।

अनगढ़ साँप, बिच्छू, रीछ, बंदर आदि को सधा कर ग्रामीण मदारी अपनी आजीविका चलाते हैं। सरकस के रिंग मास्टर शेरों, हाथियों, घोड़ों को सधाकर ऐसे करतब कराते हैं जिन्हें देखकर दर्शक दंग हो सकें और संयोजक की जेब भरें। माली पौधों को काट-छाँट कर, कलमें लगाकर इतना सुँदर बनाता और फल-फूलों की अनेकानेक प्रजातियाँ उत्पन्न करता है, ऐसे माली प्रशंसा प्राप्त करते हैं। हमें भी जीवन-क्षेत्र का ऐसा ही कलाकार, क्षेत्रज्ञ बनना चाहिए, ताकि हम जीवन के अंतराल में प्रसुप्त पड़ी हुई अनेकानेक विभूतियों को सजग और सक्षम बना सकें और संत, सज्जन, ऋषि और देवात्मा कहा सकें। इसके लिए संयम अपनाना होता है। इंद्रियों का संयम, समय का संयम अर्थ का संयम और विचारों का संयम, इसी नियमन को अध्यात्म की भाषा में तप-साधना कहते है। तप का अर्थ है तपाना-गरम करना। संचित कुसंस्कारों और आदतों से लड़ पड़ना और उन्हें अनगढ़ धातु को गलाकर उपयोगी उपकरण के रूप में ढाल लेना। सुसंस्कृत कोयला ही हीरा बनता है। तपाने से कच्ची मिट्टी के बर्तन बनते हैं और पानी को उबालने की शक्तिशाली, भाप बनती है। अनुपयुक्त चिंतन, चरित्र रुझान एवं आदतों को बदलने और उनके स्थान पर उच्चस्तरीय प्रवृत्तियों से अपने आपका कायाकल्प कर लेने को दूसरा जन्म होने, द्विजत्व प्राप्त करने जैसे शब्दों से उपमा दी जाती है। यही तपश्चर्या है। उपवास, ब्रह्मचर्य आदि में यही भीतरी महाभारत लड़ना पड़ता है। जो जितना निर्मल, पवित्र बन सका-चिंतन और चरित्र की मर्यादाओं के शिकंजे में कस सका, कुम्हार के आवे की तरह पक सका, समझना चाहिए कि वह घर में रहने वाला तपस्वी है। अच्छा हो तपोवन में घर बनाने की अपेक्षा घर में ही तपोवन बनाएँ और अपने सज्जनतापूर्ण सृजन कार्यक्रम से न केवल अपने को वरन् समूचे परिवार को इसी सुसंस्कारिता के-तप-साधना के ढाँचे में ढाल सकें।

पात्रता का विकास-अन्तरात्मा का परिष्कार-पात्रता का अभिवर्धन करने के लिए हमें साधना करनी चाहिए। सादा जीवन उच्च विचार की नीति अपनानी चाहिए। औसत नागरिक स्तर का निर्वाह करना चाहिए तथा जो समय, धन, श्रम, चिंतन आदि की बचत हो सके, उस कटौती को विश्व के कल्याण के - लोक मंगल के कार्यों में निमित्त लगाना चाहिए। इसी को पुण्य, इसी को परमार्थ, इसी को आराधना कहते हैं। पात्रता विकसित करने का यह तीसरा व अंतिम अवलम्बन है। भगवान का निराकार स्वरूप वह है जो कण-कण में समाया हुआ है। जो नियम अनुशासन मात्र है। हम उसके कायदे, कानूनों पर चलकर उसके प्रिय-अप्रिय, भक्त-अभक्त बन सकते हैं। भगवान का प्रकट प्रत्यक्ष स्वरूप है, यह विराट ब्रह्म प्रत्यक्ष संसार। इसे सुखी-समुन्नत बनाने के लिए अपनी क्षमताओं का नियोजन करना आराधना है। इसमें पिछड़ों की सहायता करने और दिग्भ्रांतों को सही राह बताने वाले प्रकाश की व्यवस्था बनाने के कार्यों को सम्मिलित किया जाता है। यों धार्मिक कर्मकाण्डों में लगने वाले श्रम साधन और पुरोहितों को दान-सम्मान प्रदान करना भी इसी प्रचलन में आता है। पर उसका औचित्य तभी है जब अदृश्य देवताओं को प्रसन्न करने की अपेक्षा उस दान प्रयोजन का उपयोग बुद्धि-संगत और भावनाओं को उमगाने वाला हो।

आराधना अर्थात् पुण्य-परमार्थ प्रत्येक के लिए आवश्यक है। हम जो बोते हैं, वही काटते हैं। संसार के साथ भलाई करना प्रकारान्तर से अपनी ही भलाई करना है। पिछड़ों को उठाना कालान्तर से स्वयं को भी ऊँचा उठाने वाली अदृश्य व्यवस्था का आह्वान करना है। पुण्य का प्रतिफल अगले जन्मों में भी मिल सकता है। भाग्योदय भी बन सकता है पर प्रत्यक्ष लाभ भी उससे कम नहीं है। आत्म-संतोष, यश और बदले में प्रकारान्तर से अनेकानेक प्रकार की उपलब्धियाँ हस्तगत होना ऐसा सत्परिणाम है जिसमें गँवाने जैसी कोई बात नहीं है। यह बोने-काटने जैसे व्यवसायगत सिद्धाँतों के अनुरूप भी है और ईश्वर को प्रसन्न करने वाला एक सर्वोत्तम साधन भी।

संसार के महामानवों का इतिहास एक ही राजमार्ग पर चला है। उनने उनने जनता के हित कामना से सत्प्रवृत्तियों का लक्ष्य पूरा करने की दृष्टि से कष्ट सहे, त्याग किये। इसका प्रतिफल निरर्थक नहीं गया, जनता ने उन्हें सिर आँखों पर बिठाया और उस पद तक पहुँचाया जिसके लिए असंख्यकों तरसते हैं।

संसार से हमने बहुत कुछ पाया है। जीवनोपयोगी अधिकाँश वस्तुएँ लोगों के परिश्रम से बनी हैं। उनके बुद्धि कौशल का अनुग्रह लाभ उठाकर हम उस स्थिति में पहुँचे हैं जिसमें हम आज है। यदि किसी का सहयोग न मिला होता तो कदाचित हम जीवित भी न रह पाते, सुसम्पन्न होना तो दूर। ऐसी दशा में आवश्यक है कि उस बगीचे को सींचे जिसकी छाया में बैठते और फलों से गुजारा करते हैं। ऋण मुक्ति का सही तरीका इस विश्व वसुधा को सुखी, समुन्नत बनाना ही है। इसे किये बिना कोई जीवन-मुक्त नहीं हो सकता।

उपासना, साधना, आराधना के उपरोक्त तीन माध्यमों को अपनाकर हम अपनी पात्रता को इस स्तर तक विस्तृत कर सकते हैं जिसमें देवताओं के अनुग्रह आकाश से होने वाली पुष्प-वर्षा की तरह हम पर बरसें।


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