डार्विन ने कहा है कि मनुष्य बन्दर की संतान है। यह विषय विवादास्पद है। फिर भी इतना जरूर है कि मनुष्य व बंदरों में आकृति भेद होते हुए भी कितनों की ही प्रकृति एक एक जैसी होती है। वनमानुषों जैसी मनोभूमि वाले नर पामरों की कमी नहीं है। ऐसे भी हैं जो कर्तव्यों के दायित्व को भूलकर निरुद्देश्य जीवन जीते हैं और मर्यादा बंधन का पालन उतनी ही मात्रा में उतनी ही देर तक करते हैं, जब तक कि उन्हें लगाम, नाच, अंकुश, हण्टर या चाबुक का भय दिखाता है। दबाव हटाते ही वे बंदरों की तरह स्वेच्छाचारी व्यवहार करते -पशु प्रवृत्तियों में मोद बनाते देखे जाते हैं।
मानवी आकृति निश्चित ही सुविधाजनक व सब चीजों में श्रेष्ठ है पर मानवी जन्म के साथ जुड़ा सौभाग्य तब सार्थक माना जाता है, जब आकृति के साथ मानवी प्रकृति भी हो। आकृति भगवान देते हैं, प्रकृति निज के पुरुषार्थ से अर्जित करनी होती है। इसके लिए जिन दो कदमों को उठाना पड़ता है उनकी धातु की गलाई-ढलाई से उपमा दी जाती है, पर इनके बिना कोई गति नहीं है। प्रगतिपथ पर चलने वाले हर किसी को एक कदम छोड़ना, दूसरा उठाना पड़ता है। पहला कदम है-संचित पशु प्रवृत्तियों का परित्याग। दूसरा कदम है-मानवी गरिमा को धारण करना। मानवी तन होते हुए भी मानवी गरिमा के अनुरूप जीवन जी कर प्रगति का पथ प्रशस्त किया गया कि नहीं, इसकी जाँच पड़ताल दो तथ्यों का पर्यवेक्षण करने पर ही हो सकती है। एक है-मर्यादा निर्वाह, दूसरा कर्तव्य पालन। इस कसौटी पर जो सही सिद्ध हो समझना चाहिए उसने मानवी जन्म को सार्थक बनाने का, देव मानव बनने का राजमार्ग अपनाया।