पथिक निरुत्तर हो चला (Kahani)

January 1993

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 पेड़ काटने की योजना बनाते हुए लकड़हारे उस जंगल

में घूम रहे थे। हाथ में लोहे की कुल्हाड़ी भर थी।

साथियों को चिंतित देखकर वट वृक्ष ने कहा-”लकड़हारे हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। कुल्हाड़ी की कोई बिसात नहीं। हम लोग चिंतित क्यों हों? “

“चिंतित उस दिन होना पड़ेगा जिस दिन हममें से कोई फुटकर दुश्मन का साथ देगा और कुल्हाड़ी का बेंट बनेगा।” बात सच निकली। जंगल कटना तब आरंभ हुआ जब लोहे की कुल्हाड़ी को लकड़ी का बेंट हाथ लग गया।

कुम्भकार ने परिश्रम किया, बर्तन बनाये और खाना खाकर वही बर्तनों के समीप सो गया। वहाँ से एक राहगीर गुजरा। उसने कुम्भकार पर सहानुभूति दिखाते हुए कहा-तुम जमीन पर सोते हो? तुम इतने अच्छे बर्तन बनाते हो। इन्हें बाजार में बेचकर और अधिक धन कमाओ, बड़ा मकान बनाओ, खूब धन एकत्रित कर बड़े आदमी बन जाओ। कुम्भकार ने कहा-इससे क्या होगा? उसने कहा-फिर तुम्हें जमीन पर नहीं सोना पड़ेगा। नौकर चाकर होंगे। हाथ से काम भी नहीं करना पड़ेगा? कुम्भकार ने कहा-तब तो बड़ा आदमी बनना मुझे कतई पसंद नहीं, क्योंकि यदि मैं मेहनत नहीं करूंगा, फिर तो मेरा यह जीवन मिट्टी से भी बद्तर होगा। मिट्टी के बरतन भी बन जाते हैं किंतु मेरे अकर्मण्य जीवन का मोल तो मिट्टी के इन बर्तनों जितना भी नहीं होगा। पथिक निरुत्तर हो चला गया।


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