विशेष लेख माला (2): युग पुरुष पूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य - वैज्ञानिक अध्यात्मवाद को अमली जामा जिनने पह

January 1993

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

विज्ञान और अध्यात्म एक दूसरे के पूरक हैं तथा अध्यात्म का विज्ञान सम्मत प्रतिपादन भली-भाँति संभव है, यह सब कथन, उपकथन आज हम जितने खुले रूप में सुनते व चारों ओर इसका उद्घोष होते अनेकों व्यक्तियों को इस पर वक्तृता देते देखते है, उतना सरल यह आज से पैंतालीस पचास वर्ष पूर्व नहीं था। सभी यह मानते रहे हैं कि विज्ञान वह है जो दृश्य माध्यमों को आधार बनाकर हमें प्रत्यक्ष रूप से यह समझाता है कि कोई भी घटनाक्रम या क्रिया-प्रतिक्रिया किस कारण होती है, जबकि अध्यात्म मूलतः चेतना विज्ञान को प्रगति की दिशा देने वाली परोक्ष विद्या है, जिसे विज्ञान का प्रत्यक्षीकरण का जामा नहीं पहनाया जा सकता। किंतु श्रद्धा-भावना-संवेदना भी एक विज्ञान है, अध्यात्म स्वयं में एक विज्ञान है व उसे पूर्णतः पदार्थ विज्ञान की कसौटी पर कसते हुए प्रमाणित किया जा सकता है, यह सबसे पूर्व अखण्ड ज्योति पत्रिका के वर्ष 1947 के अंक (जनवरी 47) परम पूज्य गुरुदेव ने प्रतिपादित करते हुए दर्शन विज्ञान को जो अनोखी दिशा दे दी, उसका मूल्याँकन हम व मनीषी वर्ग संभवतः अभी न कर सकें, किंतु उनकी स्थापनाएँ व लेखन परिणाम विराट है, आने वाले कुछ वर्षों में निश्चित करेंगे।

हम सभी आज ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के रूप में तर्क, तथ्य, प्रमाण सम्मत विवेचन करने वाली एक जाग्रत प्रयोगशाला आज खड़ी देखते हैं जिसे चौदह वर्ष पूरा होने को आ रहे हैं, साथ ही अखण्ड ज्योति के विज्ञान सम्मत प्रतिपादन भी हममें से अनेकों वर्षों से पढ़ते चले आ रहे हैं। किंतु इन सभी के संबंध में प्रारम्भिक प्रारूप आज से पचास वर्ष पूर्व बन चुका था, जैसा कि अखण्ड ज्योति के प्रारम्भिक वर्षों के लेख बताते हैं। धर्म की विडम्बनाओं से मुक्त कर उसे विज्ञान सम्मत बना अध्यात्म का शाश्वत ज्वलंत स्वरूप सामने लाने का संकल्प परम पूज्य गुरुदेव ने अपने मार्गदर्शक परम पूज्य गुरुदेव की प्रेरणा से बहुत पहले ही ले लिया था। प्रारंभ से ही चिंतन चेतना व लेखनी मोड़ निताँत क्राँतिकारी रहा। धर्म-अध्यात्म के नाम पर व्यक्ति को बिना अर्थ-मर्म समझे कीर्तन कराते रहने वाला साहित्य ही उन दिनों प्रकाशित होता रहा था, किंतु इससे तनिक भी प्रभावित न हो उनने जन-जन के मन को उद्वेलित करने वाले क्राँतिकारी वैज्ञानिक अध्यात्मवाद की आधारशिला रख इक्कीसवीं सदी के धर्म-दर्शन की मूल पृष्ठ-भूमि अपनी ओजस्वी लेखनी से बना दी।

अखण्ड ज्योति के पाठकों को 1965-1966 में कुछ नया-सा पढ़ने को उन दिनों पत्रिका में मिला। परम पूज्य गुरुदेव ने बुद्धिजीवी वर्ग से-मनीषा से अनुरोध किया कि वे विज्ञान की विभिन्न विधाओं का शिक्षण पाठकों व उनके वैज्ञानिक मित्रों से लेना चाहते हैं। बड़ी विनम्रतापूर्वक उनने लिखा था कि हमारा मन है कि हम विज्ञान का क, ख, ग सीखें ताकि उस आधार पर जीवात्मा-परमात्मा, कर्मफल-पुनर्जन्म, परलोकवाद, मानवी काया की विलक्षणताओं-प्रकृति के चमत्कारों के मूल में छिपी विज्ञान-सम्मत विवेचनाओं का रहस्योद्घाटन वे जन-जन के सम्मुख कर सकें। इसके लिए उनने दर्शनशास्त्र, अध्यात्म विज्ञान के बहुमुखी पक्ष को सामने रखते हुए हर पहलू पर आधुनिक विज्ञान इस सम्बंध क्या कहता है, यह सभी विवेचना पाठकवर्ग से किये जाने की अपेक्षा रखते हुए पाठकगणों से निवेदन किया कि वे (बुद्धिजीवी पाठक) उन्हें (परमपूज्य गुरुदेव को) पत्राचार पाठ्यक्रम द्वारा अथवा स्वयं गायत्री तपोभूमि, अखण्ड ज्योति संस्थान आकर पढ़ायें।

किसी को भी पढ़ने सोचने पर यह सारा उपक्रम विचित्र लग सकता है कि एक विराट संगठन बनाने वाले, हिंदू धर्म के मूल आधार पर देव संस्कृति के मुख्य दो आधार गायत्री व यज्ञ की धुरी पर धर्मतंत्र से लोक मानस का परिष्कार का संकल्प लेने वाले आचार्य श्री ने 1971 में अपनी मथुरा छोड़कर हिमालय आने की घोषणा के बावजूद भी ऐसा कुछ निवेदन जाने से ठीक पाँच-छह वर्ष पूर्व किया था। लिखने में भी उनने कोई संकोच नहीं किया कि वे स्वयं प्राइमरी से अधिक पढ़े लिखे नहीं है किंतु इच्छा यह है कि जीवन के इस उत्तरार्ध में विज्ञान पढ़ें। लीलापुरुष का यह उपक्रम उस समय की अखण्ड ज्योति पत्रिका के चालीस-पचास पाठकों को संभवतः समझ में भी नहीं आया होगा, पर यही तो अद्भुतता हर उस अवतारी स्तर की सत्ता की रही है जिसका दृश्य जीवन महज रहस्यों की पिटारी बनकर रहा है। सारे रहस्य उनके जाने के बाद ही खुले हैं।

बकायदा एक शोध मण्डली 1965-1966 के उन दिनों में अखण्ड-ज्योति संस्थान में सक्रिय हो गयी जो समय निकाल कर पूज्यवर को विज्ञान पढ़ाने का काम करने लगी। ध्रुव नारायण जौहरी, निर्मला राय, यतीन्द्र नाथ दत्त, रामलाल वर्मा, डॉ. अमल कुमार, श्री राजगुरु, बलराम सिंह परिहार, रमाकांत रमन आदि ये कुछ नाम उन दिनों के व्यक्तियों के हमें आज भी याद हैं जिन्हें विज्ञान की विभिन्न विधाओं के प्रतिपादनों को एकत्रकर अध्यात्म से जोड़ने का काम सौंपा गया था। पढ़ा तो था इनने व इन जैसे ही कुछ और लोगों ने जो जीवविज्ञान, भौतिकी, चिकित्सा विज्ञान में या तो निष्णात थे या होने का प्रयास कर रहे थे, किंतु एक आश्चर्यजनक परिवर्तन 1967 की पत्रिका में आया जब बसंत पर्व के बाद से ही अखण्ड ज्योति के लेखों ने एक नया मोड़ लिया तथा आत्मसत्ता से लेकर ब्राह्मी चेतना के तथा सृष्टि के महत्वपूर्ण घटनाक्रमों से लेकर दैनन्दिन जीवन के उपक्रमों के साधनात्मक-दार्शनिक विवेचन के साथ वैज्ञानिक प्रतिपादनों का प्रस्तुतीकरण होने लगा। नोट्स जब इकट्ठा हो ही रहे थे, तब कौन इन लेखों को लिख व बड़ी कुशाग्रता-पूर्वक संपादित कर रहा था? आज के 1993 के पाठकों को आश्चर्य होगा किंतु यह सभी कार्य वह “कलेक्टीव कान्शसनेस” (समूह चेतना) का पर्याय समष्टि मन कर रहा था, जिन्हें हम परम पूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य के नाम से जानते हैं। व्यक्तित्व की सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक व्याख्या से लेकर व्यक्ति निर्माण के सूत्रों का वह वैज्ञानिक प्रस्तुतीकरण स्वयं में अद्भुत व अनुपम था। परमात्म चेतना जब प्रस्फुटित होने के लिए किसी को माध्यम बनाती है तो उसके लिए दृश्य स्तर पर कोई ‘क्वालिफिकेशन’ का मापदण्ड होना जरूरी नहीं है। उसने पूज्यवर को माध्यम बनाया व बुद्धिजीवी वर्ग के उन व्यक्तियों को जिन से पढ़ने को कहा गया था, निमित्त मात्र बनाया। वह सब कुछ जो उन दिनों से लेकर सन 2000 तक लिखा जाना था, दिमाग की परतों में पड़ा था किंतु उसके प्रस्तुतीकरण के लिए उस नाटक की भी आवश्यकता थी जो लीलापुरुष द्वारा रचा गया।

विज्ञान व अध्यात्म के समन्वयात्मक रूप की यह जीवन यात्रा परिजनों के समय कई ऐसे प्रसंग मस्तक पटल पर घूम जाते हैं, जिनसे आभास होता है कि कितने सहज-स्वाभाविक रूप में वह स्थापना कर दी गयी, जिसके बिना संभवतः आज का पढ़ा -लिखा वर्ग स्वयं भगवान की कही बात भी स्वीकार न करता। ये प्रसंग ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान की स्थापना से संबंधित है, जिसके विषय में घोषणा 1976-1977 में की गयी, स्थापना 1978 में हो गयी थी, किंतु स्पष्ट रूप 1979 में उभरकर सामने आया, जब नाना तरह के यंत्रों से युक्त अपने में अनुपम-अद्भुत एक प्रयोगशाला की सप्तसरोवर में शांतिकुंज से कुछ दूर स्थापना कर दी गयी। 1940 में ही “मैं क्या हूँ” जैसी विज्ञान व अध्यात्म के समन्वयात्मक प्रतिपादनों के प्रस्तुतीकरण वाली प्रथम पुस्तक जिनने लिखी हो तथा तब से लेकर गायत्री महाविद्या के जटिल गुह्यतम वैज्ञानिक पक्षों-पंचकोशी साधना से लेकर कल्प साधना-षट्चक्र जागरण, ग्रंथिभेदन आदि प्रक्रिया पर

जिनके द्वारा प्रकाश डाला जा चुका हो, समस्त आर्षग्रंथों के भाष्य के साथ मंत्र महाविज्ञान तथा तंत्र महाविज्ञान भी जिनने रचकर रख दिया हो, ऐसे पूज्यवर के लिए प्रयोगशाला की आवश्यकता क्यों पड़ी होगी, यह किसी के भी मन में आ सकता है। कोई यह भी सोच सकता है कि दृश्य विज्ञान पर आधारित प्रयोगशाला तो जटिलतम अध्यात्मिक गुत्थियों का समाधान नहीं दे सकती? फिर यह स्थापना क्यों कर? सोचना स्वाभाविक भी है। हमें आज भी याद है जब दो-तीन कार्यकर्ताओं को सामने बिठाकर पूज्यवर ने कहा था-”लड़कों! अब हमें प्रत्यक्ष विज्ञान की कसौटी पर कसने के लिए गायत्री के साधना विज्ञान, यज्ञ की ऊर्जा की सामर्थ्य, चिंतन चेतना के विभिन्न घटकों के मापन के लिए कुछ मशीनों की जरूरत पड़ेगी। तुम जरा यह तो बताओ-पैथालॉजी, फिजियोलॉजी, साइकोलॉजी में किन-किन मशीनों की जरूरत पड़ती है? बस ऐसी ही कुल चौबीस मशीनों को मँगाकर अपनी लेबोरेट्री शुरू कर दो ताकि वैज्ञानिक समुदाय इस मिशन के मूलभूत उद्देश्यों को समझ सके।” कौन से उपकरण मँगाये जायें, यह यक्ष प्रश्न तो हम सबके समक्ष भी था क्योंकि स्थूल उपकरणों से तो साधना विज्ञान की -यज्ञ विज्ञान की गहराइयों को-प्रतिक्रियाओं को मापा जाना संभव नहीं था। पूछा भी कि आप बतायें, कौन से वे किस स्तर के उपकरण मँगाये? गुरुदेव का उत्तर था कि किसी भी दवा देने के पूर्व व बाद में शरीर व मन पर क्या प्रभाव पड़ा, यह जानने के लिए शरीर विज्ञान, मनोविज्ञान में जिन उपकरणों की जरूरत पड़ती है, उनको मँगा लो। शेष काम हमारे प्रतिपादन करेंगे। यही किया गया। प्रयोगशाला बनायी तथा एक विशाल ग्रंथागार खड़ा हो गया। इस स्थापना का मूल उद्देश्य परमपूज्य गुरुदेव ने समझना आरम्भ किया-हमें आत्मबल सम्पन्न व्यक्तियों की नवयुग के लिए आवश्यकता है। ऐसी पीढ़ी जो इक्कीसवीं सदी का भार अपने कंधों पर ढोयेगी धर्म-अध्यात्म के तत्वज्ञान को जिस भाषा में समझती है, उसी भाषा में प्रस्तुतीकरण हमारा उद्देश्य होगा। मजहब-सम्प्रदायों से मुक्त विश्व संस्कृति का नवोन्मेष करने वाले एक सार्वभौम अध्यात्म का विज्ञान सम्मत धर्म का ढाँचा खड़ा करना होगा ताकि मानवधर्म को मानने वाली मनीषा नये समाज की संरचना कर सके। ब्रह्मवर्चस का अर्थ ही है ब्रह्मविद्या तथा व्यवहारिक तप साधना का समन्वय, अध्यात्म तथा विज्ञान का समन्वय, सिद्धाँत व व्यवहार का समन्वय। इन्हीं उद्देश्यों को लेकर यह स्थापना की जा रही है।

प्रयोगशाला से किसी विलक्षण परिणामों की आशा अपेक्षा लगाये परिजनों को हम यही बताना चाहेंगे कि देव संस्कृत के विज्ञान सम्मत आधार के प्रतिपादन के लक्ष्य को लेकर चली यह वैज्ञानिक एवं दार्शनिक शोध ठीक वही कार्य सम्पन्न कर रही है, तो गुरुसत्ता उसे सौंप कर गयी है। साधना व्यक्ति के व्यक्तित्व को किस कदर बदल सकती है, अध्यात्म प्रतिपादनों के अनुरूप चिंतन आहार में परिवर्तन, वनौषधियाँ, यज्ञ ऊर्जा व मंत्र विज्ञान संगीत चिकित्सा जैसे उपचारों में क्या कुछ प्रभाव व्यक्ति की जैव-रासायनिक व जैव-विद्युतीय संरचना पर पड़ते है, यह सब जन मानस के सम्मुख आते ही एक क्राँतिकारी चिंतन चेतना विकसित होगी, यह सुनिश्चित है। थीसिस तो बहुत लिखी जाती हैं, शोध संस्थान के बोर्ड्स तो ढेरों लटके दिखायी देते हैं,तथा प्रयोगशालाएँ सहस्रों की संख्या में विश्व में हैं किंतु अध्यात्म विज्ञान के समन्वय की शोध का स्तर क्या होना चाहिए तथा मानव मात्र की क्षीण होती जा रही जीवनी शक्ति, मनोबल-आत्मबल को ऊँचा उठाने,सोचने की पद्धति को बदलने वाली कोई विज्ञान सम्मत विद्या है,यह पक्ष सामने आते ही आज के तार्किक -तथाकथित बुद्धिजीवियों का चिंतन आमूल–चूल बदलेगा ऐसा हमारा विश्वास है। शोध संस्थान के निष्कर्षों की थोड़ी-सी झलक विश्वयात्रा पर निकले दल ने विश्व मनीषा को दी है तो वहाँ तहलका मच गया है। कोई कारण नहीं कि अगले दिनों यह शोध नवयुग के महामानव के निर्माण की मूल धुरी बन कर सामने न आए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118