अंतिम जीत सत्य की है

January 1993

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गजनी की सेना में अजीब चला−चली हो रही थी। भारी आवाज में न आने वाली बोली में हुक्म दिए जाते, घोड़े हिनहिनाते, शस्त्रों की आवाज होती। दूर पर जंगल के बिल्कुल पास जहाँ अमीर डेरे तम्बू डालकर पड़ा था, मशालें जल रह थीं। वहाँ से घोड़े छूट रहे थे और जैसे किसी महायंत्र की चरखी घूमती है वैसे ही सारी सेना में समझ में न आने वाले व्यूह बन रहे थे।

इधर धोधागढ़ के दरवाजे खुले और उदय होते सूर्य की सुनहरी किरणों में दानों के समान दीप्तिमान चौहान वीर जगमगाती बागें, केसरिया पाग और चमकते खड़गों से बैरियों को अंधा बनाते घुंघरू वाले घोड़ों और ऊंटों को नचाते गढ़ से उतरे। सबसे पहले चार गज आगे-आगे उतर रहे थे धोधा बापा। जैसे कोई तैराक समुद्र की तरंगों को चारों ओर फेंकता आगे बढ़ता है वैसे ही वे बढ़े। उनकी गर्जना दूर तक सुनाई देती थी। जहाँ तक उनका हाथ फिरता था यवन सेना में भगदड़ मच जाती, व्यूह पर व्यूह चकनाचूर हो जाते। उनकी केसरिया पाग इस भीड़ में भी चमकती -दमकती आगे बढ़ी- फिर अदृश्य हुई, फिर चमकी.......और अचानक पीछे से हरी पगड़ी और लाल दाढ़ी वाले सुल्तान ने आकर छल से बार किया। हजारों दुश्मनों की तलवारें उनकी मृत्यु शय्या पर छत्र की तरह तन गयी। यवन नाचते-कूदते पुकार लगाते गढ़ के अंदर प्रवेश कर चारों दिशाओं में फैल गये। चौक पर पहुँचते ही गजनी की नजर पत्थर की एक प्रतिमा पर पड़ी, वह स्तब्ध हो गया उसे देखकर। ऐसा अनुपम कला कौशल उसने आज तक नहीं देखा था। हाथी रुक गया-पीछे आ रही यवन सेना में भी ठहराव आ गया।

वह प्रस्तर निर्मित मानव मानों पराक्रम का प्रतीक हो। आकाश की ओर उठी हुई वे पैनी आंखें। स्वर्ग से अमृत को लाने वाले गरुड़ की दृष्टि थी वह। पैरों में लिपटे हुए नागों को वह हाथों से मसलकर नष्ट कर रहा था-मानों पक्षीराज गरुड़ ही हो। मंत्रमुग्ध अमीर ने पूछा -इसका शिल्पी कौन है? सामने आये, उसे आशा थी कि जनसमूह में से कोई आगे आयेगा और झुककर अभिवादन करते हुए कहेगा-सुल्तान! मैं इसका निर्माता हूँ। परंतु जब यह आशापूर्ण नहीं हुई तब अमीर ने तनिक ऊँचे और रूखे स्वर में फिर वहीं आदेश दुहराया, तब भी सन्नाटा छाया रहा। क्षुब्ध होकर सुल्तान ने पूछा -किसकी प्रतिमा है यह? महाप्रतापी सुल्तान ने अभी जिन्हें स्वर्गलोक पहुँचा दिया, उन्हीं की मूर्ति है यह। किसी ने बहुत डरते-डरते निवेदन किया। अब की बार सुल्तान की प्रतिमा में पहले जैसा सौंदर्य दिखायी नहीं दिया। उसने पूछा-क्या इस मूर्ति का शिल्पी इसी नगर में रहता है? जी। किसी ने सहमते हुए संक्षिप्त-सा उत्तर दिया। वह हमारे स्वागत कि लिए क्यों नहीं आया? तुरंत उसे यहाँ हाजिर किया जाय,तभी सवारी आगे बढ़ेगी।

सुल्तान ने दृढ़ स्वर में आदेश दिया। तुरंत शिल्पी को तलाश करके उसके सामने उपस्थित किया गया। गजनी ने उसे तीव्र दृष्टि से घूरते हुए प्रश्न किया-तुम्हीं ने बनाई है ये मूर्ति?

जी हाँ। शाँत स्वर में शिल्पी बोला।

कैसे? सुल्तान ने फिर सवाल किया कुछ अटपटा-सा।

कैसे? यह कैसे बताया जा सकता है? लताओं पर कलियाँ कैसे उगती हैं, क्या यह सुल्तान बता सकेंगे? शिल्पी ने प्रश्न को प्रश्न में ही लपेट लिया।

सुल्तान निरुत्तर! वह भीतर ही भीतर जल उठा फिर भी संयत होकर बोला- यह मूर्ति किसकी है?

महाप्रतापी धोधा राणा की। शिल्पी ने पूर्ववत निर्भीकता से कहा।

आज तेरा वह महाप्रतापी धोधा राणा तो क्या सामान्य मनुष्य भी नहीं है। जब वह कुछ नहीं है-तब उसे पराक्रमी बताना दुनिया को धोखा देना नहीं है?

यदि मैं आज आप की प्रतिमा बनाऊँ तो कल उसके सम्बंध में भी यही होगा। शिल्पी ने निर्भयतापूर्वक कहा। क्या मतलब? सुल्तान ने मस्तक पर प्रश्नात्मक रेखाएँ खिंच गई।

मृत्यु से कौन बच सका है सुल्तान? अंतर सिर्फ यह है कि एक सत्कर्म करके युगाँतर व्यापी कीर्ति अर्जित करता है। दूसरा नृशंसता और बर्बरतापूर्वक -हँसते खिलखिलाते जीवन पुष्पों को कुचल-मसलकर अपने लिए आहें, चीत्कारें बटोरता है।

शिल्पी कुछ और बोलता-इतने में सुल्तान ने लाल-लाल आँखों से शिल्पी को देखा और दृढ़ संयत स्वर में कहा-कलाकार! तुम्हारा हाथ पत्थर से स्वर्ग का निर्माण भले करे, किंतु तुम्हारी जीभ तुम्हें रसातल की ओर ले जा सकती है।

अमीर! कलाकार की जीभ और हाथ अलग-अलग नहीं होते। उसका मस्तिष्क और हृदय भी अलग-अलग नहीं होता। राजनीति भले ही वीरांगना हो, कलाकार की नीति तो पवित्रता है। वह मानती है जीवन में एक ही सत्य है और वह है परमसत्ता के आलोक में विकसित होना। जैसे कोई ज्वालामुखी धीरे-धीरे सुलगने लगे उसी तरह शिल्पी के एक-एक शब्द से सुल्तान का क्रोध प्रज्वलित हो रहा था। अब वह सहसा फूट पड़ा। सुल्तान चिल्ला उठा-किसी और ने यह बात कही होती तो उसका सिर कटवा लेता। परंतु ......फिर वह मुस्करा पड़ा और बोला- मैं तुम्हें बिल्कुल मामूली दण्ड दूँगा। सारी जनता के समक्ष तुम्हें इस मूर्ति को तोड़कर चूर-चूर करना होगा।

भीड़ में तहलका मच गया। कानाफूसी होने लगी। केवल तीन ही शाँत और स्थिर थे-सुल्तान, शिल्पी और मूर्ति। एक-एक क्षण एक युग जान पड़ता था। कई क्षण बीत गये, लेकिन शिल्पी का मौन न टूटा। वह अविचल भाव से खड़ा रहा। अंत में सुल्तान ने ही चुप्पी भंग की। मेरी आज्ञा स्वीकार है? नहीं, दृढ़ स्वर में शिल्पी का संक्षिप्त उत्तर था।

तो सिर कटाने के लिए तैयार हो जाओ।

हृदय गँवाने से सिर गँवाना कहीं अच्छा है।

क्या आज तक तुमने अपने हाथ से अपनी कोई रचना नष्ट नहीं की? अमीर ने शिल्पकार को उलझन में डालने के इरादे से प्रश्न किया।

एक नहीं अनेक प्रतिमाएं मैंने अपने हाथों से बनायीं और नष्ट की हैं।

किस कारण? सुल्तान ने विस्मित होकर पूछा। क्योंकि उनमें मेरी कला पूर्णतया अवतीर्ण नहीं हो सकी थी। मेरे हृदय का प्रतिबिम्ब उनमें नहीं प्रकट हो सका था। परंतु इस प्रतिमा की बात दूसरी है। यह मेरी सबसे सुँदर कृति है और मेरा काम सौंदर्य का निमार्ण करना है उसका विध्वंस नहीं। उस कार्य के लिए तो ईश्वर ने आप जैसे सुल्तान पैदा किये है।

जन समूह थर-थर काँप उठा। उपस्थित जनों में से प्रत्येक आकुल-व्याकुल हो गया। सबने समझ लिया-सुल्तान का इस तरह उद्धत अपमान करने वाला उद्धत कलाकार अब कुछ ही क्षणों में परलोक का मेहमान बनने वाला है। परंतु सब के सब चकित रह गये। अमीर सिर झुकाकर खड़ा था। बड़ी देर बाद उसने गर्दन ऊपर उठायी और कहा-कलाकार। मैंने तुम्हारे राणा को परास्त कर दिया है। शास्त्र की जीत अंतिम जीत होती है, यही मेरा आज तक का विश्वास था। परंतु आज तुमने मेरी आंखें खोल दीं। शास्त्र की जीत अंतिम जीत नहीं होती, सत्य की ही विजय होती है-यह ज्ञान मुझे मिल गया।


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