मनुष्य की अभिलाषाओं और आकाँक्षाओं में मूलतः उसकी प्रेरक शक्तियाँ समायी है। इच्छाओं का उफान जिस दिशा में उमड़ता है उसी ओर मस्तिष्क चल पड़ता है। सोचने का ढर्रा उसी पटरी पर लुढ़कता और बुद्धि उसी स्तर के साधन सरंजाम जुटाने का ताना-बाना बुनने लगती है। शरीर की क्रियाएँ उसी दायरे में अग्रसर होती हैं और साधन सहयोग, वातावरण उसी प्रकार के जुटने शुरू हो जाते हैं। अपने बनाये जाल में मकड़ी पूरी तरह फँस जाती है। मनुष्य अपनी इच्छाओं द्वारा विनिर्मित परिस्थितियों के जाल-जंजाल में जकड़ा रहता है। उसे इतना शारीरिक एवं मानसिक अवकाश ही नहीं मिलता कि जीवनोद्देश्य की दिशा में कुछ महत्वपूर्ण कदम बढ़ा सके। आकाँक्षाओं का महत्व समझा जाना चाहिए और उनकी दिशा निर्धारित करने के सम्बंध में समुचित ध्यान दिया जाना चाहिए। मानवी सुख-शाँति और सामाजिक प्रगति की कुँजी यही छुपी पड़ी है। पिछले समय में हुए वैयक्तिक अधोपतन और सामाजिक दुर्गति का यदि तात्विक लेखा-जोखा लिया जाय तो इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि लोगों के सोचने का स्तर घटिया बन गया। उनकी महत्वाकाँक्षी संकीर्ण प्रयोजनों में अटक कर विकृतियाँ पैदा करती रह गई। मानवी अन्तःकरण के विश्लेषक आर.डी. लेंग के ग्रंथ “द डिवाइडेड सेल्फ” के पन्ने पलटने पर पता चलता है- इच्छाएँ सोचने को प्रेरित करती हैं। मस्तिष्क वह जादू का पिटारा है कि जिधर चलेगा उसी प्रकार के साधन और अवसर प्राप्त कर लेगा। यदि विलासी और संग्रही बनने की अभिरुचि भड़क उठे तो व्यक्ति उन्हीं के लिए रात-दिन सोचेगा और करेगा। पिछले दिनों यही हुआ है। व्यक्ति संकीर्ण स्वार्थों की परिधि में स्वयं को सीमाबद्ध रखता रहा है। वह लोभ-मोह को परम-प्रिय विषय बनाये बैठा रहा और काम क्रोध की आग बुझाने के सरंजाम इकट्ठा करता रहा।इस तरह की प्रवृत्तियों ने यदि उसे नर-पशु जैसा जीवन प्रदान किया तो आश्चर्य क्या? कुत्सित लालसाएँ जब-जब भड़कती हैं तो अपनी उग्रता के कारण मानवीय मर्यादाओं की तोड़-फोड़कर रख देती हैं। नैतिकता का कोई मूल्य उस प्रवाह के सामने टिक नहीं पाता। किसी भी प्रकार अपनी हविस पूरा करने की उतावली इतनी बेचैनी उत्पन्न करती है कि नीति और सदाचार, न्याय और औचित्य का ध्यान ही नहीं रहता। तृष्णाओं से, समस्त वासनाओं से पीड़ित अहंकार से उन्मत्त व्यक्ति जो कुछ भी न कर डाले वही कम है।
मनोविद एरिक फ्राम के ग्रन्थ “द एनाटमी आवह्यूमन डिस्ट्रक्टिवनेस” के अनुसार इच्छाओं का केन्द्र यदि पशु प्रवृत्ति से भरा रहे और मनुष्य अपने शारीरिक सुखों को पाने, अहंकार को संजोने और लालच को बढ़ाने में लगा रहे तो उस संदर्भ में कुछ भी अनर्थ करने में तत्पर हो सकता है। व्यक्तित्वों का निखार और उत्कर्ष आदर्शवादी विचारणा और कार्य पद्धति पर निर्भर है। जो लोग नीचा सोचते और ओछा करते है वे सम्पन्नता एकत्रित कर लेने पर भी किसी की या अपनी आँखों में अपना सम्मान सुरक्षित नहीं रख सकते। कोई बड़ा काम नहीं कर सकते और मूर्धन्य प्रामाणिक एवं गणमान्य लोगों की पंक्ति में नहीं बैठ सकते। धन-शिक्षा-स्वास्थ्य-सौंदर्य, कला-कौशल में कुछ प्रगति कर लेने पर भी उनके व्यक्तित्व निखर न सकेंगे और उनमें आत्मबल की न्यूनता ही बनी रहेगी।
विकासवान व्यक्तित्व की आधार शिला मनुष्य की आंतरिक अभिलाषाओं और आकाँक्षाओं पर निर्भर रहती है। वस्तुतः यही केन्द्र बिंदु व्यक्तित्व का सार तत्व है। मनुष्य वस्तुतः क्या है? यदि उसकी असलियत परखनी हो तो उसके अन्तरंग में घुसकर यह ढूँढ़ना होगा कि वह वस्तुतः चाहता क्या है? सामाजिक दबाव या लोकलाज के कारण बहुधा बाहर से वह प्रदर्शित किया जाता है जो सामाजिक सम्मान बनाए रखे। वास्तविक इच्छाएँ कई बार इस बाह्य प्रदर्शन से सर्वथा प्रतिकूल होती हैं। यह अंतर सामान्य व्यक्तियों में ही नहीं नेताओं, धर्मध्वजियों और दूसरे ख्यातिनामा व्यक्तियों में भी देखा जा सकता है। जब उनकी मनोदशा तथा करतूतों का नग्न स्वरूप छन-छन कर बाहर आता है तो उस सड़े मवाद की दुर्गन्ध से नाक फटने लगती है। बाहर से आदमी कुछ भी कहता-बताता रहे, असल में वह वही रहेगा जो स्वरूप अंतरंग में विनिर्मित किये बैठा है।
यह अंतरंग की अभिलाषाएँ ही जीवन का सार तत्व हैं। इसी बीज के अनुरूप परिस्थितियों के अंकुर उगते और साधनों के पत्ते जुटते हैं और उन्हीं के अनुरूप क्रिया-कलापों के पुष्प और परिणामों के फल सामने आकर उपस्थित हो जाते हैं। एक शब्द में यों कह सकते हैं कि आँतरिक अभिलाषाएँ ही जीवन का सर्वस्व हैं। वे जिधर बहेंगी उधर ही मन, शरीर, कर्तृत्व और वातावरण सहज ही बढ़ता ढलता चला जायेगा। इस प्रवाह के आगे कोई अवरोध ठहर नहीं सकता। समस्त प्रतिकूलताओं को चीरता हुआ वह प्रवाह अपने लिए रास्ता बना लेता है और उन साधनों को प्राप्त कर लेता है- उन स्थानों तक पहुँच जाता है, जिनकी प्रारम्भिक स्थिति में कल्पना कर सकना भी कठिन था।
मनोविज्ञान के इस रहस्य को हमें इसलिए समझना चाहिए क्योंकि विचार क्राँति की प्रक्रिया इसी मर्मस्थल को छूती है। उसका आरम्भ यही से होता है। हम साधनों का निर्माण करने नहीं चले हैं, क्योंकि अपनी दृष्टि में वे बार-बार झड़ने- उगने वाले पत्र-पल्लव मात्र हैं। निकृष्ट मनोभूमि के रहते अच्छी परिस्थितियाँ निरर्थक सिद्ध होती हैं और देखते-देखते पलायन कर जाती हैं। इसके विपरीत उत्कृष्ट मनोभूमि गई-गुजरी परिस्थितियों में भी आनन्द उल्लास का बाहुल्य अनुभव करती है और क्रमशः अनुकूल साधनों को जुटाती चली जाती है।
यह मनोवैज्ञानिक अनुभूति हमें बताती है कि सामाजिक विकास और नव निर्माण के लिए व्यक्तियों के विकास अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं। इसलिए हमें जन-इच्छाओं को परिष्कृत करने की दिशा में सारा ध्यान केन्द्रित और प्रयत्नों को समवेत करना चाहिए। आज का इंसान बाहर से कुछ भी बकता या बनता हो, भीतर से बहुत ही लोभी, स्वार्थी, संकीर्ण, अनुदार और कामुक प्रवृत्ति का बन गया है। यदि पोस्टमार्टम करने चलें तो भावना शरीर का शवोच्छेद लगभग एक ही प्रकार का निष्कर्ष प्रस्तुत करेगा। हर आदमी अमीरी के आधार पर विलासिता-कामुकता और अहमन्यता का मजा उठाने के लिए व्याकुल है। उसे ऐश चाहिए, शान-शौकत चाहिए, वाह-वाही चाहिए, इसके अतिरिक्त उसे और कुछ नहीं चाहिए। ये चीजें उसे अति विशाल मात्रा में और अति शीघ्र चाहिए। इसी धुरी पर आज के व्यक्ति का सारा जीवन घूम रहा है।
इस प्रवाह को उलट सकना कैसे सम्भव हो सकता हैं? इसका उत्तर एक ही है कि अंतरंग की आकाँक्षा
मर्मस्थल में -आदर्शवादिता पैदा की जाय। ऐसा हो सके तो मन, मस्तिष्क समय श्रम सभी उस दिशा में
मुड़ चलें और साधन, सुविधा, परिस्थिति, सहयोग आदि के सारे सरंजाम उसी स्तर के सहज ही जुटने लगें। जो लोग निंदा, व्यंग्य, उपहास, लाँछन एवं अवरोध उत्पन्न करने में आज लगे हुए हैं वे कल अपनी हार मान लें और पत्थर से सिर फोड़ना छोड़कर उस अतिमानवी साहस के चरणों पर श्रद्धा सुमन बिछाने लगें।
बड़ा त्याग, बलिदान, पुरुषार्थ एवं अनुदान देने में लगाया जा सके तो सामान्य स्तर का मनुष्य भी धीरे-धीरे इतने महत्वपूर्ण कार्य कर सकता है कि उसका लेखा-जोखा तथाकथित संत महात्माओं से हजारों गुना
अधिक आगे ठहराया जाय। मनीषी गोपीनाथ कविराज के ग्रंथ “भारतीय संस्कृति और साधना” के शब्दों में कहें तो=“जब तक मनुष्य लेने की लिप्सा में डूबा रहता है-उसे अपने चारों ओर अभाव और दारिद्रय ही घिरा दीखता है। पर जब वह अपनी मनोदशा देने में रस लेने वाली बना लेता है तो धन न रहते हुए भी शारीरिक, मानसिक सम्पदाएँ इतनी बहुमूल्य दीखने लगती हैं, जिनके आधार पर लोक मंगल के लिए बहुत कुछ किया जा सकना सम्भव हो सके। “
नव निर्माण के लिए उत्कृष्ट भाव सम्पन्न व्यक्तियों की आवश्यकता है। लक्ष्मी और विद्या न होने से किसी को रंज नहीं करना चाहिए। जिन्होंने अपनी अभिलाषाओं, आकाँक्षाओं को आदर्शवादी बनाया है उन्हीं के द्वारा विश्व के भावनात्मक नव निर्माण का महान अभियान संभव है।