बेताल का आत्मबोध

January 1993

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

जैसा नाम वैसा ही गुण। उनका समूचा जीवन श्मशानों में ही बीता। कभी ताँत्रिक साधनाओं में तो कभी रणभूमि में। अवन्तिका की सेना उनके बिना सूनी थी। सम्राट विक्रमादित्य उनके बिना स्वयं को विवश महसूस करने लगे। प्रश्न कूटनीतिक चक्रव्यूह का हो, या सेना की व्यूह रचना का-उनकी बुद्धि चुटकी बजाते ढेरों समाधान प्रस्तुत कर देती। उनकी कोप-चण्डी शत्रु शिविरों को ऐसे सूना कर देती थी, जैसे तेज तूफान में कटी हुई फसलें उड़ जाती हैं। वह सम्राट विक्रम के चतुर्दिक् फहराने वाले यश ध्वज के दण्ड थे।

किंतु आज विवशता को विवश करने वाला स्वयं को विवश अनुभव कर रहा था। जिसकी कूटनीति के आगे बड़े-बड़े सम्राट सिर झुकाते थे, अपनी कूटनीति से आज वह आप ही पराभूत हो उठा था। कई दिन से उसके मस्तिष्क में निरंतर एक ही विचार उठ रहा था -”यह षड़यंत्र, ये कुचक्र किसके लिए किए, जीवन भर जिन पापों का भार उठाये घूमा, उससे क्या शरीर अमर हो गया?” आज पता चला कि दूसरों को पराजित और स्वयं को विजयी मानने वाला सर्वथा भूल में था। मनुष्य से बढ़कर काल-पुरुष है, कोई कितना ही ऐंठे, अकड़ दिखाए पर काल पुरुष को जीतना सदैव ही दुःसाध्य रहा। मृत्यु से कोई बच न पाया। जो अपने ही गोरखधंधे में लगा रहा वह अन्ततः पछताया और हाथ मलता हुआ ही गया।

आज उसके विवेक चक्षु खुल गए थे। प्रज्ञा असत्य के घने आवरण को भेदकर सत्य का दिग्दर्शन-मूल्याँकन कर रही थी। साँसारिक मोह टूट गया, दम्भ भर गया। जीवन भर का दोष-दूषण उनकी आँखों के आगे नाच रहा था और उसके लिए वह पश्चाताप की आग में जल रहा था। बार-बार मन-मस्तिष्क में हथौड़े की चोटों की भाँति एक ही आघात लगता-तब क्यों न वर्तमान जीवन क्रम को बदल डाला जाय?

राजसी परिधान उतार फेंके उसने। साधारण वेशभूषा में, हाथ में लाठी और उत्तरीय वस्त्र कंधे पर डाले प्रातः पीयूष बेला में वह घर से बाहर निकल पड़ा। क्षिप्रा के पावन तट पर खड़े होकर उनने अवन्तिका (उज्जयिनी) और भगवान महाकाल को प्रणाम कर पीछे मुड़कर बढ़ चले।

पर अभी बीस कदम ही बढ़े होंगे कि महाकवि कालिदास और बासन्तिका उधर से आते दिखाई दिये। उन्हें साधारण वेश-विन्यास में देखकर महाकवि को आश्चर्य हुआ पर इस महान इंद्रजालिक के लिए उनके मन में असम्भव की कुछ कल्पना न थी। तो भी पूछा अवश्य उन्होंने -”कहाँ चले बेताल भट्ठ? आज किस सम्राट का ज्योतिष बिगड़ा, किस पर शनि की दृष्टि गहरी हुई? क्या मालवा पुनः रणभेरी बजाने जा रहे हैं? पर छद्म नीति में तो बसन्तिका अपने साथ रहती आयी थी, आज आप अकेले कैसे?” बासन्तिका भी उन्हें अकेले जाते देखकर भौंचक्की थी।

महाकवि की ओर उस स्वाभिमानी बेताल ने ऐसे देखा, जैसे वास्तविक विजय के लिए वह आज ही निकला हो। उसने कहा-”आत्म प्रदेश का शासक मन बहुत कुटिल हो गया है कविवर! अब तो अंतिम और

निर्णायक युद्ध अपने आप से ही होगा। देखता हूँ, विजय जीवन की कुटिलताओं को मिलती है या आत्मबोध की आकाँक्षा को?”

कालिदास ने पूछा-”किंतु आर्य प्रवर! आपके बिना इस अवन्तिका का क्या होगा?” “यह सब मोह है-कविश्रेष्ठ! मनुष्य अहंकार वश ऐसा सोचता है, और भावी-पीढ़ी की प्रगति में बाधक बनता है। “

कालिदास और कुछ न बोल सके। बेताल आगे बढ़ गये और उधर सारे देश में खबर फैल गई, महातांत्रिक, राज्य के महामात्य बेताल भट्ट वानप्रस्थ लेकर समाज सेवा हेतु समर्पित हो गये।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118