अकाल मृत्यु से बचने की रीति-नीति

January 1993

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फसल पक जाती है तो उसे किसान काट देते हैं। वृक्ष अतिशय पुराने हो जाते हैं तो उनकी खोखली जड़े तेज हवा का दबाव न सहने के कारण उखड़ कर उलट जाती हैं। घास गर्मी के दिनों में सूख जाती है। पेड़ों के पत्ते पुराने पड़ जाने पर शीतकाल में पतझड़ प्रस्तुत कर देते हैं। यह समय चक्र का सामाजिक अवसान है। मनुष्य का जीवन काल शतायु माना गया है। उतने समय तक कार्यरत रहने की उसमें प्रकृति प्रदत्त क्षमता है। मानवी काया के कलपुर्जों से यदि भौंड़ी छेड़खानी न की जाय तो वह मशीन बिना गड़बड़ाये पूरे समय अपना काम करती रह सकती है।

असमय की मृत्यु को अकाल मृत्यु भी कहते हैं। यों दुर्घटना में, किसी असाध्य रोग के चंगुल में फँस जाने के भी अकालमृत्यु कहते हैं, पर वास्तविकता को देखा जाय तो दूसरे ही तथ्य उभर कर सामने आते हैं। कितने ही लोग हैं जो जाने-अनजाने धीमी आत्महत्या के प्रयास में लगे रहते हैं और लगभग आधी आयु जीकर अपना विस्तार गोल कर लेते हैं। मन को तो किसी प्रकार के उलटे-सीधे तर्कों से समझाया जा सकता है, पर इतने भर से तथ्यों को झुठलाया नहीं जा सकता है। कुछ अपवादों को छोड़कर उत्थान-पतन के अन्य अनेक प्रसंगों की तरह पूर्णायु तक पहुँचना या बीच में ही पैर पसार देना यह मनुष्य की अपनी निजी गतिविधियों पर निर्भर है।

यों चाहने को तो सभी निरोग रहना और दीर्घ जीवन जीना चाहते है, पर इतने भर से मनोरथ की पूर्ति नहीं हो सकती। किसान तभी उपयुक्त फसल काटता है, जब खेत को जोतने से लेकर बीज बोने, खाद देने, सींचने और रखवाली करने में दत्तचित्त रहता है। उन सब कामों में उपेक्षा, अस्तव्यस्तता बरतने पर स्थिति को यथावत नहीं रखा जा सकता। ऐसे खेत भरपूर फसल नहीं देते और समय तक टिके नहीं रहते, उन्हें कृति-कीटक ही खा जाते हैं, पक्षी नोच लेते हैं और ऋतु-प्रभाव सहन न कर पाने पर वे असमय ही अपनी सत्ता खो बैठते है। मनुष्य के संबंध में भी यही बात है। यों वह मरने से डरता है। निरोग रहना और दीर्घजीवी बनना चाहता है, पर चाहने से क्या? चाहने को तो कोई कुछ भी चाह सकता है। पर पल्ले वही पड़ता है, जिसके लिए सुव्यवस्थित रीति से प्रयास किया जाता है। उलटी दिशा में चलने वाले तो ठोकरें खाते और औंधे मुँह गिरते ही देखे जाते हैं।

जीवनचर्या किस प्रकार बनानी अपनानी चाहिए, इसके लिए हर प्राणी को प्रकृति प्रदत्त मार्ग-दर्शन उपलब्ध है। यह स्वभाव में समाया होता है। यदि आदतों को बिगाड़ा न जाय और प्रकृति के परामर्श को ध्यानपूर्वक सुना जाय, तो उसी राजमार्ग पर चलना हर किसी के लिए संभव हो सकता है, जो निरापद है और निरोग जीवन जीने, पूर्णायुष्य पाने का राजमार्ग दिखाता है। मनुष्येत्तर अन्यान्य प्राणी इस अनुशासन को समझते, अपनाते हैं, फलतः उन्हें न तो बीमार होना पड़ता है और न अकाल मृत्यु ही मरते हैं। वृद्धावस्था की दुर्बलता आने से पूर्व उनकी समर्थ स्थिति में ही मौत उन्हें हिंस्र प्राणियों का रूप बनाकर उठा लेती है। नियति का मनोरथ है कि प्राणी तभी तक जिये, जब तक उसमें सशक्तता विद्यमान रहे। बच्चों, अभिभावकों पर निर्भर रह सकते हैं, पर प्रौढ़ होने के उपराँत यह व्यवधान किसी के भी सामने नहीं आना चाहिए कि वह परावलंबी रहे। अशक्त का अभिशाप सहन करते हुए भी पैर घसीटता रहे और दूसरों की कृपा पर निर्भर रहे। जो दुर्दशा सृष्टि के अन्यान्य प्राणियों में से किसी की भी नहीं होती, वह अकेले मनुष्य की ही होती है। मरने से पूर्व ढेरों समय वह रुग्णता और अशक्तता का त्रास पाते हुए व्यथित रहता है। साथ ही परिचर्चा, चिकित्सा तथा जीवन साधन जुटाने के लिए दूसरों की कृपा पात्र बनकर रहता है। सृष्टि के मुकुटमणि समझ जाने, सर्व सम्पदाओं और सुविधाओं को प्राप्त करने में समर्थ मनुष्य की यह दुर्दशा क्यों? इसका एक मात्र कारण है-जीवनचर्या में अनुपयुक्त रीति का समावेश करते रहना। इस उद्दण्डता का प्रतिफल भी उसे हाथों-हाथ मिलता है। बीमारियों से घिरे रहना और समय से बहुत पहले रोते-कराहते हुए चल बसना-यही है वह दण्ड, जिसे प्रकृति की अदालत में निष्पक्ष होकर दिया जाता है। धनी-निर्धन, ज्ञानी-अज्ञानी, पापी-पुण्यात्मा किसी को भी बख्शा नहीं जाता। जीवन सम्पदा, सुख-चैन से बिताने, अभीष्ट प्रगति की दिशा में वेग-पूर्वक बढ़ते चलने की अपेक्षा उसे प्रायः आधी आयु प्रदानकर्ता को वापस लौटानी पड़ती है। प्रगति और प्रसन्नता के स्थान पर बची-खुची जीवन अवधि रोते-कलपते गुजारनी पड़ती है। इस अवधि में उसे शारीरिक और मानसिक रोगों के यमदूत विविध शोक-संतापों की प्रताड़ना देते रहते है। इसे संयोग मात्र नहीं समझा जाना चाहिए, वरन् एक प्रकार से करनी का फल मानकर उसे सृष्टि क्रम में समाहित न्याय निष्ठ की प्रमुखता मानते हुए समझना चाहिए कि उस मार्ग पर न चलें, जिस पर काँटे बिछे और कंकड़ पत्थरों के चुभने वाले अम्बार पड़े हों।

जीवनचर्या का ककहरा भोजन से आरंभ होता है। जन्म लेते ही उसे पेट भरने की आवश्यकता पड़ती है। अभिभावक उसी को जुटाते है। इसका अर्थ है कि शरीर की मशीन को चलाने के लिए जिस ऊर्जा की आवश्यकता है उसमें आहार प्रमुख है। गीला, सड़ा या अनुपयुक्त ईंधन जलने पर आग की ज्वाला प्रज्वलित नहीं होती, वरन् उलटा धुआं उगलने लगती है। ऐसा धुआं जो अपने क्षेत्र को दुर्गन्धित काला करता है और संपर्क में आने वालों की आँख, नाक में प्रवेश करके जलन उत्पन्न करता है। इस प्रकार आग जलाकर जो लाभ उठाया जाता था वह तो बन नहीं पड़ता उलटे ईंधन के बरबाद होने के अतिरिक्त अवाँछित विग्रह उत्पन्न करता है। अनुपयुक्त आहार भी शरीर का पोषण करने के स्थान पर उसका विनाश करने लगता है। सभी जानते है कि विषपान करने पर जीवन सत्ता कुछ ही देर में समाप्त होती है। इसके अतिरिक्त पोषक रसायनें बिगड़ी स्थिति को सुधारने में भी चमत्कारी लाभ उत्पन्न करती हैं। यह आहार का गुणानुवाद है।

किस प्राणी के लिए क्या आहार उपयुक्त है, इसकी जाँच-पड़ताल जिह्वा का डॉक्टर कर लेता है। जो उपयुक्त खाद्य है वह हर प्राणी को उसके स्वाभाविक रूप में मिलता है। पकाने,तलने, मिर्च मसाले, नमक, शक्कर, मिलाने की उनमें अलग से आवश्यकता नहीं पड़ती। कोई प्राणी अपने आहार की दुर्गति बनाता भी नहीं। शाकाहारी, माँसाहारी वर्ग के प्राणी उपलब्ध आहार को मुँह में ही पीसकर पेट तक पहुँचा देते हैं। पेट में दाँत नहीं है, इसलिए आहार का आधा पाचन दाँतों द्वारा पीसे जाने और मुख ग्रंथियों का पाचक रस मिलने से पूरा हो जाता है। मनुष्य से मिलती-जुलती कार्य संरचना वाले सभी प्राणी इसी कार्य विधि से पेट भरते हैं। जीभ को वे व्यभिचारिणी चटोरी नहीं बनाते। मनुष्य ही अपनी रसना के स्वाद के नाम पर ऐसे पदार्थ माँगता है जो उत्तेजक होने के कारण किसी प्रकार निगलते तो रहते हैं, पर पीछे

उसकी नशेबाजी जैसी आदत पड़ जाती है और अधिकाधिक खट्टे-मीठे, नमकीन, जले-भुने पदार्थों की माँगे होने लगती हैं। तथाकथित स्वादिष्ट पदार्थों में तीन चौथाई भाग ऐसा होता है, जो शरीर को पोसता नहीं, वरन् उसके उपयोगी तत्वों का शोषण करके उन्हें बरबादी के गर्त में धकेलता है। मनुष्य का स्वाभाविक भोजन शाक-फल हो, तथा वे पर्याप्त मात्रा में न मिलें, तो अनाज को भी अंकुरित करके या उबालकर खाया जा सकता है। ऐसी आदत डाल लेने पर आहार सम्बंधी उस विकृति से बचा जा सकता है, जो रुग्णता या अकालमृत्यु का प्रमुख कारण है।


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