सूर्योपासना की सार्वभौमिकता

January 1993

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आरोग्य संवर्धन, बलवर्धन, आयु, प्राण एवं आत्मोन्नति के विविध विधि उपचारों के लिए सूर्य-सान्निध्य का प्रचलन मानव जन्म की भाँति ही अति प्राचीन है। विश्व कि प्रायः सभी धर्मों में सूर्योपासना का कभी व्यापक रूप से प्रचलन था। इसका प्रमुख कारण सूर्य का जीवन से घनिष्ठ रूप से जुड़ा होना है। शास्त्र वचनों के अनुसार पृथ्वी पर जीवन निर्माण से लेकर विकास एवं मरणोत्तर तक की सारी प्रक्रियाओं-गतिविधियों का संचालन, नियमन प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सूर्य द्वारा ही होता है। काया के निर्माण में भाग लेने वाले पंच तत्वों का उद्गम स्रोत भी उसे ही माना गया है। पंच भौतिक तत्वों में सर्वाधिक प्रबल वायु होता है जिसकी विकृति ही रुग्णता-अशक्तता का कारण बनती है। यदि इसे नियंत्रित रखा एवं प्रचण्ड बनाया जा सके तो न केवल दीर्घजीवी बना जा सकता है, वरन् ऋषि-सिद्धियों से लेकर स्वर्ग-मुक्ति तक का द्वार खुल सकता है।

वेदों में ओजस, तेजस् एवं ब्रह्मवर्चस् की प्राप्ति के लिए सूर्य की उपासना करने का विधान है। यजुर्वेद अध्याय 13, मंत्र 43 में कहा गया है कि सूर्य की सविता की आराधना इसलिए भी की जानी चाहिए कि वह मानव मात्र के समस्त शुभ और अशुभ कर्मों के साक्षी हैं। उनसे हमारा कोई भी कार्य या व्यवहार छिपा नहीं रह सकता है। सूर्य की दृश्य व अदृश्य किरणें समस्त विधाओं-दीवारों को बींधती हुई सृष्टि के कण-कण की सूचनायें एकत्रित करती रहती हैं। यह एक वैज्ञानिक तथ्य भी है। फिर मनुष्य तो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रकाश रश्मियों के संपर्क में रहता ही है, क्योंकि सूर्य विश्व चक्षु जो ठहरा। भौतिक एवं अध्यात्मिक क्षेत्र में सूर्योपासना की सार्वभौमिकता एवं उस से मिलने वाले लाभों से समूचा आर्षवाङ्मय भरा पड़ा है। स्कन्द पुराण-काशी खण्ड 9/45-48 में सविता-सूर्य-आराधना द्वारा धर्म, अर्थ

काम, मोक्ष अर्थात् चतुर्वर्ग की फल प्राप्ति का वर्णन है। धन, धान्य, आयु, आरोग्य, पुत्र, पशुधन, विविध भोग, स्वर्ग, अपवर्ग आदि सभी सूर्य की उपासना करने से प्राप्त होते है। ऋग्वेद में सूर्योपासना के अनेकों प्रसंग है जिनमें सूर्य से पाप, मुक्ति, रोगनाश, दीर्घायुष्य, सुख प्राप्ति, शत्रुनाश, दरिद्रता, निवारण आदि के लिए प्रार्थना की गयी है। ऋग्वेद के ही 1/115/6 एवं 10/37/4 तथा यजुर्वेद 20/16 आदि मंत्रों में सूर्य की आधि-व्याधि निवारण एवं पाप कर्मों, आसन्न संकटों, अपकीर्ति से बचाने वाला तथा तथा प्रगति एवं अभिवृद्धि प्रदान करने वाला बताया गया है। यजुर्वेद के ही 5/33 एवं 8/40 मंत्रों में सविता को देवयान मार्ग पर ले जाने वाला तथा आराधक को सर्वश्रेष्ठ तेजस्वी बनाने वाला कहा गया है।

ब्रह्म पुराण के अध्याय 29/30 में सूर्य को सर्वश्रेष्ठ देवता मानते हुए सभी देवों को इन्हीं का प्रकाश स्वरूप बताया गया है और कहा गया है कि सूर्य की उपासना या आराधना करने वाले मनुष्य जो कुछ सामग्री सूर्य के लिए अर्पित करते हैं, भगवान भास्कर उन्हें लाख गुना करके वापस लौटा देते है। सौर सम्प्रदाय के अनुयायी एवं गायत्री महाशक्ति के उपासक अभी भी सूर्य की आराधना उसके तीन रूपों में करते हैं। सूर्योदय के समय ब्रह्म और उसकी शक्ति के रूप में, मध्याह्न में महेश्वर रूप में एवं सूर्यास्त के समय विष्णु-रूप में उपासना करते हैं। सूर्य अनुपम कल्पना शक्ति वाले, सिद्धि के प्रेरक, सबको कर्म की प्रेरणा देने वाले एवं बुद्धि प्रदाता है। उनके इस स्वरूप का वर्णन यजुर्वेद में बहुत से सुँदर ढंग से किया गया है। ऋषियों ने इसे अनुभूति के स्तर तक उतारा और उनसे मिलने वाले लाभों का वर्णन किया है। पातंजलि योग दर्शन में उल्लेख है कि सूर्य पर संयम करने से विश्व ब्रह्मांड का ज्ञान होता है। सामान्य साधना क्रम में भी सूर्य पर त्राटक करने या स्वर्णिम सविता का ध्यान करने से साधक को दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है, जिसके द्वारा वह किसी को भी देखकर उसका प्राकृत स्वरूप और समस्त घटनाओं को जान लेता है। दूरस्थ वस्तुओं, घटनाक्रमों एवं प्रकृति के गर्भ में चल रही सूक्ष्म हलचलों की जानकारी वह प्राप्त कर सकता है। सविता देवता की उपासना से अभीष्ट की पूर्ति होती है। शास्त्रों में इसके अनेकों प्रमाण मिलते हैं। भगवान राम द्वारा रावण पर विजय एवं साम्ब का कुष्ठ रोग से मुक्त होना सूर्योपासना की इतिहास प्रसिद्ध घटनायें हैं। सूर्य आराधना से पुत्र प्राप्ति का उल्लेख करते हुए महाभारत में कहा गया है कि महारथी कर्ण का कवच कुण्डल सहित जन्म माता कुँती के गर्भ से उनके द्वारा की गयी सूर्य आराधना का ही प्रतिफल था। महाराजा अश्वपति ने सूर्य की उपासना करके सती सावित्री को अपनी कन्या के रूप में पाया था। यही कन्या सत्यवान को ब्याही गयी थी जिसने अपने तपोबल से उसकी मृत्यु हो जाने पर भी यमराज से उसे वापस ले लिया था। महाकवि कालीदास ने अपनी अनुपम कृति ‘रघुवंश’ में वनवास काल के समय सीता द्वारा सूर्य पर त्राटक करने का उल्लेख किया है। उसमें कहा गया है कि सीता ने राम को संदेश भेजा था कि वह गर्भस्थ शिशुओं को जन्म देने के पश्चात सूर्य पर दृष्टि निबद्ध कर अनन्य भाव से तपस्या करेंगी जिससे अगले जन्म में भी वह राम को पति रूप में प्राप्त कर सकें।

हिन्दू धर्म की भाँति ही जैन एवं बौद्ध धर्मों में भी सूर्योपासना का प्रचलन उनके उद्गम काल से ही प्रचलित है। बोध गया तथा भाजा की गुफा एवं उड़ीसा प्रान्त की अनन्त गुफा में सूर्य की प्रतिमा इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। जैन आगमों-विशेषकर “सूर्य प्रज्ञप्ति” में सूर्य सम्बन्धी विविध ज्ञान सम्पदा का प्रतिपादन किया गया है। इसी तरह आगम शास्त्र “भगवती” में ऐसे अनेकों प्रसंगों का वर्णन है जिससे स्पष्ट होता है कि जैन मुनियों की जीवन साधना के अनेक प्रयोग सूर्य से संबंधित हैं। उनकी मान्यता है कि सूर्य सान्निध्य से उनकी आतापना लेने से शरीर में बल और कान्ति की ओजस और तेजस की अभिवृद्धि होती है। प्राण-प्रखरता बढ़ती है। ‘तेजस् लब्धि’ के लिए जैन शास्त्रों में 6 महीने तक सूर्य की ओर मुख करके तप करने-आतप लेने का विधान है। कर्मक्षय एवं आभामंडल के विकास के लिए भी सूर्य मंडल या उसकी प्रकाश रश्मियों का ध्यान किया जाता है।

प्रख्यात मनीषी ए.बी.कीथ के अनुसार ग्रीक दर्शन में सूर्योपासना को अत्यन्त प्राचीन माना गया है। प्रसिद्ध दार्शनिक गेलिस ने भी उपरोक्त तथ्य की पुष्टि की है। ग्रीक दार्शनिक एम्पेडीलस का कथन है कि सूर्य ही इस संसार का सृष्टा है। उन्होंने सूर्य को अग्नि के मूल स्रोत के रूप में वर्णन किया है। ग्रीस में आज भी विवाह-शादियों में सूर्य मंत्र पढ़ा जाता है। रोमन में रविवार को पवित्र दिन माना और उस दिन की गयी पूजा, उपासना को अधिक फलदायी माना जाता है। महान दार्शनिक थियोडोसियन ने तो रविवार के दिन नृत्य, वाद्य, संगीत, थियेटर, सरकस आदि सभी मनोरंजन के कार्यों एवं द्यूतकर्म, मुकदमेबाजी आदि सभी का निषेध किया है।

चीन के सुविख्यात दार्शनिक ली की ने अपने ग्रंथ-”क आओ तेह सेंग“ में कहा है कि ज्योतिर्विद्या एवं खगोलशास्त्र का मूलाधार सूर्य ही है। उन्होंने सूर्य को “स्वर्ग पुत्र” नाम से सम्बोधित किया है और दिन का प्रदाता, ज्ञान-विज्ञान का स्रोत कहकर उसकी अभ्यर्थना की है। इसी तरह इस्लाम में सूर्य को-”इल्म अहकाम अन नजूम” का केन्द्र मानकर उसकी उपासना की गयी है। इतिहास-वेत्ताओं के अनुसार अकबर स्वयं सूर्य उपासक था। वह नित्य सूर्याभिमुख होकर सूर्य सहस्रनाम का पाठ करता और पूजन करता था। उसने एक आदेश निकाला था कि उसके राज्य में प्रातः, मध्याह्न, साँय एवं अर्धरात्रि को अर्थात् चार बार सूर्य की पूजा-आराधना होनी चाहिए। यूनान का सम्राट सिकन्दर भी सूर्य का उपासक था।

ईसाई धर्म में सूर्य-आराधना का महत्वपूर्ण स्थान है। इस संदर्भ में ईसाई धर्म ग्रंथ-”न्यू टेस्टामेण्ट” में सुविस्तृत वर्णन मिलता है। रविवार सूर्य का दिन होने से पूजा-उपासना के लिए इस धर्म के अनुयायियों के लिए विशेष महत्व रखता है। सेंटपाल का कथन है कि सूर्य के द्वारा पवित्र किया गया यह दिन दान की अपेक्षा रखता है। ईसाई लोग इस दिन को ईसा का पवित्र दिन भी मानते हैं।

आद्य शंकराचार्य ने संध्याभाष्य में सूर्य माहात्म्य का वर्णन करते हुए कहा है कि चराचर जगत के उत्पादक सूर्य की आराधना पापों का नाश करती है। वे हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करते हैं। स्फूर्ति प्रदान करने, विश्व में गति का संचार करने, सद्विवेक जगाने एवं प्रेरणा देने के कारण ही सूर्य को “सविता” कहा जाता है। गायत्री महामंत्र में इसी अदृश्य तात्विक शक्ति की ओर संकेत हुए उसकी नित्य आराधना करने को कहा गया है। स्वामी रामतीर्थ सूर्य को सबसे बड़ा संन्यासी कहते थे। उनके अनुसार वही सबके प्रकाश, प्रेरक और जीवनदाता हैं। ज्ञानरूपी प्रकाश प्रदान करने का कार्य भी वही करते हैं, अतः वह सृष्टि के सबसे बड़े आचार्य हैं। उनका आश्रय लेकर मनुष्य अज्ञानान्धकार एवं त्रितापों से त्राण पा सकता है। ज्ञान का सद्विवेक का आश्रय लेकर ही मनुष्य श्रेय-पथ की ओर अग्रसर होता और भौतिक ऋद्धियों एवं आत्मिक विभूतियों का स्वामी बनता है। ज्ञान-विज्ञान एवं प्राण चेतना के भाण्डागार सविता देवता-सूर्य की ध्यान धारणा, पूजा, उपासना इसमें बहुत सहायक होती है।


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