मानवी शिशु, जिन्हें पशुओं ने पाला

January 1993

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गर्भावस्था में आने से लेकर मृत्यु-पर्यन्त मनुष्य को अनेकानेक वातावरण में परिवेष्ठित हो रहना पड़ता है। गर्भकाल में वह अपनी अनुवाँशिकता से आवेष्ठित होता है और उस समय जन्मदात्री माँ के शारीरिक मानसिक स्वास्थ्य एवं भाव संवेदनाओं का उस पर प्रगाढ़ असर पड़ता है, किन्तु इस दुनिया में पदार्पण करते ही उसे जो प्रथम वातावरण मिलता है, उसका पारिवारिक परिवेश होता है। यह एक ऐसा वातावरण है जहाँ शिशु के व्यक्तित्व की गलाई-ढलाई होती है एवं इसकी नींव रखी जाती है, जिस पर कालान्तर में सुदृढ़ इसकी व्यक्तित्व का महल खड़ा किया जाता है, वैज्ञानिक अनुसंधानों से भी अब यह स्पष्ट हो गया है कि बच्चों को आनुवांशिकी से अधिक वातावरण, पारिवारिक परिवेश एवं परिस्थितियाँ प्रभावित करती है। शिशुओं के समग्र मानसिक विकास के लिए पारिवारिक शान्ति, सौहार्द्र और स्नेह-दुलार के साथ-साथ संस्कारोन्मुख प्रशिक्षण की व्यवस्था का होना भी नितान्त आवश्यक है।

नृतत्त्ववेत्ताओं, समाजशास्त्रियों एवं चिकित्सावैज्ञानिकों ने इस संदर्भ में गंभीरतापूर्वक अध्ययन अनुसंधान किया है। उनके अनुसार मनुष्य की ज्ञानवृद्धि-प्रशिक्षण एवं अभ्यास के अभाव में स्वाभाविक ढंग से नहीं हो पाती। इसके लिए जहाँ एक ओर माता-पिता या अभिभावक और शिक्षक आवश्यक हैं, वहीं दूसरी ओर तद्नुरूप उपयुक्त वातावरण का होना भी जरूरी है।

वेबिलोन के प्रसिद्ध राजा असुर वानापाल, फ्रेडरिक द्वितीय, जेम्स चतुर्थ और अकबर के समय में कुछ बच्चों पर इस तरह अलग रखा गये थे जिनमें उन्हें मानव समाज से इस तरह अलग रखा गया था कि उनका संपर्क किसी भी व्यक्ति से न हो सके। न तो वे किसी बातें सुन सकें और न उनके क्रिया-कलापों को देख सकें। केवल कुछ महिलायें ही उनके पालन-पोषण और रक्षण के लिए नियत की गयीं थीं जो बिना बोले कुछ संकेतों द्वारा ही उनका पालन पोषण करती रहीं। निश्चित अवधि के पश्चात् वे भी उनसे दूर हट जातीं और वहीं से उनका निरीक्षण करती रहती थीं। उन सभी प्रयोग-परीक्षणों से एक ही निष्कर्ष निकला था कि प्रशिक्षण एवं ज्ञानवृद्धि के अभाव में सभी बच्चे अविकसित, गूँगे-बहरे एवं व्यक्तित्व की दृष्टि से सर्वथा गये गुजरे थे।

“अन्डर स्टैण्डिंग ह्मन बिहेवियर “ नामक पुस्तक में ‘वाइल्ड चाइल्ड’ शीर्षक के अंतर्गत इस प्रकार के अनेक मानव शिशुओं का विस्तृत विवरण दिया गया है, जिनको असहाय अवस्था में पाकर विपरीत स्वभाव कहे जाने वाले वन्य हिंस्र पशुओं-यथा भेड़ियों, शेर, चीते, बन्दरों और भालुओं ने अपने बच्चों की तरह ममता एवं वात्सल्य भरे आत्मीयता से पाला पोषा। प्रख्यात जीवविज्ञानी डॉ. हिलवर्ट सिग्लर ने इस सम्बन्ध में किये गये अपने व्यापक अध्ययन एवं सर्वेक्षण के आधार पर बताया है कि हिंस्र पशुओं के साथ पले-पढ़े ये सभी मानव शिशु अपने वन्य पालकों के साथ पले-बढ़े ये सभी मानव शिशु अपने वन्य पालकों के साथ हिल-मिल कर हरते, उछलते-कूदते और शिकार करते पाये गये थे। रहन-सहन खान-पान एवं व्यवहार में भी वे पूरी तरह जंगली वातावरण के अनुरूप ढल गये थे।

अँग्रेजी के सुविख्यात साहित्यकार रडयार्ड किपलिंग ने “टारजन ऑफ दि एप्स “ नामक अपने शोघ में ‘टारजन नामक वन-मानव की कथा को बड़े ही रोचक-पूर्ण शब्दों में वर्णित किया है। टारजन एक ख्याति प्राप्त काँमिक स्ट्रीप ही नहीं अब वाइल्ड एक का एक विलक्षण नायक भी है। इसकी कथा इस प्रकार है कि एक ग्यारह वर्षीय अँग्रेज बालक एक जहाज से बिछुड़ कर अफ्रीका के घने जंगलों में जा फँसा, जहां उसे बन्दरों ने पकड़कर पाल-पोस लिया। अन्य पशुओं का भी उसे भावनात्मक सहयोग मिला और लगातार पन्द्रह वर्ष तक उनके बीच रह कर वह वन्य परिवार के हिंस्र तथा अहिंस्र प्राणियों का परिचित ही नहीं स्नेह भाजन भी बन गया था।

सर्वप्रथम वन्य पशुओं द्वारा पाले-पोसे गये मानव शिशुओं का प्रमाणिक विवरण चौदहवीं शताब्दी में तैयार किया था। सन् 1349 में जर्मनी के हैसे नामक बालक का नाम रिकार्ड में सर्वप्रथम अंकित किया गया था। लगभग बारह वर्षीय यह बालक जर्मनी के सघन जंगलों से खूँखार जानवरों के झुण्ड से जाल में फँसाकर पकड़ा गया था। इसके बाद समय-समय पर मध्य और पूर्वी योरोप के देशों में ऐसे अनेक बालकों को जंगली जानवरों के मध्य रहते हुए खोज निकाला गया। वे सभी गूंगे थे या अपने पालनकर्ताओं की तरह गुर्राने और कच्चा माँस खाने वाले थे तथा उन्हीं की तरह हाथ-पैरों से छलाँग मारकर चलते थे।

भारत में ब्रिटिश शासन काल में मेजर जनरल स्लीमैन नामक एक अँग्रेज अधिकारी ने इस संदर्भ में गहरी रुचि ली। सन् 1900 में उसने यह अनुमान लगाया था कि समूचे विश्व में प्रतिवर्ष प्रायः 6 हजार बच्चे जंगली हिंसक पशुओं की गिरफ्त में आ जाते हैं जिनमें से अधिकतर को वे अपने बच्चों की तरह पाल–पोसकर अपने परिवार अभिन्न सदस्य बना लेते हैं। उनके निर्देशन में पश्चिम बंगाल के मिदनापुर के जंगलों से अमला और कमला नामक दो लड़कियाँ खोज निकाली गयीं थी जिनमें अमला की आयु 18 माह और कमला की 12 वर्ष थी। अनेकों प्रयत्न करने के बावजूद भी उन्हें पूरी तरह प्रशिक्षित नहीं किया जा सका था दोनों की मृत्यु क्रमशः 9 वर्ष एवं 17 वर्ष की आयु में हो गयी थी।

सन् 1973 में इटली के प्राणि-व्यवहार विशेषज्ञों के एक खोजी दल आब्रूजी नामक पहाड़ियों के मध्य जंगली भेड़ियों के समूह से ‘रोमो’ नामक एक बच्चे को पकड़ा था। यह जंगल अपनी अत्यधिक सघनता एवं हिंस्र प्राणियों की बहुलता के लिए विख्यात है। रोमो भी पशुओं की तरह हाथ-पैरों की सहायता से छलाँग लगता और भेड़ियों की तरह गुर्राता था। इसी वर्ष बंदरों की टोलियों के साथ उछल-कूद करते हुए पाया गया था। बन्दरों के साथ छीना-झपटी करते समय वह भी अन्य साथियों की तरह घुड़की भरता और गुर्राता हुआ पेड़ की शाखायें हिलाने लगता। मनोवैज्ञानिकों के सतत् परिश्रम और प्रयासों से उसे कुछ ही महीनों में सामान्य व्यवहार क्रम में प्रशिक्षित कर लिया गया।

मानवीय व्यवहार विशेषज्ञों व अनुसंधानकर्ताओं ने वन्य पशुओं द्वारा पोद्वात मानव शिशुओं को दो प्रकार की श्रेणी में रखा है। पहली श्रेणी में वे बच्चे आते हैं जो किसी आकस्मिक दुर्घटना अथवा संयोगवश अपने माता-पिता या परिजनों से बिछुड़कर भूल-भटककर सघन जंगलों में फँसे, जहाँ उनकी असहाय एवं दयनीय अवस्था से द्रवीभूत खूँखार समझे जाने वाले जानवरों अपनी सन्तानों की तरह आत्मीयतापूर्वक पाल-पोस लिया था। दूसरी श्रेणी में उन बच्चों को रखा गया है जिन्हें शेर, चीते, बाघ, भालू और भेड़िये जैसे मानवीय रक्त और माँस से अपनी क्षुधा-पिपासा शान्त करने वाले प्राणियों ने उठा लिया था, किन्तु अपनी खुद की सन्तान न होने के कारण अथवा क्रूर और निर्मम मनुष्यों द्वारा अपने शिशुओं की हत्या कर दिये जाने पर सहज वात्सल्य भावना उमड़ पड़ने से उनको स्व-शिशुवत पाल लिया था।

गहन अध्ययनों एवं सर्वेक्षणों के आधार पर यह तथ्य भी उभर कर आया है कि पर्याप्त प्रशिक्षण तथा स्नेह-दुलार के अभाव में बच्चे मानसिक रूप से अविकसित रह जाते हैं और कितने ही मानसिक विकृति अथवा अन्य पारिवारिक कलह, कुँठा-कुत्साओं के कारण घर छोड़ कर जंगलों की ओर भाग जाते है। आज का तथाकथित सभ्य मानव भले ही स्वार्थी, निष्ठुर, क्रूर और मानवीय संवेदनाओं से रहित हो गया हो, किन्तु अध्ययनों से पता चलता है कि खूनी एवं हिंस्र समझे जाने वन्य प्राणियों की भाव संवेदनायें-प्रेम, ममता, समता और सद्भाव=सहयोग का स्रोत अभी सूखा नहीं है। वे मासूम असहाय बेसहारा बच्चों की व्यथा-वेदना पर टूक-टूक हो जाते हैं और अपनी विनाशकारी हिंसक प्रवृत्ति छोड़कर अपने निजी शिशुओं की तरह उन भी वात्सल्य भरी ममता का सागर उड़ेल देते हैं। बच्चे भी उन्हीं परिवारों का अभिन्न अंग बनकर रहने और तद्नुरूप अनुकरण आचरण तथा व्यवहार करने लगते है।

वन्य जीवों, जंगली हिंस्र पशुओं के साथ घुल-मिल कर जीवन-यापन करने वाले प्रकृति के कठोर आघातों से संतुलन बिठा लेने में समर्थ मानव शिशुओं के ये विवरण विचारशीलों, मनोवेत्ताओं एवं वैज्ञानिकों को सोचने के लिए विवश करते हैं कि यदि बच्चे को-भावी पीढ़ी को सुसंस्कृत वातावरण प्रदान नहीं किया गया, प्रशिक्षण एवं ज्ञान वृत्ति की समुचित व्यवस्था जुटायी नहीं जा सकी, तो अगले दिनों व्यक्तित्व की दृष्टि से मनुष्य को पशु मानव का जीवन व्यतीत करना पड़ सकता है। विश्व-विख्यात वैज्ञानिक मनीषी जॉन ग्रेन ने ‘यूनिसेफ ‘ के माध्यम से ठीक ही कहा है-”यदि आप एक बच्चे को उचित वातावरण पारिवारिक परिवेश, भोजन, माता-पिता का प्यार समुचित स्वतंत्रता एवं शिक्षा से वंचित रखते हैं तो आप एक ऐसे वयस्क का निर्माण करेंगे जो व्यक्तित्व की दृष्टि से अविकसित रहेगा और विकास की दशा में प्रगति को तेज करने की अपेक्षा उसे पीछे की ओर धकेलेगा।


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