आचार्य अन्यमनस्क बैठे चिन्तन की मुद्रा में कुछ सोच रहे थे, तभी एक छात्र उधर से गुजरा, पूछा-”सर, आज आप कुछ उद्विग्न और परेशान नजर आ रहे हैं।”
आचार्य ने एक गहरी निःश्वास ली, कहा-”हाँ, बात ही कुछ ऐसी है।” तो क्या मैं आपकी कुछ मदद कर सकता हूँ।”
“नहीं, धन्यवाद। तुम जा सकते हो”-आचार्य का शान्त और गंभीर स्वर था।
उसके जाते ही प्रो. स्मिथ पुनः चिन्तन-सागर मैं डूबने-उतरने लगे और समस्या का कोई आत्यन्तिक हल ढूँढ़ निकालने के बारे में सोचने लगे, तभी उनके दिमाग में एक माह पूर्व का वह हृदयविदारक दृश्य कौंध गया और साथ ही छात्र जेम्स यंग सिम्पसन का वह संकल्प भी, जिसमें कुछ कर गुजरने की अभीप्सा थी।
स्पिसन एक होनहार छात्र था और अन्य चिकित्सा, छात्रों की तुलना में मेधावी भी, अतः प्रोफेसर स्मिथ को आशा की कुछ किरण उधर से आती दिखाई पड़ी। यह विचार आते ही उनने निश्चय किया कि कल उससे इस संबंध में बात कर ली जायेगी और समस्या के निराकरण का कोई-न-कोई उपाय खोजने का प्रयास आरंभ किया जायेगा, ताकि लोगों को कष्ट से त्राण मिला सके। वह कुछ आश्वस्त हुए
किन्तु यह क्या! पुनः वही लोमहर्षक दृश्य आँखों के सामने तैरने लगा। एडिनबरा का अस्पताल। रस्सियों में जकड़ा मरीज टाँगों को काटने की तैयारी औरे उसका अरण्य रोदन। सभी विवश थे। यदि टाँगों को नहीं काटा जाता, तो जीवन-संकट उपस्थित होने का खतरा था और काटने पर पीड़ा और रोमाँच का आकुल व्याकुल कर देने वाला दृश्य!
“ओफ! कैसी कठिन घड़ी उपस्थित हो गई थी।” प्रोफेसर मन-ही-मन बुदबुदाये, किन्तु रोगी की जीवन रक्षा के लिए एक डॉक्टर का कर्त्तव्य तो उन्हें निभाना ही था। उनके इशारे पर आरी चलने लगी और इसी के साथ एक दिल दहला देने वाली चीख उभरी और प्रतिध्वनित होती चली गयी।
सभी बेबस थे। सिम्पसन का कोमल हृदय इस पीड़ादायक दृश्य को देख न सका। रोगी के साथ-साथ वह भी बेहोश हो गया। जब उसे संज्ञा आयी, तो देखा बीमार शैय्या पर पड़ा अर्धचेतना की स्थिति में हल्की कराहें ले रहा है।
उसका मन उसकी दयनीय स्थिति और कराह से विचलित हो उठा। वह उठा और सीधे अपने होस्टल के कमरे में चला गया। किन्तु वहाँ भी चैन से आराम न कर सका। रह-रह कर उसके दृश्य-पटल पर उस रोगी की रोमाँचकारी झाँकी और कर्णकुहरों में तीव्र चीत्कार गूँज उठते। उसने तभी प्रतिज्ञा की, अब वह रोगियों को इस पीड़ादायक कष्ट से जब तक मुक्ति दिला नहीं देता, तब तक चैन की साँस नहीं लेगा। अभी वह कॉलेज में अध्ययनरत था, किन्तु दूसरे ही दिन से उसने अपने दो मेधावी छात्रों डंकन और कीथ को लेकर प्रतिदिन तीन-चार घंटे प्रयोगशाला में डटा रहता। भिन्न-भिन्न प्रकार के रसायनों के मिश्रण तैयार करता एवं तरह-तरह के जीव जन्तुओं पर उनका निरीक्षण-परीक्षण करता।
कई वर्ष बीत गये। तीनों ने डॉक्टरी की परीक्षा भी अच्छे अंकों से पास कर ली, किन्तु बेहोशीकारक दवा के आविष्कार के प्रति उनकी निष्ठ तनिक भी नहीं डगमगायी, यद्यपि इस बीच उन्हें असफलता-ही-असफलता हाथ लगी थी, पर वे तीनों भी जीवट व परिश्रम के धनी थे। एक बार जो बात ठान ली, सो-ठान ली। फिर उसे पूरा करके ही दम लेते। कहा भी गया है कि सफलता सिर्फ श्रमनिष्ठों के ही चरण चूमती है। हुआ भी ऐसा ही।
एक दिन जब वे तीनों प्रयोग-परीक्षणों में व्यस्त थे, तभी किसी कारण से सिम्पसन ने कीथ की ओर निहारा। उसने देखा कि डॉ. कीथ एक शीशी सूँघ रहे हैं और संज्ञाशून्यता जैसी स्थिति में धीरे-धीरे चले जा रहे हैं। अभी वह अपनी कुर्सी से उठते कि डॉ. कीथ की चेतना जाती रही और वे लड़खड़ा कर फर्श पर लुढ़क पड़े। सिम्पसन और डंकन इस आकस्मिक घटना से एकबार तो घबरा उठे, किन्तु मनोबल के धनी सिम्पसन ने डंकन को धैर्य बँधाया, कीथ की नाड़ी एवं अन्य परीक्षण किये। प्रसन्नता की बात थी कि वह केवल बेहोश थे। कुछ समय तक दोनों ने इन्तजार किया। शनैः-शनैः उनकी चेतना वापस लौटने लगी, तो उनकी खुशियों का ठिकाना ही न था। कुछ समय पश्चात् वे पूर्णतः स्वस्थ हो उठ बैठे उनकी पुनः शारीरिक जाँच दोनों ने की, पर कोई असामान्यता नजर नहीं आयी। इसके बाद इसकी पुष्टि के लिए उन्होंने इसी रसायन का उपयोग कुत्ते पर किया। कुत्ते में भी वैसी ही प्रतिक्रिया देखने को मिली। आरंभ में बेहोश होकर थोड़ी देर पश्चात् वह चैतन्य हो गया।
अब सिम्पसन आश्वस्त हो गये कि बेहोशीकारक रसायन हाथ लग गया। इसके माध्यम से सम्प्रति रोगियों को आपरेशन के दौरान अचेत कर कठिन पीड़ा की अनुभूति से मुक्त रखा जा सकता था। यह अविस्मरणीय दिन 4 नवम्बर 1847 का था। जब इस विलक्षण खोज की जानकारी कुलपति को दी गई, जिनकी प्रेरणा और प्रोत्साहन ने उन्हें लक्ष्य के प्रति आस्थावान बनाये रखा था, तो उनने उन तीनों को सर्वोच्च मानक उपाधि और पारितोषिक से सम्मानित किया। यह रसायन क्लोरोफार्म था, जो तत्कालीन चिकित्सा विज्ञान के लिए वरदान सिद्ध हुआ। उसके बाद के आपरेशनों में इसी माध्यम से रोगी को अचेत कर किया जाने लगा। यह बात और है कि आज इससे भी अच्छी औषधियों की खोज कर ली गयी है एवं एनेस्थेसियोलॉजी नामक एक परिपूर्ण विद्या विकसित हो गयी है। किन्तु यह कभी भी नहीं भुलाया जा सकता कि आरंभिक चरण इस दिशा में जिनने बढ़ाए उनको ही श्रेय जाता है। इस सबका जिसका विकसित रूप हम आज देख रहे हैं। संयोग से हुआ आविष्कार वरदान बन गया व संज्ञाशून्यता के रूप में एक उपलब्धि चिकित्सा विज्ञान को मिली।
हम समाज के अभिन्न अंग है। हम क्या देखते हैं समाज को अपने लिए किये जा रहे अनेकानेक परोपकारों के बदले यही एकमात्र कसौटी है अपने सार्थक जीवन की काश कुछ ऐसा हम का गुजरें कि समाज हमेशा हमें याद कर सके।