साइंस को नकारते हैं, आकाश गमन के ये प्राण

January 1993

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विज्ञान के इस युग में महात्माओं का आकाश-गमन एवं सिद्ध संतों का आसन-उत्थान व्यापार कुछ विचित्र-विलक्षण-सा लगता और कपोल-कल्पित जैसा प्रतीत होता है। फिर भी यह सत्य है कि ऐसा योग-विज्ञान में एकदम असंभव भी नहीं, किन्तु भौतिक विज्ञान के गले यह तथ्य अब तक नहीं उत्तर सका कि आखिर यह संभव होता किस भाँति है। उल्लेखनीय है कि भौतिक विज्ञान अपने पदार्थवादी सिद्धान्तों पर आधारित है और उन्हीं सब को सत्य स्वीकारता है, जो इन सिद्धान्तों की कसौटी में खरे सिद्ध होते हैं। आकाश-गमन के संबंध में उसका एक ही असमंजस और तर्क है कि कोई भी वस्तु बिना किसी बल के सहारे गुरुत्वाकर्षण शक्ति के विरुद्ध ऊपर कैसे उठ सकती है?

पदार्थ विज्ञान की दृष्टि से विचार किया जाय, तो उक्त दलील में काफी दमखम ‘नजर’ आता है। भू-उपग्रह और हवाई जहाज ऊपर उठते और उड़ते सिर्फ इसलिए दृष्टिगोचर होते हैं कि उनके साथ पदार्थपरक एक विशेष सामर्थ्य जुड़ी रहती और हर क्षण काम करती रहती है। जब कभी यह क्षमता चुकती और खड़खड़ाती है, तो भयंकर दुर्घटनाएँ घटती नजर आती हैं और पल भर के भीतर विशाल कलेवर वाले यान और उपग्रह धूल में मिलते दिखाई पड़ते हैं। विज्ञान का यह उपरोक्त मत भी तर्क सम्मत जान पड़ता है। तो क्या योग विज्ञान के उपरोक्त दावे को झुठला दिया जाय और यह मान लिया जाय कि यह सब भ्रम-जंजाल में डालने वाले रंगीन सपने हैं? नहीं, इस सीमा तक शंका करने की आवश्यकता नहीं है। विज्ञान द्वारा ही इसे भी साबित किया जा सकता है कि ऐसा संभव है। हम प्रतिदिन आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को देखते हैं। वे डैने हिलाते चलते हैं और बड़ी आसानी से नभ में विचरते दृश्यमान होते हैं। उन्हें जिस रफ्तार से जिधर जाना होता है उसी गति से उनके पर भी फड़कते रहते हैं। इस प्रक्रिया में वे एक प्रकार से गुरुत्वाकर्षण शक्ति को निष्फल-निष्क्रिय स्तर का बना देते हैं, जिससे उनके मार्ग में इस बल का कोई गतिरोध उत्पन्न नहीं होता। जब नभचरों जैसे सर्वथा निरीह जीवों के लिए यह एब संभव है, तो इस सृष्टि के सबसे बुद्धिमान-सामर्थ्यवान प्राणि-मनुष्य के लिए ऐसा क्योंकर असंभव होना चाहिए? उसके विशाल शक्तिभण्डार में सन्निहित अद्भुत शक्तियों के लिए ऐसा क्यों कर अशक्य होना चाहिए? यह सरल भी है और शक्य भी-विज्ञान के एक सिद्धान्त द्वारा इसे भली-भाँति समझा जा सकता है।

इन दिनों विशालकाय गुब्बारों द्वारा आकाश में सैर करने का आम प्रचलन चल पड़ा है। दिन-दिन यह इतना लोकप्रिय होता जा रहा है कि आये दिन इसकी प्रतिस्पर्धाएँ होती रहती हैं और हर एक, दूसरे द्वारा स्थापित रिकार्ड को प्रायः तोड़ने का प्रयास करता है। इसके लिए तेज रफ्तार प्राप्त करने के वह नित नवीन तकनीक और तरीके खोजता और अपनाता रहता है, पर इसका जो सामान्य सिद्धान्त है, वह यह है कि गुब्बारे के अन्दर की हवा को नर्म कर हल्का बना दिया जाय। भीतर की गर्मी जितनी और जिस अनुपात में बढ़ती जाती है, उसी अनुपात में हवा हल्की होने और ऊपर उठने लगती है। इस क्रम में एक ऐसा समय आता है, जब जल्द ही गुब्बारा जमीन छोड़ देता है। इसके कुछ क्षण पश्चात् उससे लटकता आदमी और यंत्र भी हवा में तैरने लगते हैं। हवाई सफर के उपरान्त जब उसे नीचे उतरना होता है, तो उपकरण से निकलती आग की लपटों को धीरे-धीरे घटाता जाता है। गर्मी कम होती है, तो गुब्बारे की हवा का हल्कापन भी कम होने लगता है और अन्ततः व्यक्ति सुरक्षित धरती पर आ जाता है। गुब्बारे से उड़ने और उतरने का यही मोटा सिद्धान्त है।

योग विज्ञान में वर्णित आकाश-गमन पर फिर अकस्मात् अविश्वास क्यों होने लगता है? इस प्रश्न पर सूक्ष्मता से विचार करने पर एक ही बात उजागर होती है-शरीर की स्थूलता और उसका वजन। हर पदार्थ और प्राणी पर पृथ्वी का आकर्षण बल कार्य करता है-यह विज्ञान का अकाट्य नियम है, पर पृथ्वी की इस प्रकृति पर विचार करते समय भौतिक विज्ञान गुब्बारे वाले सिद्धान्त को प्रायः भुला देता है, इसी से इस प्रकार की उलझन पैदा होती और सच्चाई संशय में पड़ती दिखाई देती है। उक्त सिद्धान्त के अनुसार यदि शरीर को इतना हल्का बना लिया जाय कि वह बल, गुरुत्व बल को निरस्त कर उस पर हावी हो जाय, तो शरीर के लिए ऊपर उठना और हवा में उड़ना संभव है। योग क्रिया द्वारा यही किया जाता है। इसकी अष्ट सिद्धियों “लघिमा” के दौरान इसी क्रिया को सम्पन्न और सिद्ध करने का विधान है। जो उक्त विद्या में प्रवीण और पारंगत हो जाते हैं, उन योगियों के लिए आसान-उत्थान और आकाश-गमन जैसी बातें अत्यन्त सरल और सहज जान पड़ती है।

समय-समय पर प्रकाश में आने वाले ऐसे प्रसंग भी इसी एक तथ्य की पुष्टि करते हैं कि योग विज्ञान में आने वाले ऐसे उल्लेख सर्वथा काल्पनिक न होकर वास्तविकता के धरातल पर आधारित हैं। ऐसे ही एक योगी की चर्चा “आटोबायोग्राफी ऑफ ए योगी” नामक पुस्तक में लेखक योगानन्द ने की है। उस योगी का उल्लेख करते हुए लेखक ने लिखा है कि अर्धरात्रि के समय जब वह अनपी पत्नी के सो जाने के पश्चात् ध्यान करता, तो वह अपने आसान से लगभग चार फुट ऊँचा उठ जाता था और उसको घेरे अनेक देव-देवियाँ होते थे। “लिविंग विद दि हिमालयाज मार्स्टस” नामक स्वामी राम चरित ग्रन्थ में भी ऐसे अनेक लाँगोम्पा लामाओं के उद्धरण मौजूद हैं, जो आकाश-गमन में सिद्धहस्त हैं। इनमें से कई लाँगोम्पा अपने दोनों पैरों को लोहे की मजबूत जंजीर से कसे रहते और तिब्बत की पहाड़ियों में लम्बी छलाँगे लगाया करते। यह ‘लाँगोम’ (आकाश-गमन) का प्रथम चरण होता। अभ्यासरत रह कर जो इसमें कुशलता प्राप्त कर लेते, वे अतितीव्र गति से आकाश-गमन करने में सक्षम हो जाते। फिर उनके लिए लम्बी दूरी थोड़े समय में तय कर लेना कोई बहुत कठिन नहीं रह जाता। ऐसे ही तीन लाँगोम्पाओं का वर्णन अलेक्जेन्डर नील ने अपनी रचना “दि मीस्टिक्स एण्ड मेजिशियन्स” के छठवें अध्ययन में किया है। भारतीय योगियों में इस प्रकार की अलौकिक शक्ति लोकनाथ ब्रह्मचारी, काठिया बाबा एवं परमहंस विशुद्धानन्द को प्राप्त थी। इनके अतिरिक्त दत्तात्रेय और भगवान बुद्ध भी इस विद्या में निपुण थे, ऐसा जैन एवं बौद्ध ग्रन्थों में उल्लेख मिलता है।

श्री दत्तात्रेय भगवान के संबंध में प्रचलित है कि वे एक अहोरात्र में भारत के अन्यान्य तीर्थों में वहाँ के साधन-भजन के समय उपस्थिति रह कर लोगों को आशीर्वाद दिया करते थे। भगवान तथागत के आकाश-गमन की चर्चा पाली-पुस्तकों में यत्र-तत्र देखी जा सकती देखी जा सकती है। एक कथा के अनुसार एक बार श्रावस्ती नगरी से अंतरिक्ष-गमन करते समय अपने एक प्रिय स्थविर ‘धनिय’ की कुटिया के ऊपर आकाश में कुछ क्षण रुक कर उनने आशीष दिया था और फिर वे अपने गन्तव्य की ओर चल पड़े थे। आदि-शंकराचार्य और नाथ सम्प्रदाय के गुरु गोरखनाथ के बारे में प्रचलित है कि वे इस कला में अत्यन्त दक्ष थे। योगवासिष्ठ, रामायण आदि ग्रन्थों में भी इस विद्या का उल्लेख मिलता है। उनमें वर्णित शिखिध्वज, चूडाला, वीताहव्य आदि ब्रह्मयज्ञ इस योग क्रिया में कुशल थे। इस्लाम धर्म के औलिया मियाँ मीर के संदर्भ में कहा जाता है कि वे यदा-कदा लाहौर से हिजाद आकाश मार्ग से जाते और कुछ घंटे वहाँ बिता कर पुनः वापस लाहौर उसी रात्रि को लौट आते थे।

विदेशों में भी ऐसे अनेक आध्यात्मिक नर-नारी हुए हैं, जिनमें आसन-उत्थान की अपूर्व क्षमता थी। मिश्र की सेण्ट मेरी नामक सन्त महिला के बारे में कहा जाता है कि वह जब संतत्व की भाव-भूमिका में आयी, तो मिश्र छोड़ कर फिलिस्तीन की मरुभूमि में एकान्तवास करने लगी। प्रार्थना करते वक्त उसका शरीर जमीन से, करीब पाँच फुट ऊपर उठ जाता था। प्रख्यात सन्त आंगस्टाइन ने अपनी कृति “जीवनस्मृति” में एक ऐसी साधिका का उल्लेख किया है, जिसकी सम्पूर्ण देह प्रार्थना के समय लगभग तीन फुट ऊँची उठ जाती थी। विशप सेण्ट पहरेदारों के सोने के पश्चात् जब गिरजाघर की टेबुल पर ध्यान मग्न होते तो यदा-कदा वे शून्य में स्थिर दिखाई पड़ते। सन्त फ्रांसिस के बारे में भी ऐसी ही जनश्रुति है कि राम के समय अपने बन्द कक्ष में जब वे ध्यानस्थ होते तो आधार-स्थल से कई हाथ ऊपर उठ जाते। स्पेन की ‘मीरा’ कही जाने वाली सन्त टेरेसा रात्रि के समय जब ईश-चिन्तन में लीन होती, तो अपने आसन से प्रायः तीन फुट उत्थित हो जातीं। सोलहवीं सदी की इस महिला संत के संबंध में प्रसिद्ध है कि एक बार स्थानीय विशप आलमेरेस डे गोनडोसा इनसे मिलने आये, तो यह देख कर वे चकित रह गये कि साध्वी खिड़की की ऊँचाई जितने अधर में बैठी हुई है।

इससे कुछ मिलता-जुलता जिक्र डॉ. गोपीनाथ कविराज ने अपनी पुस्तक “भारतीय संस्कृति और साधना” में किया है। इसमें वे अपने एक गुरु भाई की चर्चा करते हुए लिखते हैं कि कई वर्षों तक साधना करने के बाद उनकी स्थिति इतनी उच्च हो गई थी कि आसन पर बैठे-बैठे ही वे एक सर्वथा पृथक दिव्य लोक में पहुँच जाते। ज्ञातव्य है कि इस मध्य वे पूर्णतः चैतन्य रहते। उन्हें आसन के स्पर्श की प्रतीत भी सदा बनी रहती, किन्तु फिर भी न तो वह उनका अपना कमरा होता, न भौतिक जगत। आँखों से जो कुछ दिखाई पड़ता, वह इतना दिव्य और अलौकिक होता, कि उसकी कल्पना पंचभौतिक जगत में की ही नहीं जा सकती। कई बार वे वहाँ पूर्ण चेतना की स्थिति में चलते-फिरते भी और उसकी अलौकिकता के बारे में साथ-साथ सोचते भी। एक बार उन्होंने वहाँ की अद्भुत दृश्यावली को लिपिबद्ध करने की ठानी, अस्तु उस दिन कागज-कलम साथ लेकर आसान पर बैठे। थोड़ी ही देर में उनका उस दिव्य राज्य में पदार्पण हो गया। उन्होंने कलम उठायी और कागज पर वहाँ का ब्यौरा ज्योंही लिखने को उद्यत हुए कि सामने से दृश्य एकाएक विलुप्त हो गया। उनने अगल-बगल झाँका, तो स्वयं को पुनः अपने उपासना-कक्ष में पाया।

“गुरु-परम्परा-चरित” साधना ग्रन्थ में भी ऐसी कुछ योगियों का जिक्र किया गया है, जिनमें शून्य में उठने और भ्रमण करने की सामर्थ्य थी। इनमें भास्कर राय, राम ठाकुर, समुज्ज्वल आचार्य, शिशिर प्रभृति संत विशेष उल्लेखनीय है।

बौद्ध आचार्यों ने शून्य-भ्रमण की सिद्धि को तीन प्रमुख वर्गों में विभाजित किया है। प्रथम गति का नाम उनने “वाहन-गति” रखा है। यह नभचरों के सदृश्य की गति होती है। इसकी दूसरी श्रेणी “अधिमोक्ष गति” है। इसमें शरीर को गतिहीन रख कर दूरस्थ वस्तु को संकल्प-बल के माध्यम से सामने प्रकट कर लिया जाता है। इसका तीसरा विभाग “मनोवेग गति” के नाम से जाना जाता है। जैसा कि नाम से प्रकट है, यह गति अत्यन्त तीव्र होती है। सिद्ध महात्मा मन के समान इस वेगवान गति के सहारे ही अपनी स्थूल सत्ता क्षण मात्र में कहीं-से-कहीं प्रकट कर लेते हैं। इसलिए कहीं-कहीं इस गति को “मनोजवित्व” भी कहा गया है।

इतना सब जान-समझ लेने के उपरान्त विज्ञान के लिए ऊहापोह करने जैसी कोई बात शेष रह नहीं जाती। हाँ, एक प्रश्न इसकी प्रक्रिया संबंधी फिर भी बच रहा जाता है। इस बारे में इतना ही कहा जा सकता है कि पदार्थ विज्ञान को योग के दुरूह और रहस्यमय प्रक्रियाओं को समझने के फेर में न पड़ कर

इसे विशुद्धतः योग के विद्यार्थियों के लिए छोड़ देना चाहिए और स्वयं को पदार्थ के गहनतम अनुसंधान में ही लगाये रहना चाहिए, क्योंकि दोनों ही विज्ञान की दो पृथक शाखाएँ हैं। योगविद्या चेतना से संबंधित है, तो स्कूल-कालेजों में पढ़ाई जाने वाली “साइन्स” पदार्थपरक है। चेतन सूक्ष्म की पुष्टि व सिद्धि कभी संभव हो ही नहीं सकती। अस्तु पदार्थ विज्ञान को यह हठवादिता छोड़ कर चेतना विज्ञान से समन्वय व संगति बिठा कर चलना चाहिए। इसी में इन दोनों विधाओं का स्वयं का उत्कर्ष और संसार का कल्याण है। इसे जितनी जल्दी समझा जा सके उतना ही अच्छा है।


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