विचारणाओं-भावनाओं की उत्कृष्टता ही मानवी उत्कर्ष का अभ्युदय का प्रमुख आधार है। जो इस तथ्य से भली-भाँति अवगत हैं, वे अपनी चिंतन-चेतना को सदैव ऊर्ध्वगामी बनाये रखने का प्रयत्न करते है। विचार-शक्ति की महिमा से अनभिज्ञ व्यक्तियों को जिस-तिस प्रकार अस्त-व्यस्त जीवन जीने को विवश होते और अविकसित मनःस्थिति में ही दम तोड़ते देखा जाता है। विचारों का स्तर विधेयात्मक जैसा भी होगा, व्यक्तित्व भी तद्नुरूप ढलता चला जायेगा।
मनःचिकित्सक डॉ. जार्ज आर. वैच ने निषेधात्मक प्रकार की विचार धारा को मनुष्य का सबसे बड़ा आन्तरिक शत्रु बताया है। अपनी कृति-द इनर एनिमी में उनने लिखा है कि संसार में इससे बढ़कर हानिप्रद दुश्मन और कोई नहीं। बाहरी शत्रु मात्र आर्थिक या शारीरिक हानि पहुँचा सकते हैं और यदि सतर्कता बरती जाय-सावधान रहा जाय, तो उनसे लोहा लिया और निपटा भी जा सकता है। किंतु आँतरिक दुश्मन तो अंतराल में पनपने और मन-मस्तिष्क में उमड़ने-घुमड़ने वाले हेय विचार हैं, जिन्हें असावधान व्यक्ति न तो पहचान पाते हैं और न उनसे बचने या पीछा छुड़ाने का प्रयत्न ही करते है। उनने इसे हैण्डसम डेविल के नाम से सम्बोधित किया है, कारण कि यह सुँदर लुभावने सपने दिखाते और अपने मोहपाश में फँसाकर अन्ततः पतन की गर्त में जा धकेलते है। जीवनक्रम को अस्त-व्यस्त करके रख देने वाली इस विचार प्रक्रिया को दैत्य की श्रेणी में रखा गया है। विचार तंत्र का परिष्कार ही इससे त्राण पाने का सरल उपाय है।
विधेयात्मक विचार प्रक्रिया को अपनाकर ही आगे बढ़ा और ऊँचे उठा जा सकता है। प्रगति एवं व्यक्तित्व की प्रखरता का सूत्र सादा जीवन व उच्च चिंतन में ही निहित है। विश्व प्रसिद्ध लेखक डॉ. वेने डायर ने द स्काई इज द लिमिट नामक पुस्तक में विचारणा की इस श्रेष्ठतम स्थिति को टान्सेडिंग आँथोरीटेरियन थिंकिंग अर्थात् उत्कृष्ट प्रामाणिक चिंतन के नाम से सम्बोधित किया है और इस तरह के विचार प्रक्रिया को अपनाने वाले व्यक्ति को नो लिमिट परसन अर्थात् असीम एवं असाधारण व्यक्तित्व वाला बताया है। ऐसे व्यक्ति सामान्यजनों की अपेक्षा अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं ढूंढ़ने तथा अपने बारे में निर्णय ले सकने की क्षमता से पूर्ण होते है और साथ ही परिस्थितियों के अनुरूप मनःस्थिति को ढालने की कला में भी पारंगत होते है। उनके चिंतन की परिधि ससीम न रहकर असीम हो जाती है। स्वतंत्र एवं व्यवस्थित सूझबूझ वाले व्यक्तियों के निर्णय सही और सार्थक सिद्ध होकर रहते हैं।
रेन डिकार्टे को आधुनिक दर्शन का जन्मदाता कहा जाता है। उनके कथनानुसार मनुष्य में ‘कोजीटो’ नामक एक विशिष्ट प्रकार की विचार ऊर्जा सतत् प्रवाहित होती रहती है। यदि उसे विधेयात्मक एवं रचनात्मक दिशा में मोड़ा-मरोड़ा जा सके तो मनुष्य सीमित एवं संकुचित दायरे से निकल कर अपने विराट स्वरूप की झाँकी आसानी से कर सकता है। जीवन दर्शन की समस्त संभावनाएँ इसी ऊर्जा प्रवाह पर निर्भर करती हैं। सामान्य से असामान्य बना सकने वाला जीवन तत्व इसी में विद्यमान है। डॉ. वेने डायर ने कोजीटो-को ही नो लिमिट-थिंकिंग अर्थात् असीम चिंतन से संबोधित किया और बताया है कि यह मानवी चिंतन की वह अवस्था है जिसमें ज्ञान कर्म और विचार की, चिंतन- चरित्र व्यवहार की तीनों धाराओं का सामंजस्य-समन्वय सरलतापूर्वक बैठ जाता है। केवल विचारणा मात्र ही मानवी व्यक्तित्व का प्रतीक नहीं होती वरन् समग्र व्यक्तित्व का निर्धारण आचार और विचार दोनों से मिलकर बनता है। चरित्र का निर्माण इसी से होता है। संसार में ऐसे कितने ही व्यक्ति पाये जा सकते हैं जिनके विचार बड़े ही उदात्त, महान और आदर्शपूर्ण होते हैं, किंतु उनकी क्रियाएं उनके अनुरूप नहीं होती। विचार पवित्र हो और कार्य अपावन, तो यह व्यक्तित्व की श्रेष्ठता कहाँ हुई? इसी प्रकार यह भी हो सकता है कि कोई ऊपर से बड़े ही सत्यवादी,आदर्शवादी और धर्मपरायण दीखते हों, किंतु भीतर कलुषपूर्ण विचारधारा ही प्रवाहित हो रही है। दोहरे जीवन जीने वाले ऐसे व्यक्ति खरे व्यक्तित्व वाले नहीं माने जा सकते। चरित्रवान उसे ही माना जायेगा और वास्तव में वही होता भी है जो विचार और व्यवहार दोनों को समान रूप से उच्चस्तरीय और पवित्र रखकर चलता है।
काय कलेवर जिससे आचरण और क्रियायें प्रतिपादित होती हैं, विचारों द्वारा ही संचालित होता हैं। उनके स्तर के अनुरूप ही व्यक्तित्व का निर्माण होता है जो व्यक्ति रचनात्मक विचारणाओं को जिस अनुपात में अपनाता, सँजोता और सक्रिय करता चलता है, उतना ही वह सदाचारी, पुरुषार्थी और परमार्थी बनता जाता है। इस आधार पर सुख शाँति के अक्षुण्ण बने रहने का आधार खड़ा होता है विचार प्रवाह के निम्नगामी होने पर व्यक्तित्व के विकास में विघ्न पहुँचता है। इस तरह की विचारधारा को डिकोटोमस अर्थात् विकृत एवं विघटनकारी प्रवाह के नाम से भी जाना जाता है। इस मानसिक रुग्णता की स्थित में अचिन्त्य चिंतन एवं अनौचित्यपूर्ण क्रिया–कलापों के जाल में फँस जाना कोई आश्चर्य की की बात नहीं है। अज्ञानता-अबोधतावश और असावधानी से ऐसा हो सकता है, किंतु तथाकथित सभ्यों के जब ऐसा सोचते और आचरण करते देखा जाता है जो मानवी गरिमा और सभ्यता के अनुकूल नहीं होता तब और भी अधिक आश्चर्य होता है।
वस्तुतः नो लिमिट परसन अर्थात् विशाल व्यक्तित्व का अर्थ है- संकीर्णताजन्य स्वार्थपरता के भव बंधनों का परित्याग करने वाली उत्कृष्ट चिंतन की रीति-नीति को अपनाकर अपने को लोकोपकारी आदर्शवादी विचारधारा के साथ जोड़ना। इस विद्या को जानने वालों के जमीन में सदैव प्रसन्नता और प्रशंसा ही दृष्टिगोचर होती है। निंदा आलोचनाओं से वह सदा अपने को दूर रखते हैं। राल्फबाल्डो इमर्सन जैसे अध्यात्मवेत्ता और आइंस्टीन जैसे वैज्ञानिक अपने उत्कृष्ट प्रमाणिक चिंतन के कारण ही दुनिया को नयी और रचनात्मक दिशाधारा दे सकने में सफल हो सके। यह सभी इस तथ्य का उद्घाटन करते है कि मानवी शक्तियों में विचार शक्ति का बहुत महत्व है। एक विचारवान व्यक्ति लाखों, करोड़ों का नेतृत्व कर सकता है। इस क्षमता से सम्पन्न व्यक्ति साधनहीन होने पर भी अपनी उन्नति और प्रगति का मार्ग निकाल लेते है। विधेयात्मक दिशाधारा अपनाकर ही महापुरुष समाज और राष्ट्र का निर्माण किया करते हैं। इस सामर्थ्य के बल पर अध्यात्मिक व्यक्ति कठिन से कठिन भव बंधनों को पार कर आत्म साक्षात्कार करते एवं परमात्म सत्ता से जुड़ते है। ऐसे व्यक्तित्वों का निर्माण किसी स्कूली पढ़ाई अथवा ऊपर के थोपे हुए ज्ञान से नहीं अपितु चिंतन-चेतना के परिष्कार से ही संभव है। तपश्चर्या का योग साधनाओं का अवलम्बन इसी प्रयोजन की पूर्ति करता है, शिक्षा का अर्थ भौतिक जानकारी देने वाली स्कूली पढ़ाई तक सीमित हो गया है। उसके द्वारा बहुज्ञता,कुशलता एवं अधिक उपार्जन क्षमता के लाभ तो मिल सकते हैं किंतु उच्चस्तरीय व्यक्तित्वों का निर्माण विचार परिष्कार से ही संभव है। चिंतन की उत्कृष्टता जहाँ होगी वहाँ जीवन में स्नेह-सौजन्य का सौमनस्य का बाहुल्य मिलेगा। इसी प्रकार संपर्क क्षेत्र में पारस्परिक सहयोग-सद्भाव उमड़ रहा होगा।
सामान्य लोगों की अपेक्षा दार्शनिक विचारक,संत मनीषी एवं कलाकार अधिक निर्धन और अभावग्रस्त स्थिति में होते हैं, पर उन्हें सम्पन्नों की तुलना में कही अधिक संतुष्ट, सुखी और शाँत समुन्नत देखा जाता है। इसका एक मात्र कारण यही है कि सामान्यजन सुख-शाँति के लिए जहाँ लौकिक और भौतिक सुविधा-साधन जुटाने में निरत रहते हैं वहीं महामानव मानसिक साधना अथवा वैचारिक साधना के अभ्यासी होते हैं, विकृत एवं विघटनकारी चिंतन के दुष्परिणामों को भलीभाँति समझने और उत्कृष्ट चिंतन की रीति-नीति अपनाकर कष्ट कठिनाइयों से छुटकारा पाने में समर्थ होते हैं। वस्तुतः मनुष्य की संरचना समन्वयवादी एवं मानवतावादी दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर परमात्मा ने की है। इस तरह की विचारणा को मनीषियों ने कल्पवृक्ष की उपमा दी है जो व्यक्ति की हर आवश्यकता को पूरी करने की क्षमता रखती और उसे सन्मार्ग पर चलने के लिए अभिप्रेरित करती है।
शुभ और दृढ़ विचार मन में धारण करने और उत्कृष्ट चिंतन मनन करते रहने से सात्विक भावों की अभिवृद्धि होती है। मानसिक शक्ति का विकास होता और सद्गुणों की प्राप्ति होती है। अतः यह आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है कि अपने सोचने विचारने की प्रक्रिया पर नये सिरे से मंथन किया जाय और उसमें से खोज-खोजकर निकृष्ट एवं हेय स्तर के विचारों को निकाल फेंका जाय। साधना, स्वाध्याय,संयम,सेवा के उपाय-उपचारों द्वारा सद्विचारों का आरोपण सहज संभव हो जाता है। प्रखर, प्रतिभाशाली व्यक्तित्व का निर्माण एवं उज्ज्वल भविष्य का निर्धारण इसी आधार पर संभव हो सकेगा।