जो पीर पराई जाने रे

January 1993

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चीनाँशकु रेशमी वस्त्र धारण किये हुए वह एक दिन ग्राम्य सौंदर्य के दर्शनों के लिए घर से निकल पड़े। कृत्रिम संसाधनों से भरी-पूरी राजधानी में जो लालित्य कभी देखने को नहीं मिल सका, वह लावण्य लहलहाते हुए हरे-भरे खेतों, वृक्षों पर गीत गाते पक्षियों के कलरव, कल-कल करते झरनों और निर्धनता में भी मस्ती के गीत गाते हुए भोले-भाले ग्रामवासियों में भरपूर देखने को मिला। वह बढ़ते गये-बढ़ते ही गए। उन्मुक्त प्रकृति में सौंदर्य देखकर उन्हें जितनी प्रसन्नता हुई, अभावग्रस्त ग्रामीणों का दैन्य देखकर उनकी करुणा उससे कही अधिक उमड़ती गई। कवि आज सारे संसार का दुःख-दर्द अपने भीतर आत्मा में रखकर कहीं अन्तर्ध्यान हो जाना चाहता था। उसकी भावनाएँ जन-जन के हृदयों से एकात्म होने लगी।

कवि ऐश्वर्य में पले थे। उन्हें कभी किसी प्रकार का अभाव न हुआ था। वैभव-विलास उनके आँगन में खेलता था। वे सौराष्ट्र के राज कवि थे। राजधानी पाटव कवि की भक्ति श्रद्धा-दार्शनिकता पर अपना सर्वस्व लुटा सकती थी। उतना सम्मान राज्य में और किसी को न मिला था। स्वयं सौराष्ट्र नरेश आचार्य प्रवर की पद-धूल माथे पर चढ़ाना अपना सौभाग्य मानते। उनकी किसी भी इच्छा की पूर्ति में उन्हें अपने जीवन की सार्थकता अनुभव होती।

ऐश्वर्य से घिरे रहने पर भी कवि की भावनाएँ विशुद्ध संन्यासिनी थीं। उनके अन्तःकरण से करुणा का स्रोत उमगता था। किसी के भी दुःख-दर्द को दूर करने के लिए वह अपना सब कुछ दे डालने के लिए उतावले हो उठते। अपने एकांत चिंतन में वह एक ऐसे विश्व की कल्पना करते, जिसमें कोई दीन न हो-दुःखी न हो, रोगी और अस्वस्थ न हो। उनके काव्य की एक-एक पंक्ति में प्राणिमात्र के प्रति प्रेम, दया-करुणा और आत्म-भावना भरी होती है। यही कारण था कि राज कवि गाँव के किसान-मजदूरों से लेकर सौराष्ट्र नरेश तक के परम-प्रिय हो गये थे।

जैसे ही ग्रामवासियों ने सुना-आज राज कवि हेमचंद्र सूरि पधारे हैं, तो सब के सब उनके दर्शनों के लिए उमड़ पड़े। भेंट तो क्या वे दे सकते थे, किसी ने कंद लाकर रख दिए, किसी ने कुछ फूल-फल। जिसने षट्-रस व्यंजनों का रसास्वादन किया था उसके लिए भला, रूखे-सूखे-कंदों का क्या महत्व हो सकता था? पर आत्मा की सरसता तो थी ही, जिसकी वजह से वह ग्रामीणों की इन साधारण वस्तुओं में इतनी तृप्ति महसूस कर रहे थे-जितनी सौराष्ट्र नरेश द्वारा दिये जाने वाले किसी भोज में भी उन्हें न मिली थी, सच बात तो यह थी कि वह पदार्थ नहीं प्रेम -रस पान कर रहे थे।

आतिथ्य ग्रहण करने के बाद वह पास खड़े लोगों से बात-चीत कर रहे थे, तभी एक किसान आया। एक मोटा परिधान-लगता था, उसे सूत और सन मिलाकर बुना गया था-लाकर आचार्य के चरणों में समर्पित करते हुए उसने प्रार्थना की-”यह वस्त्र मेरी पत्नी ने आपके लिए बुना है, आप उसे स्वीकार करें तो हम अपने जीवन को कृतार्थ हुआ समझें। “

एक नजर उस टाट जैसे मोटे कपड़े पर, दूसरी नजर अपने वस्त्राभूषणों पर डालते हुए कवि की आंखें भर आयीं। ओह? घोर वैषम्य? जी-जान लगाकर परिश्रम करते हैं-ये लोग और उनके परिश्रम का आनंद राज्य के थोड़े से लोग लूटते हैं। इनकी दीनता का कारण हम हैं, जिन्हें अपने बड़प्पन का झूठा अभिमान हो गया है। हमने कभी एक बार भी नहीं सोचा कि हम भी उसी माटी के बने हैं, जिसने इन गरीब किसानों को शरीर दिया है, एक ही माँ के बेटों में इतना अंतर-इससे बड़ा कलंक सत्ताधारियों और लोकसेवियों के लिए दूसरा कुछ नहीं हो सकता।

आचार्य ने वह परिधान हाथ में लिया माथे से लगाया और शरीर पर धारण कर लिया। राजकीय वस्त्राभूषण उतार कर उस ग्रामीण को दे दिये। स्वयं उस मोटे वस्त्र में राजधानी लौट आये। राजकवि के वस्त्रों पर दृष्टि जाते ही महाराज द्रवीभूत होकर बोले-” आचार्य देव? यह क्या देख रहा हूँ? आप ऐसे वस्त्र पहनें, पाटण के लिए यह जीवन-मरण का प्रश्न है। क्या मैं उसका कारण जान सकता हूँ, इन वस्त्रों की क्या जरूरत आ पड़ी?”

आचार्य जो अब तक सरलता की प्रतिमा लगा करते थे, आज उनमें सूर्य-सी प्रखरता फूट पड़ी, उन्होंने कहा-”महाराज? अधिकाँश प्रजा ऐसे ही कपड़े पहनती है तो फिर मुझे ही बहुमूल्य वस्त्र पहनने का क्या अधिकार? यदि मैं ग्रामीणजनों को कुछ दे नहीं सकता तो उनसे लूँ भी क्यों? और आप जो देते हैं, वह भी तो उन्हीं का है।”

महाराज को अपनी भूल अनुभव हुई और उसके बाद वह जन-कल्याण में स्वयं को उत्सर्ग करने लगे।


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