संप्रदायवादी विषमता (Kahani)

January 1993

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वैदिक ऋषियों की राष्ट्र संबंधी परिकल्पना बड़ी विराट रही है। वे “राष्ट्रं वा अश्वमेधः” कहकर समूचे विश्व को एक ही धर्म-एक ही संस्कृति-एक ही शाश्वत मान्यता के दायरे में लाते हुए एकता-अखण्डता के पक्ष में रखने के पक्षधर रहे हैं। प्रस्तुत अश्वमेध श्रृंखला वस्तुतः समूचे भारत ही नहीं-विश्व को एकात्मता के सूत्र में आबद्ध करने के लिए महाकाल की प्रेरणा से ही बनी है। इसमें यजन प्रक्रिया से अधिक उस मूलभूत भावना का महत्व है जिसमें राष्ट्र की प्रसुप्त प्रतिभा व पराक्रम को जगाया जाता है। आज के संप्रदायवादी विषमता एवं जातिवादी अलगाव से भरे युग में अश्वमेध यज्ञों में भागीदारी का महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है।


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